Ganesh chaturthi | गणेश चतुर्थी यानी गणपति उत्सव की धूम 10 सितंबर से, घर-घर विराजेंगे विघ्नहर्ता बप्पा जी

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मंगलमूर्ति गणेश जी की पूजा आराधना प्रतिवर्ष भाद्रपद मास के चतुर्थी तिथि से चतुदर्शी तक घर-घर में की जाती है। भगवान गणेश जी की जगह-जगह विशाल मंडप सजाकर दस दिनों तक भव्य उत्सव मनाया जाता है। इस वर्ष गणेशोत्सव का पर्व 10 सितंबर से 19 सितंबर तक धूमधाम से मनाई जाएगी। देश भर में गणेश उत्सव हर्ष और उल्लास के सा‍थ मनाई जाती है, पिछले कुछ वर्ष से कोरोना के कारण सार्वजनिक मंडपों में उल्लास कुछ कम जरूर हुए है लेकिन घरों में हर साल बप्पा जी विराजमान होते हैं।

सार्वजनिक गणेशोत्सव की शुरूआत

भगवान गणेश की पूजन परंपरा वैसे तो सदियों से चली आ रही है किन्तु सार्वजनिक गणेशोत्सव की शुरूआत महाराष्ट्र में 1893 से माना जाता है। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने गणेश उत्सव को राष्ट्रीय एकता का प्रतीक बनाकर, धार्मिक कर्मकांड से ऊपर उठाकर उसे आजादी की लड़ाई, छुआछूत दूर करने के लिए समाज को संगठित करने का जरिया बनाया। सार्वजनिक रूप से गणेश बिठाने की परंपरा का आयोजन आज एक बहुत बड़ा उत्सव का रूप ले चुका है, जो ने केवल महाराष्ट्र बल्कि अब देशभर में धूमधाम से मनाया जाता है। 

सार्वजनिक गणेशोत्सव में मूर्ति स्थापना

गणपति उत्सव के लिये गणेश जी की मूर्ति बनाने वाले कलाकार महीनों पहले से जुट जाते हैं। एक फीट ऊंचाई की छोटी मूर्ति से लेकर बीस फीट तक की भव्य मूर्ति बनाई जाती है, आकार के अनुसार दाम भी बड़ा होता है। सार्वजनिक स्थानों पर बिठाने के लिए समिति बनाकर चंदे की रकम से लाखों रूपये तक की साज-सज्जा की जाती है। मंडप बनाने का काम श्री कृष्ण जन्माष्टमी के बाद से शुरू हो जाता है। इस काम के लिये महानगरों में बाहर गांव से कारीगर बुलाया जाता है।  

भगवान गणेश की आरती

जय गणेश जय गणेश, जय गणेश देवा।
माता जाकी पार्वती, पिता महादेवा॥

एक दंत दयावंत, चार भुजा धारी।
माथे सिंदूर सोहे, मूसे की सवारी॥ जय गणेश...
 
पान चढ़े फूल चढ़े, और चढ़े मेवा।
लड्डुअन का भोग लगे, संत करें सेवा॥ जय गणेश...

अंधन को आंख देत, कोढ़िन को काया।
बांझन को पुत्र देत, निर्धन को माया॥ जय गणेश...

'सूर' श्याम शरण आए, सफल कीजे सेवा।
माता जाकी पार्वती, पिता महादेवा॥ जय गणेश...

दीनन की लाज रखो, शंभु सुतकारी।
कामना को पूर्ण करो, जाऊं बलिहारी॥ जय गणेश...

जय गणेश जय गणेश, जय गणेश देवा।
माता जाकी पार्वती, पिता महादेवा॥

भगवान गणेश की प्रचलित जन्म कथा

भगवान गणेश के जन्म को लेकर एक पौराणिक कथा प्रचलित है, जिसके अनुसार माता पार्वती ने एक बार अपने शरीर के मैल से एक बालक का निर्माण किया और उसमें प्राण डालते हुए कहा कि- "तुम मेरे पुत्र हो, तुम मेरी ही आज्ञा का पालन करना और किसी की नहीं। माता स्नान के‍ लिये जाते समय द्वार पर पहरा देने का आदेश देतु हुए कहा कि किसी को भी भीतर नहीं आने देना। कुछ देर बार वहां भगवान शंकर आ गये और अंदर जाने लगे जिसे देखकर ने उन्हेे माता की आज्ञा से रोका। भगवान ने उन्हें समझाने की पूरी कोशिश की पर बालक गणेश नहीं माने तब शंकर जी क्रोध में आकर त्रिशूल से बालक का सिर धड़ से अलग कर भीतर चले गए। 

इस घटना की जानकारी होने पर माता पार्वती नाराज हो गई। तदोपरांत भगवान शंकर के कहने पर विष्णु जी एक हाथी का सिर काटकर लाए और वह सिर उन्होंने उस बालक लगाकर जीवित कर दिया। भगवान शंकर सहित अन्य सभी देवताओं ने उस गजमुख बालक को अनेक आशीर्वाद दिए। तब से माता पार्वती और पिता महादेव के नंदन भगवान गणेश जी, गणपति, विनायक, विघ्नहरता आदि कई नामों से प्रथम पूज्यनीय हुए। 

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Pora Tihar। पोरा तिहार यानी पोला पर्व 6 सितंबर को कृषि प्रधान अचंलों में धूमधाम से मनाई जाएगी, बैलों की पूजा और अन्नमाता के गर्भधारण के लोकोत्सव में मिट्टी से बने नंदी और पोरा-चुकिया के खेल का है विशेष महत्व


कृषि संस्कृति से जुड़ा बहुत ही खास पर्व है पोरा, जिसे छत्तीसगढ़ के अलावा मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और कर्नाटक में विशेष रूप से मनाई जाती है। भाद्रपद मास के अमावस्या को मनाई जाने वाली इस पर्व को छत्तीसगढ़ में पोरा तिहार व महाराष्ट्र में पोला-पिठोरा व कर्नाटक में पोला कहा जाता है। कुछ प्रदेशों में इसे पिठोरी अमावस्या व कुशग्रहणी अथवा कुशोत्पाटिनी अमावस्या भी कहा जाता है। कृषि प्रधान अंचलों में अधिकांश लोकपर्व खेती से जुड़ा हुआ मिलता है और किसान सह परिवार उन उत्सवों को धूमधाम से मनाते हैं। इन पर्वों की खास विशेषता होती है कि किसान के साथ उनके घर की महिलाएं तथा बच्चों के लिए भी विविध परंपराओं का समावेश होता है। 

छत्तीसगढ़ में पोरा तिहार (pola festival) की लोक परंपराएं-

पोरा पर्व के दिन छत्तीसगढ़ में बैलों की विशेष पूजा होती है। इस त्योहार में कुम्हार (Potter)लड़कों के लिए मिट्टी के बैल व लड़कियों के लिए गृहणियों द्वारा उपयोग की जाने वाली बर्तनों का खिलौने बनाकर बेचते हैं। बच्चों के खेल के लिए बढ़ई (carpenter) द्वारा काठ का बैल बनाया जाता है। इस दिन किसान अपने घर के बैलों को नहला-धुलाकर कर कई रंग-बिरंगे पोषाक से श्रृंगार करते हैं। घर में ठेठरी, खुरमी, अरसा, सोहारी, देहरौही, चौसेला सहित अनेक छत्तीसगढ़ी व्यंजन (chhattisgarhi cuisine) बनाये जाते हैं। 

पोला पर्व का पूजा लोग अपने-अपने घरों में पारंपरिक तरीकों से करते हैं। महिलाएं एक स्थान में गोबर से लिपकर, चावल आटे अथवा धान से चऊक पुरती है। जिसमें लकड़ी की पिड़ुली रखकर मिट्टी के नंदी बैल व पोरा-चुकिया को रखा जाता है। तदोपरांत बंदन से सभी में टीका लगाते हैं, आटे के घोल से हाथा देते हैं। धूप-दीप से आरती करके, घर में बने छत्तीसगढ़ी व्यंजनों का भोग लगाया जाता है। 

छत्तीसगढ़ में पोरा पर्व की धूम-

छत्ती‍सगढ़ में पोरा पर्व में बैलों का विशेष महत्व होता है। इस दिन किसान बैल से कोई काम नहीं लेते है। उन्हें अनेक प्रकार के रंग-बिरंगे वस्त्रों से सजाया जाता है। सींग में रंग-रोगन के साथ ही मोरपंख, आभूषण आदि से श्रृंगार किया जाता है। बैलों को लेकर साहड़ा (सांड) ठउर में बैल सजावट, बैल दौड़ की प्रतियोगिताएं पोरा पर्व का विशेष आकर्षण होता है। इस दिन छोटे लड़के भी अपने मिट्टी या काठ के बैल को लेकर खेलते हैं। वहीं लड़कियां मिट्टी के खिलौने से खेलती हैं जिसे पोरा-चुकिया कहा जाता है। खेलने के बाद शाम को उसी स्थान में कुछ खिलौने को तोड़ आती है जिसे पोरा पटकना कहा जाता है। 

छत्तीसगढ़ में पोरा पर्व की मान्यताएं-

छत्तीसगढ़ में अधिकांश पर्व एक ओर कृषि से जुड़ा हुआ मिलता है तो दूसरी ओर भगवान महादेव से भी संजोग से संबंध होता है। पोला में बैलों की पूजा की जाती है और बैल भगवान शिव की सवारी है जिसे नंदी कहते है। छत्तीसगढ़ में नांदिया बइला भी कहा जाता है। नंदी का नाम महादेव से जुड़कर नंदेश्वर के रूप में भी पूजे जाते हैं। चूंकि किसान नंदी का उपयोग कृषि कार्यों में करते है, बैल के बिना खेती के काम को पूरा नहीं किया जा सकता है और किसान पोरा पर्व में उन्हें देव रूप में पूज कर उनके प्रति अपनी आस्था प्रकट करता है। 

छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा कहा जाता है, प्रमुख रूप से धान की फसल ली जाती है। जो भाद्रपद की अमावस्या अर्थात पोरा पर्व तक दूध भराने की स्थिति में होता है। जिसे लोक भाषा में धान का पोटराना कहा जाता है अर्थात धान गर्भ धारण करती है। पोरा पर्व को एक तरह से उसी खुशी का लोकोत्सव भी कहा जा सकता है। 

छत्तीसगढ़ में अलिखित साहित्य का विपूल भंडार है, जिसे नई पीढ़ी पढ़ते नहीं गढ़ते हैं। बुजुर्गों ने अपनी परंपराओं व संस्कृति आदि को पर्वों के रूप में ऐसा संरक्षित करने का रास्ता निकाला है जो सदियों तक छत्तीसगढि़या जनों में पुष्पित और पल्लवित होती रहेगी। पोरा के संदर्भ में कहा जाए तो बच्चों को मिट्टी के बैल से खेलने को दिया जाता है यानी कृषि कार्य और उसमें प्रमुख उपयोगी नंदी से उनका परिचय कराया जाता है ताकि वह भी बड़ा होकर बैल से खेती का काम करें। 

इसी तरह महिलाओं द्वारा घर की रसोई में उपयोग किये जाने वाले बर्तन आदि से जोड़ने के लिए पोरा के अवसर पर उन्हें मिट्टी के खिलौने दी जाती है जिसमें चुल्हा, कढ़ाई, चम्मच, जाता, सुराही, मटका, गिलास, लोटा सहित अन्य सामान होते हैं। जो खेल-खेल में ही घर-संसार की सीख बच्चों में बालपन में देने की एक कोशिश भान पड़ती है और उसे उत्सव का रूप देकर जीवन का आनंद लेने की परंपरा छत्तीसगढ़ की एक बड़ी विशेषता है।

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