सरकारी अनुदान से चिकित्सा में निजी निवेश को मिलेगा बल

        


आजादी के इतने वर्षों बाद भी अब तक भारत के गांवों में मूलभूत सुविधाएं शहरों की अपेक्षा बहुत ही कम है। रोटी, कपड़ा और मकान जैसी बड़ी आवश्यकताओं की पूर्ति तो वें जैसे-तैसे कर ही लेते है लेकिन शिक्षा और स्वास्थ्य अब भी कोसो दूर है। शासन द्वारा इन दूरियों को कम करने की लगातार कोशिश हो रही है। शहरों में शिक्षा और स्वास्थ्य में तेजी से आये बदलाव का एक बड़ा कारण इसमें निजी भागीदारी को माना जा रहा है। प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च तकनीकी शिक्षा तक में भी निजी शिक्षण संस्थानों ने क्रांतिकारी बदलाव किये है। एक तरह से देखा जाए तो शासकीय से बेहतर निजी स्कूलों की शिक्षा को माना जाता है, पालक अपने बच्चों को सरकारी के बजाए प्राइवेट स्कूल में पढ़ाना चाहते हैं। इसी तरह स्वास्थ्य में भी निजी अस्पतालों ने बड़े शहरों में बेहतर काम किया है। आधुनिक तकनीक के साथ सर्वसुविधायुक्त निजी अस्पताल अब अमीरों के साथ गरीबों को भी रास आ रहा है। हालांकि निजीकरण के कारण शिक्षा और स्वास्थ्य काफी महंगे हुये है लेकिन लोग बेहतरी के लिये पैसा बहाने से नहीं डरते। और फिर गरीबों के लिए इन दोनों संस्थानों में विभिन्न शासकीय योजनाओं के तहत लाभ भी मिलता है। 

        हाल ही में छत्तीसगढ़ सरकार ने स्वास्थ्य के क्षेत्र में ग्रामीणों को बेहतर सुविधा मुहैया कराने के उद्देश्य से गांवों में प्राइवेट अस्पताल बनाने में सहयोग करने की कार्य योजना को अमली जामा पहनाना शुरू कर दिया है। पिछले दिनों मुख्यमंत्री भूपेश बघेल द्वारा यह घोषणा की गई कि नवा रायपुर में 25 एकड़ की भूमि को निजी अस्पतालों के लिये आरक्षित रखा गया है। वहां सर्वसुविधायुक्त ऐसे अस्पताल बनेंगे जो बड़े महानगरों में होते है, छत्तीसगढ़ की जनता को किसी भी बीमारी के उपचार के लिए राज्य से बाहर जाने की जरूरत नहीं होगी। और यदि बाहर ले जाने की जरूरत महसूस हुई तो अस्पताल से ही सीधे शिप्ट करने की व्यवस्था बनी रहेंगी। ग्रामीण अंचलों में भी स्वास्थ्य की सुविधा को बेहतर करने के लिये मुख्यमंत्री ने कहा है कि जो चिकित्सक गांव में निजी अस्पताल बनाना चाहते हैं उन्हे अनुदान भी मिलेगा। चिकित्सा में निजीकरण तो था ही लेकिन सरकार द्वारा मदद मिलने से निश्चित ही और भी व्यापक रूप से छोटे कस्बों में भी स्वास्थ्य की बेहतर सुविधा मिल सकेंगे।

        गत दो वर्ष से जिस प्रकार वैश्विक महामारी कोरोना ने उपचार के अभाव में लोगों की जाने ली है, स्वास्थ्य के क्षेत्र में निजीकरण के फैसले को अच्छी और दूरगामी सोच ही कहा जा सकता है। दूसरी तरफ देखा जाए तो निजी अस्पतालों में सुविधाओं के साथ उपचार महंगा भी होता है। कई बार आम जनता पैसों के आभाव में ईलाज नहीं करा पाते। कुछ तो अपनी जमीन जायदाद तक बेच कर उपचार करवाते हैं। जान है तो जहान है के जुमले पर, लोग पैसे होने से पहला विकल्प निजी अस्पताल ही चुनते हैं। शहरों में न जाने क्यों लोग सरकारी अस्पतालों में सुविधा होने के बावजूद प्राइवेट अस्पतालों में जाते है, वहीं दूसरी तरफ देखे तो छत्तीसगढ़ में कई ऐसे ग्रामीण अंचल है जहां स्वास्थ्य सुविधा ही नहीं है। सुदूर इलाकों में तो आज भी पारंपरिक पद्धति द्वारा उपचार किया जाता है, यहां तक की झाड़-फूंक और तंत्र-मंत्र का भी सहारा लेते है अब यदि प्राइवेट अस्पतालों को अनुदान देने की सरकार की नीति पर अस्पताल ग्रामीण इलाकों में बनने लगे तो निश्चित ही लोगों को इसका लाभ मिलेगा। 

सरकार ने सरकारी अस्पतालों की सुविधाएं गांव-गांव तक पहुंचाने व अत्याधुनिक उपचार तकनीक मुहैया कराने के बजाए प्राइवेट अस्पताल खुलने में मदद की घोषणा कर दी। जबकि ये बात आम है कि प्राइवेट अस्पताल में इलाज महंगा होता है, जिनके पास पैसा होता है वही लोग प्राइवेट अस्पतालों में जाते हैं। कोरोना काल में यह भी देखा गया है कि संक्रमित मरीजों के उपचार में निजी अस्पतालों ने लाखों रूपये तक वसूले हैं। कई बड़े अस्पतालों ने तो 5 से 25 लाख तक का पैकेज रखा था, महामारी के दौर में मोटी कमाई का जरिया बना था, कुछ अस्पतालों पर तो कार्यवाही भी हुई, कुछ ने कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है। दौर चाहे जो भी रहा हो लेकिन सरकारी अस्पताल गरीबों के लिये किसी वरदान से कम नहीं, जीवन की चाह लेकर गरीब तपके के लोग दूर-दूर से सरकारी अस्पताल में ही पहुंचते हैं। कोरोना काल में प्रदेश के सभी छोटे-बड़े सरकारी अस्पतालों ने विभिन्न माध्यमों से अपनी सुविधाओं में आमूलचूल विस्तार किया है। दवाओं के साथ छोटी मशीन व ऑक्सीजन आदि लोगों के दान से प्राप्त हुआ है। जिन अस्पतालों में अक्सर स्टाफ के समय पर नहीं पहुंचने की शिकायते होती थी वहां भी चिकित्सकों के साथ पूरे स्टाफ ने अथक मेहनत से लोगों की जाने बचाये हैं। यदि ऐसी स्वास्थ्य के प्रति सजगता हमेशा बनी रहे तो शायद ही की कोई बीमारी से अकाल मौत मरेगा। 

- जयंत साहू, रायपुर [98267-53304]


माधवराव सप्रे और पहली हिन्दी कहानी 'एक टोकरी भर मिट्टी'


    छत्तीसगढ़ की धानी धरती रत्नगर्भा होने के साथ ही साहित्यि का तक्षशिला भी है। इस अंचल से अनेक कलमवीर निकले जिन्होंने लेखन की धार से समुचे धरा को नामचीन बनाये रखा। शुरूआती कहानीकारों में एक बड़ा नाम आता है माधवराव सप्रे का जो छत्तीसगढ़ की गोरेल्ला पेंड्रा मरवाही से ताल्लुक रखते हैं। बिलासपुर शहर से काफी दूर वनांचल में साहित्य का मशाल जलाये रखना एक महान कथाकार माधवराव सप्रे का छत्तीसगढ़ से होना उतना ही गौरवांवित करता है जितना की उनके द्वारा संपादित पत्रिका ‘छत्तीसगढ़ मित्र’। जिस दौर में छपाई की कोई व्यवस्था नहीं थी तब सन 1900 में एक छोटे से गांव पेंड्रा से “छत्तीसगढ़ मित्र” नामक मासिक पत्रिका निकालना वाकई बहुत बड़ा काम है। 

    कहानीकार माधवराव सप्रे जी का जन्म दमोह जिले के पथरिया ग्राम में 19 जून 1871 को हुआ था। प्राथमिक शिक्षा बिलासपुर से ग्रहण करने के बाद रायपुर से मैट्रिक उत्तीर्ण किये। सप्रे जी की पाठ्यक्रम में शामिल कहानी से ज्ञातव्य है कि 1899 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से बी.ए. करने के बाद उन्हें तहसीलदार के रूप में शासकीय नौकरी मिली थी। लेकिन सप्रे जी ने अँग्रेज़ों की नौकरी नहीं की। वें सन 1900 में छत्तीसगढ़ मित्र नामक मासिक पत्रिका निकाले, जो कि सिर्फ़ तीन साल ही चल पायी। तदोपरांत सप्रे जी ने लोकमान्य तिलक के मराठी केसरी को यहाँ हिंदी केसरी के रूप में छापना प्रारंभ किया तथा साथ ही हिंदी साहित्यकारों व लेखकों को एक सूत्र में पिरोने के लिए नागपुर से हिंदी ग्रंथमाला भी प्रकाशित की। उन्होंने कर्मवीर के प्रकाशन में भी महती भूमिका निभाई। हिन्दी कहानी के उम्दा शिल्पकार, पत्रकारिता के युग पुरूष सप्रे जी 23 अप्रैल 1926 को दुनिया छोड़ गये।

    छत्तीसगढ़ के पाठ्य पुस्तक में एक बहुत ही प्रसिद्ध कहानी ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ को सभी ने पढ़ा होगा। कहानी बहुत ही मार्मिक है, एक जमीदार और विधवा औरत के द्वारा अपनी पोती के लिये चूल्हे की मिट्टी ले जाने की लघु प्रसंग ही पूरी कहानी का सा‍र है। जिसे पढ़ने पर कई बार आंखे नम हो जाती है। मन करता है जमीदार को जी भर कोसे। विधवा भी आखिर क्या कर सकती है जमींदार का। पोती हो मनाने के लिये ली जाने वाली टोकरी भर मिट्टी को न उठा पाने के दंभ के बाद जमींदार का हृदय परिवर्तन होना कहानी की सकारात्मकता को दर्शाता है जो कही न कही समाज में सीख देने की कोशिश कर रहा है। इसमें जमीदार और बुढि़या के अलावा उनकी पोती की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। इस कहानी को हिंदी की पहली कहानी होने का श्रेय प्राप्त है। 

    1924 में हिंदी साहित्य सम्मेलन के देहरादून अधिवेशन में सभापति रहे सप्रे जी ने 1921 में रायपुर में राष्ट्रीय विद्यालय की स्थापना की और साथ ही रायपुर में ही पहले कन्या विद्यालय जानकी देवी महिला पाठशाला की भी स्थापना की। माधवराव सप्रे के जीवन संघर्ष, उनकी साहित्य साधना, हिन्दी पत्रकारिता के विकास में उनके योगदान, उनकी राष्ट्रवादी चेतना, समाजसेवा और राजनीतिक सक्रियता को याद करते हुए माखनलाल चतुर्वेदी लिखते है- "पिछले पच्चीस वर्षों तक पं॰ माधवराव सप्रे जी हिन्दी के एक आधार स्तम्भ, साहित्य, समाज और राजनीति की संस्थाओं के सहायक उत्पादक तथा उनमें राष्ट्रीय तेज भरने वाले, प्रदेश के गाँवों में घूम घूम कर, अपनी कलम को राष्ट्र की जरूरत और विदेशी सत्ता से जकड़े हुए गरीबों का करुण क्रंदन बना डालने वाले, धर्म में धँस कर, उसे राष्ट्रीय सेवा के लिए विवश करने वाले तथा अपने अस्तित्व को सर्वथा मिटा कर, सर्वथा नगण्य बना कर अपने आसपास के व्यक्तियों और संस्थाओं के महत्व को बढ़ाने और चिरंजीवी बनाने वाले थे।"

कहानी (एक टोकरी भर मिट्टी)

    किसी श्रीमान् जमींदार के महल के पास एक गरीब अनाथ विधवा की झोंपड़ी थी। जमींदार साहब को अपने महल का हाता उस झोंपड़ी तक बढा़ने की इच्छा हुई, विधवा से बहुतेरा कहा कि अपनी झोंपड़ी हटा ले, पर वह तो कई जमाने से वहीं बसी थी; उसका प्रिय पति और इकलौता पुत्र भी उसी झोंपड़ी में मर गया था। 

    पतोहू भी एक पाँच बरस की कन्या को छोड़कर चल बसी थी। अब यही उसकी पोती इस वृद्धाकाल में एकमात्र आधार थी। जब उसे अपनी पूर्वस्थिति की याद आ जाती तो मारे दु:ख के फूट-फूट रोने लगती थी। और जबसे उसने अपने श्रीमान् पड़ोसी की इच्छा का हाल सुना, तब से वह मृतप्राय हो गई थी। 

    उस झोंपड़ी में उसका मन लग गया था कि बिना मरे वहाँ से वह निकलना नहीं चाहती थी। श्रीमान् के सब प्रयत्न निष्फल हुए, तब वे अपनी जमींदारी चाल चलने लगे। बाल की खाल निकालने वाले वकीलों की थैली गरम कर उन्होंने अदालत से झोंपड़ी पर अपना कब्जा करा लिया और विधवा को वहाँ से निकाल दिया। बिचारी अनाथ तो थी ही, पास-पड़ोस में कहीं जाकर रहने लगी।

    एक दिन श्रीमान् उस झोंपड़ी के आसपास टहल रहे थे और लोगों को काम बतला रहे थे कि वह विधवा हाथ में एक टोकरी लेकर वहाँ पहुँची। श्रीमान् ने उसको देखते ही अपने नौकरों से कहा कि उसे यहाँ से हटा दो। पर वह गिड़गिड़ाकर बोली, ''महाराज, अब तो यह झोंपड़ी तुम्हारी ही हो गई है। मैं उसे लेने नहीं आई हूँ। महाराज क्षमा करें तो एक विनती है।'' जमींदार साहब के सिर हिलाने पर उसने कहा, ''जब से यह झोंपड़ी छूटी है, तब से मेरी पोती ने खाना-पीना छोड़ दिया है। मैंने बहुत-कुछ समझाया पर वह एक नहीं मानती। यही कहा करती है कि अपने घर चल। वहीं रोटी खाऊँगी। 

    अब मैंने यह सोचा कि इस झोंपड़ी में से एक टोकरी-भर मिट्टी लेकर उसी का चूल्हा बनाकर रोटी पकाऊँगी। इससे भरोसा है कि वह रोटी खाने लगेगी। महाराज कृपा करके आज्ञा दीजिए तो इस टोकरी में मिट्टी ले आऊँ!'' श्रीमान् ने आज्ञा दे दी।

    विधवा झोंपड़ी के भीतर गई। वहाँ जाते ही उसे पुरानी बातों का स्मरण हुआ और उसकी आँखों से आँसू की धारा बहने लगी। अपने आंतरिक दु:ख को किसी तरह सँभालकर उसने अपनी टोकरी मिट्टी से भर ली और हाथ से उठाकर बाहर ले आई। फिर हाथ जोड़कर श्रीमान् से प्रार्थना करने लगी, ''महाराज, कृपा करके इस टोकरी को जरा हाथ लगाइए जिससे कि मैं उसे अपने सिर पर धर लूँ।'' जमींदार साहब पहले तो बहुत नाराज हुए। पर जब वह बार-बार हाथ जोड़ने लगी और पैरों पर गिरने लगी तो उनके मन में कुछ दया आ गई। 

    किसी नौकर से न कहकर आप ही स्वयं टोकरी उठाने आगे बढ़े। ज्योंही टोकरी को हाथ लगाकर ऊपर उठाने लगे त्योंही देखा कि यह काम उनकी शक्ति के बाहर है। फिर तो उन्होंने अपनी सब ताकत लगाकर टोकरी को उठाना चाहा, पर जिस स्थान पर टोकरी रखी थी, वहाँ से वह एक हाथ भी ऊँची न हुई। वह लज्जित होकर कहने लगे, ''नहीं, यह टोकरी हमसे न उठाई जाएगी।''

    यह सुनकर विधवा ने कहा, ''महाराज, नाराज न हों, आपसे एक टोकरी-भर मिट्टी नहीं उठाई जाती और इस झोंपड़ी में तो हजारों टोकरियाँ मिट्टी पड़़ी है। उसका भार आप जन्म-भर क्योंकर उठा सकेंगे? आप ही इस बात पर विचार कीजिए।"

    जमींदार साहब धन-मद से गर्वित हो अपना कर्तव्य भूल गए थे पर विधवा के उपर्युक्त वचन सुनते ही उनकी आँखें खुल गयीं। कृतकर्म का पश्चाताप कर उन्होंने विधवा से क्षमा माँगी और उसकी झोंपड़ी वापिस दे दी।

अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस विशेष : योग के बहाने भारत की वैश्विक धमक

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"जिस प्रकार विश्व स्तर पर योग को अपनाये जाने लगे हैं, ऐसा कहा जा सकता है कि भारत का मान बढ़ा है। अनेक विकसीत, विकासशील देश अब भारत को कमतर नहीं आंकता। भारतीय लोकतांत्रिय प्राणाली के साथ ही यहां की कला-संस्कृति की अपनी विशिष्टता है। प्रबल सैन्य शक्ति से सुरक्षा व सुदृढ़ अर्थव्यस्था से आत्मनिर्भरता की ओर तेजी से बढ़ते भारत का स्वास्थ्य के क्षेत्र में योग ने वैश्विक धमक बढ़ाया है।"

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अब तो दुनिया ने भी मान लिया है कि योगा से ही होगा। जिस प्रकार आम जन-जीवन में असंतुलित दिनचर्या का समावेश होने के साथ ही रासायनिक खाद से उपजे खाद्य पदार्थों का सेवन हो रहा है, यह कहना मुश्किल हो गया है कि मनुष्य की आयु कितनी होगी? कहा जाता है कि मनुष्य की आयु 100 वर्ष की है लेकिन वर्तमान समय में शतकीय आंकड़े तक बहुत कम ही लोग पहुंच पाते हैं। इस विषय पर एक अध्ययनकर्ता ने दावा किया है कि जिन व्यक्तियों ने 100 वर्ष की आयु बिना किसी गंभीर बीमारी के स्वस्थ जीवन जिये, वें नियमित योग करते थे। उनके जीवन में प्राकृतिक वस्तुओं का अधिक उपयोग होता था। इस आधार पर अब दुनिया ने योग के साथ निरोग शब्द को जोड़ा और कहा जाने लगा ‘योग से होंगे निरोग’।

भारत में 5000 वर्ष पहले से इस विधी द्वारा मनुष्य लंबी आयु तक जीवित रहते थे, खास कर ऋषि परंपरा के लोग। साथ ही वे योग के ज्ञान को जन मानस में भी प्रचारित करते थे। योगाभ्यास की भारतीय पुरातन परंपरा के आसन न केवल शारीरिक व्यायाम है बल्कि यह एक ऐसी क्रिया है जो आत्मा से परमात्मा का मेल कराता है। इसे शरीर और आत्मा के बीच सामंजस्य का अद्भुत विज्ञान भी माना जाता है। योग के इस वैज्ञानिक पक्ष को दुनिया ने स्वीकारा है। योग से निरोग रहने के गुण को वैश्विक पटल पर लाने का श्रेय भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जाता है जिनकी पहल पर पहली बार अंतर्राष्ट्रीय स्तर में 21 जून 2015 को योग दिवस मनाया गया था।

21 जून को ही अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के रूप में मनाने के पीछे कारण बताया गया है कि यह दिन 365 दिनों में सबसे बड़ा दिन है, जो मानव के दीर्घ जीवन काल को दर्शाता है। प्रधानमंत्री द्वारा 27 सितंबर 2014 को संयुक्त राष्ट्र महासभा में संबोधन के दौरान अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाने का आह्वान किया गया था। तदोपरांत संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 3 माह के भीतर 11 दिसंबर 2014 को दुनिया भर में योग दिवस मनाने का ऐलान करते हुये कहा कि हर साल 21 जून को ‘अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस’ के रूप में मनाया जायेगा। तब से प्रतिवर्ष दुनिया भर में भारतीय योग सिद्धांत का अनुशरण हो रहा है।

जिस प्रकार विश्व स्तर पर योग को अपनाये जाने लगे हैं, ऐसा कहा जा सकता है कि भारत का मान बढ़ा है। अनेक विकसीत, विकासशील देश अब भारत को कमतर नहीं आंकता। भारतीय लोकतांत्रिक प्राणाली के साथ ही यहां की कला-संस्कृति की अपनी विशिष्टता है। प्रबल सैन्य शक्ति से सुरक्षा व सुदृढ़ अर्थव्यस्था से आत्मनिर्भरता की ओर तेजी से बढ़ते भारत का स्वास्थ्य के क्षेत्र में योग ने वैश्विक धमक बढ़ाया है। 

योग दिवस पर प्रमुख प्रस्तावक देश होने के कारण भारत की जिम्मेदारी और अधिक होती है, देश भर में योग के अनेक कार्यक्रम आयोजित होता है। एक तरह से कहा जाए तो देश योगमय हो जाता है, योग का वर्ल्ड रिकॉर्ड भी बने हैं। हालांकि एक दिन के आयोजन से ही निरोगी नहीं हुआ जा सकता लेकिन इस तरह के आयोजनों से समाज में योग के प्रति सकारात्मक सोज विकसित होती है। हो भी क्यों न, स्वस्थ और निरोगी काया के लिये योग को अपनाना आज के डिजिटल दौर में और भी जरूरी हो जाता है। जो अब तक योग को नहीं अपनाये है वें 21 जून से संकल्प के साथ नियमित दिनचर्या में शामिल कर दीर्घायु पा सकते हैं।      

- जयंत साहू, रायपुर [98267-53305]


इस सत्र भी नहीं प्रवेशोत्सव, कोरोना के ग्रहण से सूना शाला प्रांगण


छत्तीसगढ़ में 16 जून से शुरू होने वाले शाला प्रवेशोत्सव कार्यक्रमों की कुछ वर्ष पूर्व अलग ही रौनक हुआ करता था। स्कूलों में साफ-सफाई और नये रंगत के साथ नव प्रवेशी बच्चों के स्वागत के लिये सभी अध्यापकगणों के साथ ही स्थानीय जनप्रतिनिधी भी शाला प्रवेशोत्सव में भाग लेते थे। 16 जून के दिन जनप्रतिनिधी में पंच और पार्षद से लेकर मुख्यमंत्री और कलेक्टर आदि भी किसी न किसी स्कूल में बच्चों को तिलक करने पहुंचते थे। टन-टन की घंटी के साथ स्कूल की ओर दौड़ते पुराने बच्चें, अभिभावक की गोद से रोते-रोते उतरकर धीरे से अध्यापक की उंगली पकड़ना, कभी स्कूल तो कभी पालक को देखते नन्हे नव-प्रवेशी विद्यार्थी। राष्ट्रगान और वंदना के बाद भारत माता की जयघोष के बाद प्रधान पाठक का शुभकामना संदेश सत्र के अंत तक अध्यापक और बच्चों को शिक्षा के प्रति प्रेरित करता था। लेकिन इन सब के लिये तरस रहा है शाला प्रांगण, कोरोना के ग्रहण ने बच्चों का बहुत कुछ छिन लिया।  

मार्च और अप्रैल माह में सत्रावसान की तैयारी, परीक्षा के बाद परिणाम और फिर नये सत्र की धमक से शाला प्रांगण कभी गुलजार हुआ करता था, जो अब शांत है। न स्कूल की घंटी और न ही पढ़ाई की फिक्र, ऑनलाइन मोबाइल से पठन-पाठन के साथ अंत में बिना इम्तिहान के ही परिणाम शत-प्रतिशत उत्तीर्ण। यह अजब दिन कोरोना महामारी के कारण पिछले दो वर्षों से देख रहे हैं। जानलेवा बीमारी है कारण, तो किसी को दोष भी नहीं दे सकते। आपके और हमारे मन में उठते सभी प्रश्नों का एक ही हल, कोरोना काल।

कोरोना से लोगों की जाने जा रही है इसे भी झुठलाया नहीं जा सकता, मौत की आकड़े भयानक है। जीवन रहा तो शिक्षा कभी भी ग्रहण की जा सकती है इस सोच के साथ समाज ने नये सत्र की शिक्षा नीति को स्वीकारा है। पिछली सत्र की बात करे तो कोरोना के शुरूआती दौर में छत्तीसगढ़ में पढ़ाई तो लगभग पूर्ण हो चुका था। बच्चे साल भर कक्षा में अध्ययन किये थे लेकिन कोरोना महामारी के कारण परीक्षा लेने की स्थिति नहीं थी और सत्र बर्बाद न हो इसलिये बच्चों को जनरल प्रमोशन से अगली कक्षा में प्रमोट करा दी गई। अगले नये सत्र में स्कूल खुलने की संभावनाओं पर कोरोना ने फिर ग्रहण लगा दिया। इस बीच शासन ने ऑनलाइन का रास्ता निकाला, जो अब काफी चिंता जनक लग रहा है। भविष्य में इसका दुष्परिणाम भी आयेगा। ऑनलाइन कक्षा में पढ़ाई की गुणवत्ता, बच्चों में विषयवस्तु की समझ, शारीरिक और मानसिक विकास ऑफलाइन के कक्षा अध्ययन की तुलना में महज खानापूर्ती ही साबित हो रहा है। बच्चों और अध्यापक के साथ अभिभावक भी मोबाइल लेकर चिपके रहते हैं। आजकल-आजकल करते वो सत्र भी बिना परीक्षा के ही जनरल प्रमोशन में निकल गया।

कोरोनाकाल में जो बच्चा पहली कक्षा में था आज उनका नाम तीसरी में चल रहा है। कुछ बच्चे और अभिभावक को तो शायद यह भी पता नहीं होगा की उनके बच्चे कानाम किस कक्षा में है। पहली से तीसरी में पहुंच चुके बच्चों को कितना पाठ का ज्ञान हुआ इस पर कुछ कहें तो जवाब में कोरोना आयेगा, ऐसे में चुपचाप बच्चों की डिग्री बढ़ाते रहे इसी में सबका भला है। संकट के बीच निजी और सरकारी शिक्षण संस्थान की बात करें तो एक तरफ सरकारी स्कूल का अध्यापक शान से पूरी तनख्वाह ले रहा है, वहीं दूसरी ओर निजी स्कूलों में मारा-मारी के बीच अध्यापकों को तनख्वाह के लाले पड़ रहे है। 

कक्षाएं छोटी है तो समस्या भी छोटी है। यहां तो बोर्ड कक्षा और कॉलेज का और भी बुरा हाल है। जिस पर युवाओं का भविष्य टिका है वही डाँवाडोल हो रहा है। खानापूर्ती कहे या मजबूरी मेडिकल और इंजीनियरिंग की पढ़ाई भी ऑनलाइन ही लग पायी। जिनका स्वयं का भविष्य ऑनलाइन में बना हो वे सब कुछ सामान्य होने के बाद किस प्रकार आम लोगों की सेवा में ऑफलाइन काम कर पायेगा यह भी चिन्ता का विषय होगा!  
- जयंत साहू, रायपुर [98267-53304]


अखबार का कतरन-

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शराबी पति से हारी मां की ममता, 5 बेटियों सहित दी जान

शराबी पति से हारी मां की ममता, 5 बेटियों सहित दी जान

"....भला इस तरह से कोई झगड़े में जान देते है क्या वो भी बड़ी उम्र की बेटियों के साथ। बात पति शराबी था तक खत्म नहीं होती, आखिर वो भी तो एक मां थी, क्यों अपने साथ पांच बेटी को मार गई। परिवार, रिश्तेदार और समाज को उमा ने क्यों अपनी दुख से वाकिफ नहीं कराया? तकलीफ मौत से भयानक तो नहीं था।"

नींद से जागती महासमुंद की अल सुबह लोगों की जिंदगी शुरू हो रही थी तभी नित्यकर्म और चूल्हे-चौके की तैयारी के बीच एक अमंगल खबर ने सबका दिल दहला दिए। इमलीभांठा नहर पुलिया के नीचे से गुजरती रेल की पटरियों पर छ: लाशें बिखरी पड़ी थी। दूर तक पड़ी छत-विछत लाशें, सूख चुके खून की छींटे से सने पटरी और उम्र की तस्दीक कराता चप्पल पूरी कहानी बयां करा रहा था कि जानबूझ कर दी होगी जान। 

दुखद खबर की आग ने आसपास के घरों में सुलगे चूल्हे को शांत कर दिया। कौन, क्या, कैसे और क्यों के सवालों का धुआ उठने लगा। तभी खबर मिली की ये तो बेमचा महासमुंद के रहने वाले केजऊ राम साहू की पत्नी और उनके बच्चे है। पुलिस पहुंचकर लाशों को उठवाने लगी, छ: लाश और उनके एक-एक समानों को अपने कब्जे में लेकर कारण की तह तक पहुंचने की पुलिस कोशिश कर रही थी। 

दृश्य और भी भयानक हो गया, जब पता चला की लाश में तबदील हो चुकी छ: जिंदगी घर से रात को ही निकल गई थी। कहते है की केजऊ राम शराब का आदी था और इस वजह से अकसर उनके और पत्नी के बीच लड़ाई होती रहती थी, उस दिन भी हुआ था। पत्नी उमा साहू उम्र लगभग 48 वर्ष के साथ पांच बेटी अन्नपूर्णा, यशोदा, भूमिका, कुमकुम और तुलसी की उम्र 18 से 10 वर्ष तक की थी। ....भला इस तरह से कोई झगड़े में जान देते है क्या वो भी बड़ी उम्र की बेटियों के साथ। बात पति शराबी था तक खत्म नहीं होती, आखिर वो भी तो एक मां थी, क्यों अपने साथ पांच बेटी को मार गई। परिवार, रिश्तेदार और समाज को उमा ने क्यों अपनी दुख से वाकिफ नहीं कराया? तकलीफ मौत से भयानक तो नहीं था। 

लोग कह रहे हैं शराब के कारण परिवार तबाह हो गया, प्रशासन घटना के कारण की जांच में जुटी है। परिस्थिति चाहे जो हो लेकिन पांच बेटियों के साथ मां का यूं मर जाना, पति के शराब का आदी होने और झगड़ा नाकाफी है। शासन-प्रशासन की जागरूकता और नीति पर सवाल उठाना छोटे स्तर से शुरू करे तो गांव में पंच-सरपंच होते हैं। केजऊ बेमचा में रहता था, जमीन है, और खेती करता था तो निश्चित ही संयुक्त परिवार में उठ बैठ था। काम करने के दौरान महासमुंद में निवास करते भी समाज के लोगों से भी परिजनों का तालमेल रहा होगा। मां और साक्षर बेटियां प्रतिरोध करने के बजाए मर गई, पिता और पति के भरोसी ही तो नहीं थी जिंदगी। पुलिस, समाज और समाजसेवी संस्थाएं, महिला जागरूकता सेन, बाल संरक्षण आयोग, नशा मुक्ति अभियान, नारी सशक्तिकरण, बेटी बचाव - बेटी पढ़ाव जैसे तमाम योजनाओं को धता बता कर मौत को ही समाधान समझकर अपने ही परिवार को निगल गई? एक बार भी नहीं सोची की इस दुनिया में कई ऐसी मां है जो बिना पति के अकेली ही अपने बच्चों को पाल रही हंै। यदि बड़ी हो रही बेटियों की ब्याह की चिंता थी तो उसका भी हल है समाज में, बात सामने आए तो सही। घूट-घूट कर जीना और परेशान होकर जिंदगी खत्म कर लेना खुद की कमजोरी है।

केजऊ के शराब की लत से उनकी पत्नी और परिवार परेशान था और बार-बार विवाद होता था। इस बात की जानकारी यदि परिवार में जिस किसी को भी थी, वह भी कही न कही उन छ: मौतों का जिम्मेदार है। पुलिस से पूर्व में शिकायत हुई या समाज के अन्य लोगों को उमा ने आप बीती बताई होतो वें भी मौत के दोषी है। साफ लब्जो में कहा जाए तो केजऊ राम साहू अपने ही परिवार के छ: सदस्यों की मौत का बहुत बड़ा अपराधी है, कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए। साथ ही उमा और उनकी बेटी तक नारी संबल की थोथी कहानी न पहुंचा पाने वाले शासन-प्रशासन को भी गंभीरता से जमीनी स्तर पर काम करने की आवश्यकता है।    
- जयंत साहू, रायपुर [98267-53304]
जयंत साहू, रायपुर [98267-53304]



आहत के बाद बड़ी राहत : 21 जून से फ्री वैक्सीन और दिवाली तक गरीबों को मुफ्त राशन


  • मोदी जी ने देश की जनता को 18 वर्ष से अधिक आयु के सभी को फ्री में टीका लगाने का निर्णय लेकर जनता के साथ राज्य सरकारों को भी राहत दी है।
  • प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत मई और जून में मुफ्त राशन दिया गया था। अब इस योजना के तहत दिवाली यानी नवंबर माह तक चावल देने का निर्णय लिया गया है।
  • स्थानीय स्तर पर कुछ ऐसी व्यवस्था बनाई जानी चाहिए कि जिन्हें राशन की वाकई जरूरत है और बेरोजगारी के कारण खरीद नहीं पा रहे है उन्हें भी मुफ्त में या कम दाम में अनाज मिल सके। 

केन्द्र सरकार ने कोरोना काल के सवा साल बाद दो बड़े फैसले लेकर जनता को राहत देने का काम किया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी के हर उद्बोधन को देश की जनता धैर्यपूर्वक सुनती है, और वो सुनाते ही जाते हैं। ओज और नई उर्जा देने वाले मोदी जी कभी-कभी तो बहुत कुछ बोलकर भी कुछ नहीं वाले फार्मूले पर टीवी-रेडियो में संबोधनों का प्रसारण कराते रहे हैं। किन्तु इस बार उन्होंने देश हित में दो बड़े फैसले लेकर जनता को बता दिया कि वे फैसले लेने वाले मोदी जी हैं।

कोरोना संकट के बीच देश में वैक्सीनेशन एक बहुत बड़ा मुद्दा बना, खासकर 18 वर्ष से अधिक आयु वर्ग के लोगों को लगने वाले टीका आने के बाद। टीका बनाने वाली कंपनी ने केन्द्र के लिए अलग दाम और राज्य सरकार व निजी अस्पतालों को अलग-अलग दामों पर टीका उपलब्ध कराने का फैसला किया, शायद केन्द्र सरकार की रजामंदी से ही। राज्य सरकारें इस फैसले का विरोध करती रही, सुप्रिम कोर्ट ने भी हस्तक्षेप किया कि यह नीति गलत है। कारण पर्याप्त टीका का रहा हो या कुछ और लेकिन आज मोदी जी ने देश की जनता को 18 वर्ष से अधिक आयु के सभी को फ्री में टीका लगाने का निर्णय लेकर जनता के साथ राज्य सरकारों को भी राहत दी है। देश में 18 वर्ष से अधिक आयु वर्ग के सभी को केन्द्र सरकार द्वारा 21 जून से टीकाकरण की नई नीति के साथ टीके लगाये जाएंगे। 

साथ ही कोरोना के कारण घरों में लॉक गरीब वर्ग के लोगों को नि:शुल्क चावल देने के फैसले को दिवाली तक बढ़ाया गया है। ज्ञातव्य है कि प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत मई और जून में मुफ्त राशन दिया गया था। अब इस योजना के तहत दिवाली यानी नवंबर माह तक चावल देने का निर्णय लिया गया है। निश्चित ही इन फैसलों ने जनता को बड़ी राहत दी है लेकिन कोरोना के कारण जो देश में महंगाई, बेरोजगारी की समस्या उत्पन्न हुई इससे उबर पाना भी बहुत बड़ी चुनौती है। गरीब जनता को राशन देने में भी बड़ा पेच है, इस योजना से उन्ही लोगों को लाभ होगा जो राशन कार्डधारी है, पहले से ही गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। लेकिन जो कोरोना काल में सवा साल से नौकरी गवां कर भूखमरी की कगार पर खड़े है ऐसे कामगारों का क्या होगा? जो वर्षों से गरीबी की मार झेलते आ रहे है उन्हे शासन यदा-कदा राहत पहुंचाने का कार्य कर रही है यदि इस योजना में ऐसे कामगार जो प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना का लाभार्थी नहीं है के लिये भी सरकार को कुछ सोचना होगा। स्थानीय स्तर पर कुछ ऐसी व्यवस्था बनाई जानी चाहिए कि जिन्हें राशन की वाकई जरूरत है और बेरोजगारी के कारण खरीद नहीं पा रहे है उन्हें भी मुफ्त में या कम दाम में अनाज मिल सके। 
- जयंत साहू, रायपुर [9826753304] 












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बीहड़ से एवरेस्ट की चोटी पर 'बेटी' : नैना सिंह धाकड़

 
बीहड़ से एवरेस्ट की चोटी पर बेटी : नैना सिंह धाकड़
Naina Singh Dhakad

पर्वतारोही नैना सिंह धाकड़ ने दुनियां की सबसे ऊंची चोटी एवरेस्ट पर फतह हासिल कर पूरी दुनियां में छत्तीसगढ़ का गौरव बढ़ाया है। नैना ने अपने बुलंद हौसलों के साथ एवरेस्ट की चोटी (8885.86 मीटर) और लोत्से की चोटी (8516 मीटर) पर फतह करने वाली छत्तीसगढ़ की प्रथम महिला पर्वतारोही होने का गौरव भी पाया है। बस्तर की बेटी नैना सिंह की बीहड़ से उठकर माउंट एवरेस्ट की कठिन चड़ाई में जीत हासिल करना, अंचल की बेटियों के लिए बहुत खास है। बेटियां किसी से कम नहीं है लेकिन अवसर मिलेगा तभी तो बेटी आगे बढ़ेगी, इस बात को बस्तर जैसा आदिवासी अंचल की बेटियां बखूबी समझती हैं। मूलभूत सुविधाओं के आभाव में भी जब नैना सिंह धाकड़ जैसी बेटी बड़ी उपलब्धि हासिल कर लेती हैं तो उन जैसे लाखों और बेटियों को नई दिशा मिलती है।  

छत्तीसगढ़ प्रदेश के वनांचल जिला जगदलपुर से करीब 10 किलोमीटर दूर गांव एक्टागुड़ा की रहने वाली हैं महिला पर्वतारोही नैना सिंह धाकड़। कहते हैं कि पिता का साया बचपन से ही उठ गया था और मां ने ही परिवार को पाला, बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाई। नैना ने जगदलपुर से ही हायर सेकंड्री और स्नातक की शिक्षा ग्रहण करके 2009 से ही पर्वतारोहण को अपना कैरियर चुना। 10 वर्ष की कठिन परिश्रम का प्रतिफल उनको 1 जून 2021 को मिला जब उन्होंने एवरेस्ट पर तिरंगा फहरा दिया। शान से लहराते तिरंगे के साथ नैना ले बेटी बचाओ बेटी पढ़ाव का संदेश भी दिया।

भारत के साथ ही दुनियां की नजरों में छत्तीसगढ़ का बस्तर अंचल कल तक अधनंगे और कंदमूल खाकर जंगलों में रहने वाले लोगों का था, कुछ तो वनों से आच्छादित हसीन वादियों को नक्सलवाद की धरती कहने से भी परहेज नहीं करते थे। यह सोच अब समय के साथ, सरकार की विकासकारी नीतियों की वजह से बदल रहा है। ऐसे में नैना सिंह की बड़ी उपलब्धि ने देश-दुनियां को बस्तर के विषय में अपना नजरियां बदलने को और मजबूर किया है। लैंगिक समानता में छत्तीसगढ़ प्रदेश को देश में प्रथम स्थान मिला है, यह साबित करता है कि हम स्त्री और पुरूष भेद से कही ज्यादा स्वास्थ्य शिक्षा और रोजगार की ओर आगे बढ़ रहे हैं। सुविधा भले ही कम है लेकिन हौसलों की कोई कमी नहीं, हर क्षेत्र में बेहतर है छत्तीसगढ़ की बेटियां।
- जयंत साहू, रायपुर [98267-53304]
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न दवा न उपचार, सलाह के दम पर जीतेंगे कोरोना की लड़ाई



कोरोना के दौर में उपजे संकट के बीच, लोग यह भी कह रहे हैं कि इसने आम आदमी के दिमाग को भी भारी नुकसान पहुंचाया है, और इन खराब दिमाग वालों में ऐसे व्यक्तियों की अधिकता है जो दूसरों की भविष्य को लेकर काफी चिंता जताते हैं। संकट की घड़ी में दिमाग खराब कर देने वाले बेमतलब के सलाह को ही समाधान समझकर वें दूसरों को थोप रहे हैं। इस बीच कोरोना से जूझते निम्न और मध्यमवर्गीय लोग बेफजूल के बकबक करने वालों का मुंह बंद नहीं करा सकते क्योंकि ये लोग सत्ता और सियासत गर्द है।

चीन से निकलकर कोरोना वायरस ने दुनिया भर में अपना ठिकाना बनाया और करोड़ों को संक्रमित कर लाखों की जाने ले ली। इस बीच वहीं देश कोरोना से लड़ सका जिनके पास जरूरी संसाधनों के साथ ईमानदारी से काम करने का जस्बा था। लेकिन कुछ देश ऐसे भी निकले जो सलाह के अलावा कुछ और न दे सकी। सबसे ज्यादा सलाह देने वाले देशों में भारत अब भी प्रथम पायदान पर दिख रहा है। महामारी के दूसरे साल में भी आम जनता तक सिर्फ सलाह ही पहुंच रहा है, एक प्रकार से कहा जाए तो कोरोना से लड़ने के लिए भारत के पास सबसे बड़ा हथियार है सलाह। न दवा न उपचार, सलाह के दम पर जीतेंगे कोरोना की लड़ाई। 

यहां एक व्यक्ति ही सलाह नहीं दे रहा है बल्कि सलाहकारों की प्रशिक्षित सेना है। केन्द्र सरकार का सलाह, राज्य सरकार का सलाह, और फिर जिलाधीशों का सलाह। सोचिए इतनी सलाहों का बहुत बड़ा डोस जनता को मिलता है तो कोरोना वायरस का क्या हाल होता होगा। ये पैतरे दूसरे देशों को भी अपनानी चाहिए खास कर ऐसे देश जो भारत को ऑक्सीजन, दवाई, वेंटिलेटर सहित अनेक स्वास्थ्य सुविधाओं के साथ टीका भी भेज रहे हैं। बदले में हमारा देश भी उनको सलाह देना चाहते है लेकिन उनको स्वीकार नहीं इसलिए टीका, दवाई और स्वास्थ्य संसाधन देकर सम्प्रभुता जतानी होती है।

बस कब किसे और कैसे देनी होती है इसमें थोड़ी चूक हो कई शायद। महामारी रोकने के लिये भारत में 24 मार्च 2020 को 21 दिन का लॉकडाउन लगा। इसे चरणबद्ध आगे बढ़ाते हुए सरकार ने दूसरे, तीसरे, चौथे, पांचवें करते अब 2021 का जून आ गया है। अब स्थिति क्या है देश की ये दुनिया के साथ हम भी देख रहे हैं। लॉकडाउन में कोरोना से कही ज्यादा अन्य त्रासदी ने लोगों की जाने ली। अर्थव्यवस्था चर्मराने लगी तो चरणबद्ध तरीकों से खोला गया बाजार। फिर देश के लिए जो सबसे जरूरी नियम कानून थे उसे लागू कराया गया। अनेक राज्यों में चुनाव भी कराये गये। शानदार तरीके से कई राज्यों में क्रिकेट का अंतर्राष्ट्रीय मैच भी संपन्न हुआ। 

देश का भविष्य बर्बाद न हो इस वजह से शिक्षा व्यवस्था को हासिये पर रखते हुए सलाहकारों ने थोड़ी कंजूसी जरूर कर दी। बिना किसी इम्तिहान के अगली कक्षा में अच्छे नंबरों के साथ उन्मोचित किया गया। देश के कर्णधारों को शानदार दूसरे वर्ष भी पास होने की बड़ी उपलब्धी प्राप्त हुई। प्ले स्कूल से लेकर व्यवसायिक पाठ्यक्रम और उच्च शिक्षा में भी गहन चिंतन के बाद सलाहकारों की रणनीति इस नतीजे पर पहुंचती है कि हम बच्चों की जान को जोखिम में नहीं डाल सकते है। डिग्री से भविष्य सवंरता है इसलिये दे दी जाए डिग्रियां। शायद ये सलाहकार एक और चूक कर गये चुनाव के दौरान। अगर वहां भी बिना किसी चुनावी रैली, जनसभा और मतदान के यूं ही उम्मीदवारों को जीत दे देते तो उन राज्यों में फजीहत नहीं होती। अब तक जिस अंदाज से सलाहकारों ने देश को चलाया है इतिहास वर्षों तक याद रखेगा। हो न हो कल तक यदि सब कुछ ठीक रहा तो सलाह मात्र से महामारी नियंत्रण के फार्मूले को प्रामाणिकता मिलेगी और यह एक नई चिकित्सा पद्धति के रूप में दुनिया भर में पहचान कायम करेगा।
- जयंत साहू, रायपुर मो. 98267-53304



चिकित्सा पद्धति पर सवाल कम, बवाल ज्यादा !

चिकित्सा पद्धति पर सवाल कम, बवाल ज्यादा !
भारत में उपचार करने के पारंपरिक तरीकों में आयुर्वेद को ही मुख्य माना जाता रहा है। कई अनेक छोटी बीमारियों में तो घरेलू नुस्खों को भी काफी कारगर साबित होते देखा गया है। लेकिन जब से हमारे देश में एलोपैथी यानी अंग्रेजी दवाईयां आयी है उपचार का तरीका ही बदल गया, हर छोटी-छोटी बीमारी के लिए बड़ी दवाई की खुराक दी जाने लगी है। दवा अपना असर भी तुरंत ही दिखाता है जैसे ही मुंह में जाकर घुली व्याधी कटना शुरू हो जाता है। एलोपैथी में खाने की दवा के साथ ही नाड़ी अथवा पेशियों में इंजेक्शन लगाकर भी उपचार किया जाता है। 

सामान्य रोगों से लेकर गंभीर और जटिल बीमारियों का ऑपरेशन के द्वारा मरीज को स्वस्थ करने की जिद एलोपैथी में भरपूर देखी जाती है। शायद यही एक बड़ी वजह है कि लोग इसमें ज्यादा भरोसा करने लगे और आयुर्वेद की पुरानी परंपरा को पीछे ढकेलने लगे। लेकिन सुविधा जनक होने के साथ ही यह सबसे महंगी पद्धति भी है। ऐसे कई मौकों पर गरीब व्यक्तियों को रूपयों के आभाव में दम तोड़ते देखा गया है। सीधी बात कहें तो पैसों से ही सुविधा जनक उपचार और जान की सलामती हो पाती है वर्ना व्यवसायीकरण के दौर में एलोपैथी के चिकित्सक मानव देह को ग्राहक से ज्याद कुछ नहीं समझते।  

वहीं भारतीय चिकित्सा में आयुर्वेद प्राचीन समय से ही लोगों को जीवन देता आया है। उपचार की दवा भी आसपास के ही जड़ी-बूटियों से तैयार की जाती है। जिसका किसी प्रकार का दुष्परिणाम नहीं होता है। प्राकृतिक वनस्पतियां, कंदमूल, फल और सब्जी इत्यादि केवल पेट भरने का ही साधन नहीं अपितु उसमें ही शरीर को स्वस्थ रखने का सारा गुण भरा होता है। वैद्यजी और हमारे घर के बड़े बुजुर्ग, दादी-नानी भी इन्ही आयुर्वेद के तरीकों पर भरोसा करती हैं। इसके कई उदाहरण हमने ग्रामीण वनांचलों में देखे हैं जहां बिना किसी दवा के लोग लम्बी आयु तक जिवित रहते हैं। उनकी दिनचर्या में सात्विक चीजे होती है, पंचतत्व उनके जीवन का अभिन्न अंग होता है। वें अपनी शरीर में होने वाली बाह्य और आंतरिक व्याधियों का कारण जानकर स्वयं ही अपना उपचार करने में सक्षम होते हैं। ऐसे आयुर्वेद के जानकार लोग दूसरों को भी बिना किसी शुल्क के सलाह के साथ दवा भी देते हंै। किसी को स्वस्थ जीवन देना वो मानव सेवा समझते है और आजीविका के लिये जो राशि लेते है वह आम आदमी के पहुंच के भीतर होता है।   

आयुर्वेद और एलोपैथी के अलावा और भी कई उपचार के तरीके है। लेकिन वर्तमान समय में सवाल और उससे कही ज्यादा बवाल इन दोनों के ही बीच है। एक ओर आसानी से उपलब्ध होने वाली सस्ती विधी आयुर्वेद है तो वही दूसरी ओर हर मर्ज की दवा लेकर एलोपैथी का बहुत बड़ा बाजार खड़ा है। अब सवाल इन दोनों के बीच ही, मैं बड़ा..., मैं बड़ा के द्वंद का है। आम आदमी की तकलीफ को देखे तो दोनों की ही अपनी महत्ता है, जहां से भी जीवन बचाया जा सके, बचानी चाहिए। चिकित्सा को व्यावसाय न बनाकर जो विधी जिस रोग के लिए कारगर साबित हो अपनाये जाये तो बेहतर होगा। वैसे भी समय के साथ उपचार के तरीके और पुरानी पद्धति पर लोगों का पुन: भरोसा जताना ये दिखाता है कि दादी-नानी के घरेलू नुस्खे ही अब घर-घर का वैद्य बनेगा। शहरीकरण में असंतुलित जीवन जीने वाले लोग भी अब अपनी दिनचर्या में योग और प्राकृति चीजों का समावेश करते हुये स्वस्थ्य रहने का गुण सीख रहे हैं।

बीमार होने के बाद दवा और उपचार में फंसने से बेहतर खुद को निरोगी रखने का मंत्र अब सभी ने जान लिया है, इस बीच तकलीफ उन लोगों को होने लगी है जो स्वास्थ्य के नाम पर अपना दुकान चला रहे हैं। ऐसे लोग ही आपस में भिड़े है और अपनी-अपनी उपचार पद्धति का नुमाइश करते दिख रहे हैं। वर्तमान समय में देश में जो घमासान मचा है यह भी एक तरह से स्वास्थ्य का व्यापार करने वालों के बीच का नफा-नुकसान और अहम की लड़ाई है जिसे आम आदमी को समझना होगा।
- जयंत साहू, रायपुर मो. 98267-53304
जयंत साहू, रायपुर मो. 98267-53304

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