स्मृति चर्चा... दाऊ रामचंद्र देशमुख

सांस्कृतिक जागरण का शंखनाद है दाऊ जी का 'चंदैनी गोंदा’: सुशील भोले

दाऊ रामचंद्र देशमुख जी के हाथों मयारू माटी का विमोचन



सुशील भोले साहित्यकार
छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति और छत्तीसगढ़ी अस्मिता पर बेबाकी से कलम चलाते हुए वर्तमान समय में हुई छत्तीसगढ़ी कला, संस्कृति और साहित्य लेखन को सिरे से खारिज कर कोई व्यक्ति यह कह दे कि हमारी संस्कृति को गलत तरीके से लिखा गया है, इसका पुनर्लेखन होना चाहिए तो समझ लेना वही शख्स वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुशील भोले जी हैं। वैसे तो कई साहित्यकारों ने छत्तीसगढ़ को कागजों पर उतारा है किन्तु जिस दृष्टि से भोले जी ने छत्तीसगढ़ की संस्कृति को देखा और लिखा वह अन्य किसी के कलम में नजर नहीं आता है। भोले जी माटी के जुड़े हुए व्यक्ति हैं और साहित्य सृजन भी छत्तीसगढ़ की माटी के लिये करते है। लेखन के साथ-साथ 1987 से 'मयारू माटी’ नामक छत्तीसगढ़ी मासिक पत्रिका का संपादन करते हुये कई नये कलमकारों को अवसर दिये हैं, तथा अनेक पत्र-पत्रिकाओं में सेवा देने के बाद अब छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति के प्रचार-प्रसार में लगे श्री सुशील भोले जी का छत्तीसगढ़ के माटी पुत्रों से काफी नजदीकियां रही हैं । छत्तीसगढ़ी लोक कलामंच के सर्जक दाऊ रामचंद्र देशमुख जी से भी उनका गहरा नाता रहा है। छत्तीसगढ़ी साहित्यकार और पत्रकार के नाते दाऊ जी से अक्सर छत्तीसगढ़ की कला, संस्कृति और साहित्य पर लंबी चर्चाएं होती थीं। आज छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ साहित्यकार सुशील भोले जी दाऊ रामचंद्र देशमुख जी से जुड़ी कुछ स्मृतियां हमारे साथ साझा कर रहे हैं - 
0 दाऊ रामचंद्र देशमुख जी से आपका परिचय कब, कैसे और कहां हुआ?
00 साहित्य और पत्रकारिता से जुड़े होने के कारण मीडिया के माध्यम से तो जानते थे किन्तु प्रत्यक्ष मुलाकात मयारू माटी पत्रिका प्रकाशन के दौरान 1987 में हुई। बात उन दिनों की है जब मैं छत्तीसगढ़ी भाषा में मासिक पत्रिका की नींव रख रहा था और प्रथम अंक के विमोचन के लिये मुझे ऐसे व्यक्ति की तलाश थी जिनका छत्तीसगढ़ी भाषा, संस्कृति और साहित्य में उल्लेखनीय योगदान हो। तभी वरिष्ठ साहित्यकार श्री टिकेन्द्रनाथ टिकरिहा जी ने सुझाव दिए कि दाऊ रामचंद्र देशमुख जी के हाथों विमोचन कराया जाए। फिर मैं टिकेन्द्रनाथ टिकरिहा जी के साथ दाऊ जी के गांव बघेरा गया। वहां उनसे मिलकर मयारू माटी के बारे में बताया कि हम लोक छत्तीसगढ़ी भाषा में एक पत्रिका शुरू कर रहे हैं और आपके हाथों से ही विमोचन कराना चाहते हैं। दाऊ जी छत्तीसगढ़ी पत्रिका का नाम सुनकर खुश हो गये और स्वीकृति देते हुए मुझसे पूछने लगे कि और कौन-कौन आ रहे है। मैंने कहा आप हैं और दाऊ महासिंग चंद्राकर जी रहेंगे। दाऊ जी ने एक सुझाव दिया कि कार्यक्रम की अध्यक्षता नवभारत अखबार के स्थानीय संपादक कुमार साहू जी से करा लो, मेरा नाम बता कर मिल लेना मना नहीं करेंगे। वहां से लौटने के बाद मैंने नवभारत के तत्कालीन संपादक कुमार साहू जी से मिला और सहर्ष उनकी भी सहमती मिल गई। दाऊ रामचंद्र देशमुख, दाऊ महासिंग चंद्राकर, हरि ठाकुर, टिकेन्द्रनाथ टिकरिहा, सुशील यदु और पंचराम सोनी के साथ और भी कई वरिष्ठ साहित्यकारों की उपस्थिति में 9 दिसंबर 1987  को 'मयारू माटी’ का विमोचन हुआ।

0 दाऊ जी के व्यक्तित्व का कौन-सा पहलू आपको अधिक प्रभावित करता है? 
00 दाऊ जी के छत्तीसगढ़ी लोक कला के प्रति लगाव और समर्पण से मैं काफी प्रभावित था। दाऊ जी कला मर्मज्ञ तो थे, साथ ही उनके भीतर एक बहुत अच्छा लेखक और चिंतक भी छुपा हुआ था। उनका एक विशेष लेख मयारू माटी में प्रकाशित भी हुआ, जिसमें उन्होंने चंदैनी गोंदा के विषय में अपना अनुभव लिखा था कि किस प्रकार वे कला के क्षेत्र में आये और कैसे चंदैनी गोंदा का सृजन हुआ। 
0 दाऊ जी की किन-किन प्रस्तुतियों को अपने देखा है, कहां और कब?
00 चंदैनी गोंदा का नाम तो शुरूआती दौर से ही बहुत सुना था किन्तु मंचीय प्रस्तुति देखने का अवसर 1987 में ही मिला। जब दाऊ जी से मेरी पहली मुलाकात हुई तो उन्होने बताया कि दुर्ग के पास एक गांव में चंदैनी गोंदा का कार्यक्रम है। मेरी दिली इच्छा भी थी कार्यक्रम देखने की और दाऊ जी ने आमंत्रित भी कर दिए तो मैं और मेरे एक साथी साहित्यकार चंद्रशेखर चकोर हम दोनों रायपुर से दुर्ग कार्यक्रम देखने गये थे। 
0 दाऊ जी के अवदान को आप किस तरह से रेखांकित करेंगे? 
00 दाऊ जी ने छत्तीसगढ़ी कला, संस्कृति और साहित्य के लिये बहुत बड़ा काम किया है। कार्यक्रम की शुरूआत में वें हमेशा छत्तीसगढ़ी के साहित्यकारों का सम्मान करते थे। दाऊ जी कला के प्रति समर्पित तो थे साथ ही साहित्य को भी प्रोत्साहन देते थे। उन्होंने सांस्कृतिक मंच के लिये अद्भुत काम किया है, इसमें कोई दो मत नहीं है कि दाऊ जी से ही प्रेरणा लेकर कई अन्य सांस्कृतिक मंचों का उदय हुआ।  

0 1971 में चंदैनी गोंदा की प्रस्तुति से पहले समाचार पत्रों की स्थिति छत्तीसगढ़ के बारे में कैसी थी?
00 प्रकाशन का माध्यम कम था गिने चुने ही अखबार प्रकाशित होते थे वह भी हिन्दी में। 1971 में चंदैनी गोंदा की प्रस्तुति के बाद छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी लोक कला का ऐसा माहौल बना कि दाऊ जी के कार्यक्रमों की प्रशंसा छत्तीसगढ़ अंचल से देश की राजधानी नई दिल्ली तक के अखबारों में भी प्रमुखता से प्रकाशित होने लगी। जब भी मैं बघेरा जाता था तो दाऊ जी उन अखबारों के कतरन मुझे दिखाया करते थे। 
0 छत्तीसगढ़ के जनमानस में ‘चंदैनी गोंदा ’ का क्या प्रभाव पड़ा?
00 चंदैनी गोंदा का लोक जीवन में बहुत बड़ा प्रभाव है उन्ही की बदौलत ही तो मस्तुरिहा जी जैसे कई गीतकारों और गायकों को नाम और पहचान मिली। चंदैनी गोंदा का गीत रेडियो के 'सुर श्रृंगार’ कार्यक्रम में हमेशा बजता था। रेडियो का बड़ा क्रेज था गांव-गांव में लोग रेडियो सुनते थे। उन दिनों राष्ट्रीय स्तर का एक कार्यक्रम आता था रेडियो सीलोन से 'बिनाका गीत माला’ नाम से जो छत्तीसगढ़ में भी बहुत चर्चित था। लेकिन जब सुर श्रृंगार में चंदैनी गोंदा के छत्तीसगढ़ी गीत बजने लगे तो पूरे छत्तीसगढ़ में उस कार्यक्रम की इतनी दीवानगी छाई कि घर और दुकानों से लेकर खेत खलिहानों तक, कई लोग तो सफर के दौरान कंधे में रेडियो लटकाये चलते थे कि कहीं सुर श्रृंगार कार्यक्रम छूट न जाये। इस तरह छत्तीसगढ़ी को शिष्ट और सम्मानित दर्जा दिलाने में चंदैनी गोंदा की अहम भूमिका रही है। इससे पहले तक छत्तीसगढ़ी गीत और साहित्य को छोटी नजरों से देखा जाता था चंदैनी गोंदा के बाद ही जनमानस का नजरिया बदला है।

0 दाऊ रामचंद्र देशमुख जी के ‘चंदैनी गोंदा’ को आप एक साहित्यकार के नाते किस रूप में देखते हैं?
00 चंदैनी गोंदा केवल छत्तीसगढ़ी गीत-संगीत प्रस्तुत करने वाली मंडली नहीं वरन एक अभियान था। ये बाते स्वयं दाऊ जी ने मुझसे कई बार कही है, मेरी उनसे इतनी आत्मियता बन गई थी कि कई रात मैं बघेरा में रूका हूं। दाऊ जी के प्रेरणा स्त्रोत डॉ. खूबचंद बघेल जी थे, जिनके निर्देशानुसार ही उन्होंने सांस्कृतिक आंदोलन शुरू किया। डॉ. खूबचंद बघेल जी का नाटक जरनैल सिंह, करम छड़हा आदि का मंचन चंदैनी गोंदा में होता था। मनोरंजन तो एक माध्यम था असल अभियान तो छत्तीसगढ़ की अस्मिता, संस्कृति और स्वाभिमान को जगाना था। 
0 पृथक छत्तीसगढ़ राज्य आंदोलन में दाऊ जी की भूमिका और अब राज्य बनने के बाद क्या छत्तीसगढ़ की विभूतियों को उचित सम्मान दे पा रही है सरकार?
00 दाऊ रामचंद्र देशमुख जी तो छत्तीसगढ़ राज्य आंदोलन में 1971 से ही कूद चुके थे मिशन ‘चंदैनी गोंदा’ लेकर। बहरहाल इस बात को तो सभी मानते है कि पृथक छत्तीसगढ़ राज्य सांस्कृतिक और साहित्यिक आंदोलन का परिणाम है तो इस हिसाब से उनकी भूमिका भी जग जाहिर है। रही बात अलग छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद छत्तीसगढ़ की विभूतियों के मान सम्मान की तो यह सरकार की जिम्मेदारी बनती है और यदि सरकार भी अपनी जिम्मेदारी को ठीक तरह से नहीं निभायेगा तो फिर आंदोलन होगा। बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि इतने वर्षों बाद भी हम दाऊ जी की विरासत को सहेज नहीं पाये। वैसे वर्तमान सरकार से बहुत कुछ उम्मीद है और इस दिशा में पहल भी हो रहा है। आज यह जानकर प्रसन्नता हो रही है कि सुरेश देशमुख भैया उनके उपर काम कर रहे हैं, मेरी उनको बहुत-बहुत शुभकामनाएं हैं। निश्चित ही उनके प्रयासों से आज की नई पीढ़ी दाऊ रामचंद्र देशमुख जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को जानेंगे। 0

जयंत साहू पत्रकार
- जयंत साहू, डूण्डा रायपुर छ.ग.
9826753304 
jayantsahu9@gmail.com

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