"....भला इस तरह से कोई झगड़े में जान देते है क्या वो भी बड़ी उम्र की बेटियों के साथ। बात पति शराबी था तक खत्म नहीं होती, आखिर वो भी तो एक मां थी, क्यों अपने साथ पांच बेटी को मार गई। परिवार, रिश्तेदार और समाज को उमा ने क्यों अपनी दुख से वाकिफ नहीं कराया? तकलीफ मौत से भयानक तो नहीं था।"
नींद से जागती महासमुंद की अल सुबह लोगों की जिंदगी शुरू हो रही थी तभी नित्यकर्म और चूल्हे-चौके की तैयारी के बीच एक अमंगल खबर ने सबका दिल दहला दिए। इमलीभांठा नहर पुलिया के नीचे से गुजरती रेल की पटरियों पर छ: लाशें बिखरी पड़ी थी। दूर तक पड़ी छत-विछत लाशें, सूख चुके खून की छींटे से सने पटरी और उम्र की तस्दीक कराता चप्पल पूरी कहानी बयां करा रहा था कि जानबूझ कर दी होगी जान।
दुखद खबर की आग ने आसपास के घरों में सुलगे चूल्हे को शांत कर दिया। कौन, क्या, कैसे और क्यों के सवालों का धुआ उठने लगा। तभी खबर मिली की ये तो बेमचा महासमुंद के रहने वाले केजऊ राम साहू की पत्नी और उनके बच्चे है। पुलिस पहुंचकर लाशों को उठवाने लगी, छ: लाश और उनके एक-एक समानों को अपने कब्जे में लेकर कारण की तह तक पहुंचने की पुलिस कोशिश कर रही थी।
दृश्य और भी भयानक हो गया, जब पता चला की लाश में तबदील हो चुकी छ: जिंदगी घर से रात को ही निकल गई थी। कहते है की केजऊ राम शराब का आदी था और इस वजह से अकसर उनके और पत्नी के बीच लड़ाई होती रहती थी, उस दिन भी हुआ था। पत्नी उमा साहू उम्र लगभग 48 वर्ष के साथ पांच बेटी अन्नपूर्णा, यशोदा, भूमिका, कुमकुम और तुलसी की उम्र 18 से 10 वर्ष तक की थी। ....भला इस तरह से कोई झगड़े में जान देते है क्या वो भी बड़ी उम्र की बेटियों के साथ। बात पति शराबी था तक खत्म नहीं होती, आखिर वो भी तो एक मां थी, क्यों अपने साथ पांच बेटी को मार गई। परिवार, रिश्तेदार और समाज को उमा ने क्यों अपनी दुख से वाकिफ नहीं कराया? तकलीफ मौत से भयानक तो नहीं था।
लोग कह रहे हैं शराब के कारण परिवार तबाह हो गया, प्रशासन घटना के कारण की जांच में जुटी है। परिस्थिति चाहे जो हो लेकिन पांच बेटियों के साथ मां का यूं मर जाना, पति के शराब का आदी होने और झगड़ा नाकाफी है। शासन-प्रशासन की जागरूकता और नीति पर सवाल उठाना छोटे स्तर से शुरू करे तो गांव में पंच-सरपंच होते हैं। केजऊ बेमचा में रहता था, जमीन है, और खेती करता था तो निश्चित ही संयुक्त परिवार में उठ बैठ था। काम करने के दौरान महासमुंद में निवास करते भी समाज के लोगों से भी परिजनों का तालमेल रहा होगा। मां और साक्षर बेटियां प्रतिरोध करने के बजाए मर गई, पिता और पति के भरोसी ही तो नहीं थी जिंदगी। पुलिस, समाज और समाजसेवी संस्थाएं, महिला जागरूकता सेन, बाल संरक्षण आयोग, नशा मुक्ति अभियान, नारी सशक्तिकरण, बेटी बचाव - बेटी पढ़ाव जैसे तमाम योजनाओं को धता बता कर मौत को ही समाधान समझकर अपने ही परिवार को निगल गई? एक बार भी नहीं सोची की इस दुनिया में कई ऐसी मां है जो बिना पति के अकेली ही अपने बच्चों को पाल रही हंै। यदि बड़ी हो रही बेटियों की ब्याह की चिंता थी तो उसका भी हल है समाज में, बात सामने आए तो सही। घूट-घूट कर जीना और परेशान होकर जिंदगी खत्म कर लेना खुद की कमजोरी है।
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