दिग्गज अभिनेता इरफान खान नहीं रहे

भारतीय सिनेमा के एक दिग्गज कलाकार इरफान खान का असमय जाना आंखो को यकीन नहीं होता। क्या सच में अपने करोड़ों चाहने वालों को रूला गया इरफान, हां यही जिंदगी का हकीकत है, वें अब हमारे बीच नहीं रहे। टेलीविजन से बॉलीवुड और हॉलीवुड तक में उनको उनके किरदार के नाम से जाना जाता है। यह एक कलाकार के लिये बहुत बड़ा सम्मान है। उनका हर किरदार यादगार रहा है जिसे लोग कभी नहीं भूल पायेंगे। अनेक फिल्मफेयर पुरस्कार और सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के तौर पर फिल्म 'पान सिंह तोमर' के लिए राष्ट्रीेय पुरस्कार पाने वाले इरफान खान को भारत सरकार द्वारा पद्मश्री सम्मान से भी नवाजा जा चुका है। हमेशा लीक से हटकर धीर और गंभीर आंखों से अभिनय कर दर्शकों पर अमिट छाप छोड़ने वाले महान कलाकार को हमारी विनम्र श्रद्धांजलि।

सयाना - लघु उपन्यास

मेरी पहली लघु उपन्यास ‘सयाना’ की तीसरी कड़ी ...

अरे... आज तो बहुत देर तक सोता ही रह गया। सूरज मुहाने तक आ पहुंचा है। लगभग सात बजने को आया होगा। कभी इतनी देर तक सोया नहीं। किन्तु आज, शायद मन से चिंता की लकीर हटी इस वजह से सात बजा। मां और पिताजी अपने-अपने काम में व्यस्त हैं। रसोई से आवाज आ रही है... हॉं मां आया। शायद मां चाय के लिये मुझे ही पुकार रही होंगी। हमारी रसोई सुबह के पांच बजे से ही शुरू हो जाता है। बिना दूध की गुड़ वाली चाय के साथ। घर में गाय, भैस, बकरी सभी का दूध होता है लेकिन हमें काली चाय ही भांता है। पिताजी तो चाय पीकर बाड़ी भी जा चुके होंगे।

क्यों मां.... आज तुमने मुझे जागया नहीं। 
मां ने मुस्कुराते हुए कहा- क्या  करेगा रघु जल्दी उठकर। तेरे लायक कुछ काम भी तो नहीं। ...काम कैसे नहीं है। घर में तुम्हारा हाथ बटा सकता हूं और बाड़ी में पिताजी का भी। रघु बेटा अब तू ये सब काम में ध्यान न दिया कर मेरे सयाना बेटा तुम्हे तो अभी बहुत बड़ा-बड़ा काम करना है। मां का भी कुछ समझ में नहीं आता है। जितना मुंह से कहती है उससे अधिक तो उनके मन में बात होता है।

आज तो मैं मां की मन की बात जानकर ही रहूंगा। अच्छा अवसर है, पिताजी घर में नहीं है। मैने होसियारी से बात शुरू करनी चाही किन्तु। उसने ठिठोली कर दी। कौन सा बड़ा काम करना है मां। मां ने झट से कहा... नहाना है, खाना है, खेलना है और क्या। मैने बात कहां से शुरू की और मां बात को कहां पहुंचा रही हैं। चलिए फिर कभी जानेंगे मां की मन की बात। आज तालाब में नहाने का आनंद ले आते है।

मैने मां से कहा- घर के कुएं और बाड़ी के बोर से बहुत नहां लिया, आज तालाब का आनंद लेकर आता हूं। आश्चर्य हुआ मां ने रोका न टोका। खुशी से तालाब में नहाने की अनुमति देदी। पहले ऐसा नहीं होता था। मेरे उठते ही मां कुएं से पानी भर कर रख देती थी। यदि बाड़ी में होता था तो बोर के पास बाल्टी और साबुन रख आती थी। कहती थी कहा तालाब जायेगा बेटा घर में कुएं-बोर है, यही नहा। चलो भई कुछ दिन और लाड कर लो मां अपने लाडले से। मेरे साथ शायद हलाल होने से पहले बकरे की आवभगत वाली घटना हो रही है। देर तक सो रहा हूं। किसी भी काम के लिए इंकार नहीं किया जा रहा है। मेरी पसंद ना पसंद का ख्याल रखा जा रहा है। जल्दी नहाकर आ जाता हूं। रसोई से मेरे मन पसंद इलहर कड़ी की खूशबू आ रही है।

गांव के तालाब में नहाने जाने से बहतु से काम एक साथ निपट जाते है। नित्यकर्म, स्नान के साथ ही कई बातों का ज्ञान तालाब से ही होता है। मेरे तालाब जाने के एक कारण यह भी था कि गांव का हालचाल जान सकूं। मैनें घर से एक टावल के अलावा साबुन आदि कुछ भी नहीं रखा। गांव तालाब के पीछे के हिस्से में हुआ करता था। चूकि मैं देर से पहुंचा था सो गांव के बड़े बुजुर्ग नहां चुके हैं। अभी जो लोग तालाब में दिखाई दे रहे हैं। सब मेरे जैसे निठल्ले लग रहे हैं। मैं तालाब पहुंचते ही सबसे पहले नित्यकर्म से हो आया। डब्बा, लोटा, बाल्टी आदि की जरूरत होती है लेकिन वहां सब मिल जाता है। एक आदमी के डब्बा से कई लोग उसके स्नान करते तक निपट जाते हैं।

उधर से ही नीम का दातून और काली मिट्टी लेकर आया था। मैं दातून चबाते-चबाते घाट पर बैठे लोगों की बाते सुन रहा था। हम उम्रों की टोली जमी है। बिंदास बातों के बीच-बीच हंसी ठहाका भी गुंज रहा है। बाजार में सब्जी का भाव, क्रिकेट का स्कोर, नई फिल्म का स्टोरी सुबह-सुबह ही तालाब से साझा होनी शुरू हो जाती है। घर-घर की कहानी को थोड़ा सस्पेंस के साथ और लड़की-लड़का की बात रोमांच के साथ सुनाया जाता है।

अरे सुन... सुन चम्पा की शादी हो गई है। क्या... हां हां। मैं तो उससे मिला भी था। बाजार में अपनी पति के साथ घूम रही थी। शायद ये लोग पटवारी की लड़की चम्पा के बारे में बात कर रहे हैं। मैं तो उनको जानता हूं, पास के गांव की है। कभी-कभी स्कूल आते-जाते रास्ते में मिलती थी। पढ़ाई में बहुत ही अच्छी थी। कुछ भी कठनाई होती थी तो बेझिझक मुझसे मदद मांगती थी।

चम्पा की शादी के विषय में जानकर प्रसन्नता के साथ दुख भी हुआ। दुख इस बात का कि चम्पा आगे पढ़ाई करना चाहती थी जोकि अब संभवत: नहीं पढ़ पायेगी। गांव में शायद ही कोई लड़की 18 से ऊपर की बची होगी। लड़कों की जमात में 22-25 तक मिल ही जाते हैं। कुछ मेरे जैसे। अब तक उन निठल्लों की नजर मुझ पर पड़ चुकी थी। एक ने कहा- बड़े दिनों बाद दिखा रघु तालाब में। दूसरे ने कहा- शायद रघु शहर जाने से पहले गांव की याद ताजी करने आया होगा। शहर जा रहा है तो याद ताजी करने की क्या जरूरत। अरे भाई तुम समझे नहीं। आगे कॉलेज की पढ़ाई करने शहर जा रहा है। कहां, कब, क्यों, कैसे जैसे सवालों की बौछार शुरू। मैंने कहा अभी कोई तय नहीं किया हूं। जाऊंगा तो सभी को बता कर ही, चिंता मत करो। तुम लोगों को भी भला भूल सकता हूं क्या। मैं मन ही मन सोचा ये तालाब भी बड़े काम का स्थान है यहां गांव क्या, गांव के बाहर की भी सूचनाएं मिलती है। मानना पड़ेगा इनके सूचनातंत्र को।

मेरे मन में आया की क्यों न यही से ज्ञान प्राप्त किया जाए। मनोज तो मेरा सहपाठी भी रहा है 10वीं कक्षा तक, उन्हीं से पूछ लिया जाए। क्यों मनोज तुम्हारे मामा का लड़का भी तो बाहर पढ़ने गया था। कहां है और क्या कर रहा है आजकल। मनोज ने गुस्से से कहा मत पुछ भाई उस कमीने ने तो पूरा घर को बरबाद कर दिया। कैसे... क्या हो गया। मेरे नाना जी ने पढ़ाई के लिये उसको बाहर भेजा था। बाहर पढ़ाने में सक्षम न होने के बाद भी मामा ने घर की संपत्ती बेचकर उसे पढ़ाया। खेत को भी गिरवी रखा था इस आस में की बेटा पढ़ लिखकर आयेगा तो फिर से खेत को छुड़ा लेंके। घर परिवार के सपनों को मिट्टी में मिला दिया उस इंसान ने। घर लौटकर ही नहीं आया। सुना हूं कि वही किसी से शादी कर लिया और गाड़ी बंगला सब कुछ ले लिया है। घर वालों को पुछता भी नहीं है कि कैसे है। शर्म की बात है बेटा बाहर एसो आराम के साथ जी रहा है और मां-बाप रोजी मजदूरी करके जीवन यापन कर रहे हैं।

थू है ऐसी पढ़ाई पर जो मां-बाप को छुड़ा दे। मां-बाप अपने बच्चों को इसलिए पालन पोषण कर बड़ा करते है कि उनको बुड़ापे में सुख मिले। यहां तो बेटे बाहर पढ़ने के बाद गांव आना नहीं चाहते हैं। उस मिट्टी को भूल जाते हैं जहां खेले, जहां का उपजा अन्न खाएं। कम से कम अपने मां-बाप का तो ख्याल करना चाहिए। मनोज की बात सुनकर मुझे भी बहुत दुख हुआ। मनोज का नाना बहुत ही मजाकिये इंसान थे। कभी-कभी आते थे मनोज के यहां तो आस पड़ोस से भी मिले बिना नहीं जाते थे।

मुझे तो और भी दुख हुआ मनोज के मामा के लड़के के बारे में जानकर क्योंकि मैं भी बाहर पढ़ने जाने वाला हूं। मनोज जब भी अपने मामा के लड़के को कोसते, गाली देते थे तो मुझ़े ऐसा लगता था मानो मुझे दे रहे हो। कुछ लोगों ने तो यहां तक बताया की गांववालों को वें मजदूर और नौकर संबोधित करते थे अपने दोस्तों के सामने। क्यां ऐसा भी औलाद हो सकता है दुनिया में, जो अपने दोस्तों के सामने अपना कद ऊंचा करने के लिये मां-बाप को नौकर बताए।

... कही मैं भी शहर जाने के बाद बदल गया तो क्या होगा मेरे मां-बाप के सपनों का। कहते है कि जो लोग गांव से शहर जाते है वे लौटकर फिर गांव नहीं आते। कुछ तो सच्चाई है इस बात में। मैंने भी देखा है जो शहर गये है वे गांव आना नहीं चाहते है। तर्क भी देते है कि इतना पढ़ने के बाद गांव में फिर वही काम करना है तो फिर इतनी पढ़ाई का क्या फायदा। ये बात भी सही है। मैं... भी। ... शहर न आऊं तो। ना ही जाऊं तो ज्यादा अच्छा है। एक बार फिर मां और पिताजी से इस विषय पर चर्चा करने में क्या हर्ज है।

अब मुझ़े उन लोगों की बातें सुनने का मन नहीं हो रहा है। जितना जल्दी हो नहां कर घर जाऊंगा। मेरे साथ सभी की नहाने की गति बड़ गई। काली मिट्टी को शरीर में लगाकर, छोड़ी तैराकी करके तालाब से हम बाहर निकल गये। तालाब से घर तक रास्तेभर तरह-तरह की बातें सुनते-सुनाते रहे। विषय केवल एक ही था गांव से पढ़ने शहर गया लड़का। किसी ने भी साकारात्मक बात नहीं कही। अब मेरा मन भी डगमिग-डगमिग डोल रहा है, नदी में नाव की भांति। बात तो चिंता की है... कहीं मैं सचमुच बदल गया तो। गुनते-गुनते घर पहुंच चुके। खाना खाते-खाते मां से आज इस बात पर चर्चा जरूर करूंगा। 

  • कुछ अंतराल के बाद चौथी कड़ी ...

सयाना - लघु उपन्यास

मेरी पहली लघु उपन्यास ‘सयाना’ की दूसरी कड़ी ....


मई का महीना है। घर में बिजली, पंखा होने के बावजूद हम उनके आदी नहीं है। वैसे भी गरमी के दिनों में बाहर खाट निकाल कर सोने का आनंद ही अलग होता है। खुला आकाश में उड़ते बादलों के बीच चमते तारें देखेना। शांत खड़े पेड़ की ओर से झरझर हवा। पंछियों की चहलकदमी। सोने से पहले और जागते दिखता है।

सभी का बिस्तर घर में बरामदे में लगा हुआ है। तुसली के पौधे के लिये बने चभुतरे में एक छोटा सा दीपक जल रहा है। टिमटिमाती दीये की रोशनी आंगन में लगे अनार, अमरूद, पपीता और आम के पेड़ तक हल्की-हल्की पहुंच रही है। मैं बिस्तर में ही लेटे उन फलों को छू लेने की अनुभूति पा रहा हूं। अनार थोड़े अधपके है, अमरूद और पपीता बहुत ही छोटे है। पर आम को तो देखकर ही खाने को मन करता है। पहले चख लेते हैं... बाद में देखा जाएगा छोटा-बड़ा और कच्चाख-पक्का। घर हो या बाड़ी, किसी भी पेड़ में लगे पहले फल का स्वाद मैं ही सबसे पहले लेता था। और मेरे बाद जमुना दीदी...। अब मेरे ना रहने से जाने कौन चखेगा इनके फलों का स्वाद।

नींद भी तो नहीं आ रही है। बार-बार घर छोड़ने का ख्याल आने मात्र से ही मन दुखी हो जा रहा था। मैं घर छोड़कर जा पाऊंगा भी की नहीं। यदि मां और पिता जी का यही अरमान है तो मुझमें उनके सपनों को तोड़ने का साहस भी तो नहीं है। चाहे कुछ भी हो, मेरे जाने या न जाने का आखरी फैसला भी वही करेंगे इतना तो तय है।

एक कोने में मेरा खाट और दूसरी ओर कुछ ही दूरी पर मां और पिता जी सोए थे। शायद जाग वे रहे थे। और मेरी ही तरफ देख रहे थे। उनको भान था कि मैं जाग रहा हूं। वे मुझे बिना सुलाये सोते भी कहां है। मेरे आंखों में जागते हैं, सोते हैं, क्या वे मेरे बिना वो अकेले रह लेंगे। मां पिताजी बार-बार मेरे ही बदलते करवट और सरकते तकीये को ताक रहे थे। कुछ देर बाद मैंने सोने का ढोंग किया और मुंह टावल से ढक लिया।

धीरे से मां की आवाज आई लगता है.. सो गया है। पिताजी ने कहा हां...। रघु के बिना हम भी अकेले नहीं रह पायेंगे जमुना की मां। तो फिर भेजना क्यो चाहते हो... मां ने कहा। जमुना की मां क्या तुम नहीं जानती। 'उस दगाबाज ने क्या किया हमारे साथ। आखिर क्या कमी थी हमारी बेटी में। सुंदर, गुणवती बिटिया को सिर्फ इसलिए शादी से इंकार किया की हम उनसे कम पढ़े लिखे हैं। मुझे जो चाहे कह लेते लेकिन मेरी बेटी के साथ जो उन्होने किया वह मैं कभी नहीं भूल सकता'। तुम्हे भी याद है न मेरी कसम...। 'सोमनाथ तुम्हे‍ बहुत घमंड है ना अपनी नौकरी और पढ़ाई पर। देखना जब मेरा बेटा पढ़ लिखकर तुम से भी बड़ा आदमी बनेगा'। 

अरे क्या-क्या नहीं किया था मैने और मेरे परिवार ने तेरे लिये। कहना तो नहीं चाहिए लेकिन एक छोटे से किराने की दुकान के भरोसे तुम और तुम्हारा परिवार बिना हमारे सहारे जी भी नहीं पाते। तुम लोगों की हालत देखकर मेरी मां अक्सेर कहा करती थी कि बेटा रामनारायण उस किराने वाली के बेटे सोमनाथ को भी कुछ खाने को दे आ। मेरे घर रोज दो रोटी ज्यादा बनती थी तेरे कारण। कपटी तो तू शुरू से ही था सोमनाथ। जब भी किराने वाली चाची मेरे लिये कुछ भेजती थी कि रामनारायण को दे आना कहकर तो सब कुछ आधा रास्ते स्वयं ही खा लेता था। फिर भी मैं दोस्ती निभाता रहा। तेरी गलती को शरारत समझ भुलता रहा। मैं एक घटिया आदमी को अपना पक्का दोस्त मानता था। तुम्हारी और मेरी मां की तरह गांव वाले भी भोले थे जो सोमनाथ और रामनारायण की दोस्ती के कसीदे गढ़ते थे। 

...मां को पिता जी अपनी और किसी सोमनाथ के बारे में बता रहे हैं। आज उस आदमी के नाम से पिताजी को पहली बार इतना क्रोधित देख रहा हूं। मैं बिस्तर में ही लेटे उनकी बातें सुन रहा था। आगे मां कहती है हां रघु के बाबू जी सासु मां भी उनको बेटे जैसा ही मानती थी। चार पैसे कमा कर बड़ा आदमी क्या बना हमें तो कुछ समझते ही नहीं। आदमी पैसों से नहीं इमान से बड़ा होता है जमुना की मां। हम क्या कम है उनसे। पढ़ लिखकर पर की नौकरी ही तो कर रहा है। नौकरी न रहे तो खाने को लाले पड़ जायेंगे। हमें देखो खुद की खेती कमाकर औरों का भी पेट भर रहे हैं। सच कहू तो खेती में ही सुकून मिलता है जमुना की मां। मैं मन ही मन उनकी बातों को सुन कर सोच रहा हूं। जब पिताजी खेती को इतना महत्व देते हैं तो मुझे बाहर पढ़ने क्यों भेजना चाहते हैं। तभी पिताजी ने मां को गर्व से कहा देखना मेरा बेटा रघु ही उनका गुरूर तोड़ेगा। अब बात कुछ-कुछ भेजे में आ रही है कि मुझे बाहर पढ़ाना क्यो चाहते हैं।

बताते है कि सोमनाथ जो कि पिताजी के दोस्त थे। साथ में खेलेकूदे और बड़े हुए। उनके पिताजी के गुजर जाने के बाद मां के साथ हमारे गांव में मजदूरी करने आई उसकी मां। उनकी मां बीमारी होने के कारण ज्यादा मेहनत का काम नहीं कर पाती थी। दुखिया और बेसहारा जानकर मेरी दादी ने गांव में उनको किराने की दुकान खोलने में मदद की। यहां तक सोमनाथ की पढ़ाई लिखाई का खर्चा भी उठाया। उनके पास गांव में कुछ नहीं था कमाने के लिये। पढ़ा लिखकर मां का किराना दुकान नहीं चलाना चाहता था। पढ़ाई खत्म करके उसने नौकरी करने की सोची। और पिता जी ने पुरखों की खेती को संभाला। शहर में उसे अच्छी नौकरी मिल गई। कुछ दिन बाद अपनी मां को भी शहर बुला लिया। दिन बदल गया। दोनो दोस्त बाल-बच्चो वाले हो गये। सोमनाथ की मां अधिक दिनों तक बेटे बहु के साथ शहर का सुख नहीं ले पायी और चल बसी। 

वें लोग कभी-कभी गांव आते था जब हमारी दादी जिन्दा थी। एक दिन दादी ने कहा- बेटा सोमनाथ तेरा बेटा भी बड़ा हो गया है और रामनारायण की बेटी भी सयानी हो गई है क्यों न दोनो समधी बन जाओ। दोस्ती को रिश्तेदारी में बदल लो। आना जाना बढ़ेगा। तुम्हारी मां की आत्मा को भी शांति मिलेगी। अब यही मेरी भी आखरी इच्छा मान लो। उस समय तो सोमनाथ ने हामी भर दी। मगर दादी के बीत जाने के बाद जो बखेड़ा हुआ उसके बाद तो पिताजी को दोस्ती पर से विश्वास उठ गया। 
जिस तरह से सोमनाथ और उनके परिवार का व्यवहार बदला इसे दिखकर रामनारायण भी अपनी बेटी नहीं देना चाहते थे किन्तु मां की आखरी इच्छा पूरा करने के लिये अपनी बेटी जमुना का हाथ देने को तो तैयार थे। सगाई तय करने ही वाले थे कि एक दिन सोमनाथ का संदेश आया कि वे गांव की कम पढ़ी लड़की को अपनी घर की बहु नहीं बना सकता। पिताजी को बड़ा दुख हुआ। इतना सब जानकर गुस्सा तो मुझे भी बहुत आ रहा था। क्या ऐसे भी लोग होते है जो बचपन के किये एहसानों को भुला देते हैं। अब समझा की पिताजी मुझे बड़े शहर में क्यों पढ़ाना चाहते है। न जाने मां और पिताजी के बीच आगे और क्या बात हुई होगी। मैंने जैसे ही अपनी शहर जाने का कारण समझा मुझे नींद आ गई, मैं सो गया।

  • कुछ अंतराल के बाद तीसरी कड़ी ...

सयाना - लघु उपन्यास

मेरी पहली लघु उपन्यास ‘सयाना’ की पहली कड़ी ...


उस समय हमारे गांव में प्राथमिक कक्षा तक ही पढ़ाई होती थी। बात ज्यादा पुरानी भी नहीं है, बस सरकार ने मीडिल स्कूल खोलने में जरा देर कर दी। आगे की पढ़ाई के लिये हम पास के एक छोटे से कस्बे में जाते थे जो कि महज चार किलोमीटर ही दूर था। नजदीक होने के कारण गांव के सभी लोग पढ़े-लिखे थे। गांव कस्बा से लगा होने के कारण आवागमन का कुछ साधन हुआ करता था। किन्तु हम बस और ऑटो रिक्शा से तो जा नहीं सकते थे और हमारे पास सायकल भी नहीं होती थी। कंधे में थैला लटकाये पैदल ही पैदल स्कूल जाते थे।

पैदल चलने का आनंद ही अलग होता था। मां ने एक दिन मुझसे कहा भी था कि रघु बेटा अपने पिता जी से कहकर एक सायकल क्यों नहीं खरीदा लेता। मैनें सायकल के लिये मना करते हुये कहा- 'मां दोस्तों के साथ गप्पे लगाते स्कूल जाने में जो मजा आता है वो सायकल से अकेले जाने में नहीं। चार किलोमीटर भी भला कोई दूर है। और सड़क भी तो बनने लगा है। कुछ दूर पगडंडी, फिर आधी कच्ची, आधी पक्की सड़क। रास्ते में बेर, इमली और आम आदि के पेड़ भी तो है हमें सुकून देने के लिये। झट से घंटे भर में स्कूल पहुंच जाते हैं। और भला एक सायकल में कितने लोग बैठेंगे दो या तीन। रघु ने मां से विनम्रता पूर्वक कहा मां तू मेरी चिंता मत किया कर जिस दिन मेरे साथियों के पास सायकल खरीदने के लिये पैसे आ जायेंगे उस दिन मैं लेने के लिये जरूर कहूंगा। मां ने दुलारते हुये कहा बेटा बाप से सयाना है।

रघु के पिता जी गांव में खेती का काम करते थे। उनके परिवार में मां और पिता के अलावा एक बड़ी बहन जमुना थी जिसकी शादी पास के ही गांव में हुई है। माता-पिता से जितना प्यार और दुलार मिलता था उनता ही डांट भी। पिता जी सुबह जल्दी उठ जाया करते है, मां से भी पहले। बैल को कोठे से बाहर निकालना, गाय-भैस को कट्टी खिलाना ये उनका सुबह का काम था। इसी काम के लिये मुझे डांट पड़ती थी। रोज-रोज तो नहीं किन्तु जिस दिन पिता जी शहर के बाजार जाते उस दिन मेरी आफत होती थी। सुबह जल्दी उठकर पिता जी शहर जाने से पहले मां से कहकर जाते... जमुना की मां रघु को जल्दी जगा देना और उसे कह देना कि बैल को बाहर कर देगा, गाय-भैस को कट्टी देगा, उसके बाद बाड़ी को भी देख आयेगा। पिता जी मां को जमुना की मां कहकर पुकारते थे और मां पिता जी को रघु के बाबू जी कहती थी।

मां से कहकर पिता जी भोर से पहले ही शहर चले गये। मैं सोते रह गया, न जाने मां ने भी क्यों नहीं जगाया। बैल कोठे से बाहर, गाय-भैस कट्टी खा रही है। ओह... जरूर जमुना दीदी आई होगी। मन प्रसन्नता से भर गया। इधर-उधर देखा दीदी कहीं नहीं दिखी। मैं दौड़ कर बाड़ी की तरफ गया। शादी के बाद भी दीदी बिलकुल नहीं बदली है। मेरे हिस्से का काम वे हमेशा कर देती है और मां-पिता जी के डांट से बचा लेती हैं। दीदी... दीदी, मेरी प्यारी दीदी तुम कब आई। बस तेरे सोनो के बाद और उठने से पहले। दीदी ने प्यार से सिर पर हाथ फेरते हुये कहा। इतने में ही मां की आवाज आई... उठ जा रे रघु बेटा निंद में क्या दीदी... दीदी, बड़बड़ा रहा है। बैल को बाहर निकालना है, गाय-भैस को चारा देकर बाड़ी भी जाना है। ओह! कितना अच्छा सपना देख रहा था। काम भी हो गया था और दीदी से भी मिल लिया। चलो अब मां की आज्ञा का पालन भी जाए। शाम होने से पहले पिता जी भी आ जायेंगे।

घर का काम करना मुझे भी अच्छा लगता था। ऐसे ही मां से ठिठोली कर लेता था कि पिता जी मुझे बहुत काम कराते हैं। और जो काम मुझे करने को कहा जाता है दरअसल वह हमारा संस्कार है। गर्व है कि मैं एक किसान का बेटा हूं। घर का काम जल्दीं–जल्दी करके बाड़ी पहुंचा। बाड़ी में धान की फसल के साथ ही सब्जी की खेती भी करते थे। हम किसानों की दिनचर्या घर से खेत तक ही होती है। समय कैसा कटता है पता नहीं चलता। मेरे पीछे मां भी बाड़ी चली आती थी खाना लेकर। मां का सारा ध्यान मुझ पर ही होता था। बार-बार सिर्फ एक बात दोहराती रहती थी। ये मत कर... वो मत कर, तेरे पिता जी कल कर लेंगे तू बस देखाकर। कभी-कभी मैं मां से रूठ भी जाता था कि क्या मैं काम नहीं सकता। तब मां कहती ‘कर सकता है मेरा सयाना बेटा पर अभी से कितना काम करेगा रे’।

पिता जी के ना रहने से ऐसे ही कटता था हम मां-बेटे का समय। थोड़ा काम थोड़ा बात और हो गई शाम। पिता जी बाजार से बीज और खाद के साथ शाम ढलने से पहले घर आ पहुंच थे। हांथ मुंह धोते हुए पिजा जी मां से कहते- जमुना की मां रघु स्कूल गया था क्या मां कहती- रघु के बाबू जी तुम ही तो काम बता कर जाते हो, कहां समय रहता है स्कूल के लिये। अरे... जुमना की मां तुम भी बस। मैं तो ऐसे ही कह जाता हूं कि तुम्हारा भी ध्यान रहे बेटे पर। चिड़कर मां जोर से कहती- ठीक है ठीक है अगली बार कोई काम नहीं करने दूंगी। स्कूल ही जायेगा तुम्हारा लाडला। पिता जी मुस्कुरा दिए। सभी रात को सभी एक साथ खाना खाए। मैं पढ़ने बैठ गया। मां और पिताजी भी शायद इसलिए जल्दी नहीं सोते क्योंकि मैं जाग रहा हूं। कुछ काम के बहाने वें भी जागते रहते थे।

सच कहूं तो मेरा मन पढ़ाई से कही ज्यादा खेती के काम ले लगता था। पढ़ना भी जरूरी है। घर में सभी कहते है पढ़ लिखकर तुम्हे बड़ा आदमी बनना है। अच्छा काम करना है। शायद वे चाहते थे कि मैं पढ़ लिखकर अच्छी नौकरी या कुछ अन्य काम करूं। मुझे मां और पिता जी के साथ दीदी भी यही बात कहती थी। चलो जैसे-तैसे स्कूल की परीक्षा तो खत्म हो गई, लेकिन जीवन की असल परीक्षा तो अब होनी है। घरवाले चाहते हैं कि आगे की पढ़ाई बड़े शहर में करनी है भले खेती बेचनी पड़ी तो बेच देंगे। न जाने क्यों पिता जी का मां भी साथ दे रही थी। मैं बार-बार उनको समझाता रहा कि हम गांव में रहकर भी अच्छा काम कर सकते हैं। और यहां की पढ़ाई भी अच्छी है। मां और पिता जी को मैं सीधे-सीधे ना भी नहीं कर सकता था। बस इस उधेड़ बुन में लगा रहता था कि कुछ ऐसा हो जाये की घरवाले मुझे बड़े शहर भेजने का विचार मन से निकाल दे।

था तो सयाना, कभी-कभी तो यह भी सोचता था यदि मैं 12वीं फेल हो जाऊं तो। नहीं... नहीं, मुझसे घरवालों की बहुत उम्मीदे है। आखिर 12वीं का नतीजा आया, मैं केवल स्कूल ही नहीं बल्कि कस्बे में अव्वल था। घर में सब खुश थे। गांव वाले तो और तिल का ताड़ करने में लगे थे। तरह-तरह की बातें, कोई कहता रायपुर भेजो, कोई कहता बैंगलोर, कोई दिल्ली। कुछ तो विदेशों के नाम भी सुझा रहे थे। मन ही मन मैं कोसता था ये मेरे अपने है कि दुश्मन। मेरे लाख कोशिशों के बाद एक आखरी आस बंदी थी दीदी से उनसे भी मां पिता की हां में हां मिला दी। अब घर से मेरी छुट्टी पक्की है। वे शहर भेजने की और मैं न जाने की भगवान से मिन्नते कर रहा हूं।
  • कुछ अंतराल के बाद दूसरी कड़ी ..... 


एंड्राइड और 4 जी बिना कैसे ऑनलाइन पढ़ेगा छत्तीसगढ़ !


छत्तीसगढ़ सरकार ने बच्चों की पढ़ाई को लेकर एक और नवाचार का शुभारंभ किया है। कहा जा रहा है कि अब ऑनलाईन एजुकेशन प्लेटफार्म ‘पढ़ई तुंहर दुआर’ के माध्यम  से बच्चों को घर में ही पढ़ाना है। देश में फैल रहे वैश्विक महामारी कोरोना के काल में सरकार का ऑनलाईन एजुकेशन प्लेटफार्म शिक्षा के क्षेत्र में नई क्रांतिकारी शुरूआत के साथ ही छत्तीसगढ़ की दशा और दिशा को देखकर प्रश्न चिन्ह भी लगा रहा है। हालांकि इस नवाचार का आज के दौर में स्वागत होना चाहिए किन्तु समय की कसौटी पर परखना भी हमारी सामाजिक जिम्मेदारी है। मुख्यमंत्री और विभागीय अफसरों ने देख परख कर इसे लांच तो कर दिया है, कुछ ही दिनों में इसके परिणाम भी सामने आने लगेंगे। अच्छी बात है, सब पढ़े, आगे बढ़े। पर क्या छत्तीसगढ़ के ग्राम्य अंचलों में यह संभव हो सकेगा। पहली बात तो यह वेब पोर्टल ऑनलाइन काम करेगा, दूसरी बात एंड्राइड फोन चाहिए 4 जी डेटा के साथ। यानी अब आप सरकार के पोर्टल ‘पढ़ई तुंहर दुआर’ में पढ़ना चा‍हते हैं तो मोबाइल को अपडेट करने के साथ ही आपको इंटरनेट भी डालना होगा।
शहर के लिये असंभव नहीं है, किन्तु सुदूर अंचल के गांवों के लिये शायद ही यह योजना कारगर साबित होगा। पूर्व सरकार में तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारा मोबाइल बांटने का काम किया गया था। जो शायद कुछ ही लोगो तक पहुंच पाया और सरकार बदल गई। मोबाइल योजना बंद हो गया, पता नहीं जिन्हें मोबाइल मिला वो उपयोग कर रहे हैं कि नहीं भी। बात गांव में बच्चों के मोबाइल उपयोग की करें तो छोटे बच्चे शायद ही रखते हैं और बड़ों के पास केवल बात करने के‍ लिये ही बेलेंस होता है। साधारण सी बात है किसी वेब पोर्टल से यदि आप पढ़ाई करते हैं तो आपको 3 जी या 4 जी स्पीड के साथ चलना होगा तभी आप वीडियो को ठीक तरह से देख पायेंगे। अब इंटरनेट की सेवाएं देने वाली कंपनी की बात करें तो 200 रूपये से कम किसी का भी नहीं हैं वह भी केवल 28 दिन के लिये वैद्य होता है।   
वर्तमान मुख्यमंत्री जी तो जब से देश में लॉकडाउन लागू हुआ है आए दिन वीडियो कॉन्फ्रेस के माध्यम से लोगो से संपर्क बना रहे हैं। हो सकता है उनको यही से प्रेरणा मिला हो की अब बच्चों को इस तकनीक से जोड़ा जाये। चूकि स्कूली बच्चों की परीक्षाएं नहीं हो सकी पढ़ाई बर्बाद हो रहा है। कहा जा रहा है कि इस ऑनलाइन पोर्टल में कक्षा 1 से 10 तक की कक्षाओं के‍ लिये पठन-पाठन सामग्री अपलोड किया गया है। जाहिर सी बात है छोटे बच्चों के लिये ही बनाया गया है। इस योजना के माध्यम से सरकार ने दूर दृष्टता के साथ वर्तमान समस्या का भले ही हल निकाला है किन्तु यह देखने वाली बात होगी की इसका लाभ कहां और कितने लोगों को मिलेगा। छत्तीसगढ़ का मतलब रायपुर, बिलासपुर ही नहीं वरन नारायणपुर और अबुझमाड़ भी है। क्या‍ सुदूर अंचल में छोटे बच्चों के पास ऐसा मोबाइल है जो सरकार के ऑलाइन पोर्टल ‘पढ़ई तुंहर दुआर’ को सुलभ बना सकेगा!
0 जयंत साहू, डूण्डा रायपुर

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