सयाना - लघु उपन्यास

मेरी पहली लघु उपन्यास ‘सयाना’ की पहली कड़ी ...


उस समय हमारे गांव में प्राथमिक कक्षा तक ही पढ़ाई होती थी। बात ज्यादा पुरानी भी नहीं है, बस सरकार ने मीडिल स्कूल खोलने में जरा देर कर दी। आगे की पढ़ाई के लिये हम पास के एक छोटे से कस्बे में जाते थे जो कि महज चार किलोमीटर ही दूर था। नजदीक होने के कारण गांव के सभी लोग पढ़े-लिखे थे। गांव कस्बा से लगा होने के कारण आवागमन का कुछ साधन हुआ करता था। किन्तु हम बस और ऑटो रिक्शा से तो जा नहीं सकते थे और हमारे पास सायकल भी नहीं होती थी। कंधे में थैला लटकाये पैदल ही पैदल स्कूल जाते थे।

पैदल चलने का आनंद ही अलग होता था। मां ने एक दिन मुझसे कहा भी था कि रघु बेटा अपने पिता जी से कहकर एक सायकल क्यों नहीं खरीदा लेता। मैनें सायकल के लिये मना करते हुये कहा- 'मां दोस्तों के साथ गप्पे लगाते स्कूल जाने में जो मजा आता है वो सायकल से अकेले जाने में नहीं। चार किलोमीटर भी भला कोई दूर है। और सड़क भी तो बनने लगा है। कुछ दूर पगडंडी, फिर आधी कच्ची, आधी पक्की सड़क। रास्ते में बेर, इमली और आम आदि के पेड़ भी तो है हमें सुकून देने के लिये। झट से घंटे भर में स्कूल पहुंच जाते हैं। और भला एक सायकल में कितने लोग बैठेंगे दो या तीन। रघु ने मां से विनम्रता पूर्वक कहा मां तू मेरी चिंता मत किया कर जिस दिन मेरे साथियों के पास सायकल खरीदने के लिये पैसे आ जायेंगे उस दिन मैं लेने के लिये जरूर कहूंगा। मां ने दुलारते हुये कहा बेटा बाप से सयाना है।

रघु के पिता जी गांव में खेती का काम करते थे। उनके परिवार में मां और पिता के अलावा एक बड़ी बहन जमुना थी जिसकी शादी पास के ही गांव में हुई है। माता-पिता से जितना प्यार और दुलार मिलता था उनता ही डांट भी। पिता जी सुबह जल्दी उठ जाया करते है, मां से भी पहले। बैल को कोठे से बाहर निकालना, गाय-भैस को कट्टी खिलाना ये उनका सुबह का काम था। इसी काम के लिये मुझे डांट पड़ती थी। रोज-रोज तो नहीं किन्तु जिस दिन पिता जी शहर के बाजार जाते उस दिन मेरी आफत होती थी। सुबह जल्दी उठकर पिता जी शहर जाने से पहले मां से कहकर जाते... जमुना की मां रघु को जल्दी जगा देना और उसे कह देना कि बैल को बाहर कर देगा, गाय-भैस को कट्टी देगा, उसके बाद बाड़ी को भी देख आयेगा। पिता जी मां को जमुना की मां कहकर पुकारते थे और मां पिता जी को रघु के बाबू जी कहती थी।

मां से कहकर पिता जी भोर से पहले ही शहर चले गये। मैं सोते रह गया, न जाने मां ने भी क्यों नहीं जगाया। बैल कोठे से बाहर, गाय-भैस कट्टी खा रही है। ओह... जरूर जमुना दीदी आई होगी। मन प्रसन्नता से भर गया। इधर-उधर देखा दीदी कहीं नहीं दिखी। मैं दौड़ कर बाड़ी की तरफ गया। शादी के बाद भी दीदी बिलकुल नहीं बदली है। मेरे हिस्से का काम वे हमेशा कर देती है और मां-पिता जी के डांट से बचा लेती हैं। दीदी... दीदी, मेरी प्यारी दीदी तुम कब आई। बस तेरे सोनो के बाद और उठने से पहले। दीदी ने प्यार से सिर पर हाथ फेरते हुये कहा। इतने में ही मां की आवाज आई... उठ जा रे रघु बेटा निंद में क्या दीदी... दीदी, बड़बड़ा रहा है। बैल को बाहर निकालना है, गाय-भैस को चारा देकर बाड़ी भी जाना है। ओह! कितना अच्छा सपना देख रहा था। काम भी हो गया था और दीदी से भी मिल लिया। चलो अब मां की आज्ञा का पालन भी जाए। शाम होने से पहले पिता जी भी आ जायेंगे।

घर का काम करना मुझे भी अच्छा लगता था। ऐसे ही मां से ठिठोली कर लेता था कि पिता जी मुझे बहुत काम कराते हैं। और जो काम मुझे करने को कहा जाता है दरअसल वह हमारा संस्कार है। गर्व है कि मैं एक किसान का बेटा हूं। घर का काम जल्दीं–जल्दी करके बाड़ी पहुंचा। बाड़ी में धान की फसल के साथ ही सब्जी की खेती भी करते थे। हम किसानों की दिनचर्या घर से खेत तक ही होती है। समय कैसा कटता है पता नहीं चलता। मेरे पीछे मां भी बाड़ी चली आती थी खाना लेकर। मां का सारा ध्यान मुझ पर ही होता था। बार-बार सिर्फ एक बात दोहराती रहती थी। ये मत कर... वो मत कर, तेरे पिता जी कल कर लेंगे तू बस देखाकर। कभी-कभी मैं मां से रूठ भी जाता था कि क्या मैं काम नहीं सकता। तब मां कहती ‘कर सकता है मेरा सयाना बेटा पर अभी से कितना काम करेगा रे’।

पिता जी के ना रहने से ऐसे ही कटता था हम मां-बेटे का समय। थोड़ा काम थोड़ा बात और हो गई शाम। पिता जी बाजार से बीज और खाद के साथ शाम ढलने से पहले घर आ पहुंच थे। हांथ मुंह धोते हुए पिजा जी मां से कहते- जमुना की मां रघु स्कूल गया था क्या मां कहती- रघु के बाबू जी तुम ही तो काम बता कर जाते हो, कहां समय रहता है स्कूल के लिये। अरे... जुमना की मां तुम भी बस। मैं तो ऐसे ही कह जाता हूं कि तुम्हारा भी ध्यान रहे बेटे पर। चिड़कर मां जोर से कहती- ठीक है ठीक है अगली बार कोई काम नहीं करने दूंगी। स्कूल ही जायेगा तुम्हारा लाडला। पिता जी मुस्कुरा दिए। सभी रात को सभी एक साथ खाना खाए। मैं पढ़ने बैठ गया। मां और पिताजी भी शायद इसलिए जल्दी नहीं सोते क्योंकि मैं जाग रहा हूं। कुछ काम के बहाने वें भी जागते रहते थे।

सच कहूं तो मेरा मन पढ़ाई से कही ज्यादा खेती के काम ले लगता था। पढ़ना भी जरूरी है। घर में सभी कहते है पढ़ लिखकर तुम्हे बड़ा आदमी बनना है। अच्छा काम करना है। शायद वे चाहते थे कि मैं पढ़ लिखकर अच्छी नौकरी या कुछ अन्य काम करूं। मुझे मां और पिता जी के साथ दीदी भी यही बात कहती थी। चलो जैसे-तैसे स्कूल की परीक्षा तो खत्म हो गई, लेकिन जीवन की असल परीक्षा तो अब होनी है। घरवाले चाहते हैं कि आगे की पढ़ाई बड़े शहर में करनी है भले खेती बेचनी पड़ी तो बेच देंगे। न जाने क्यों पिता जी का मां भी साथ दे रही थी। मैं बार-बार उनको समझाता रहा कि हम गांव में रहकर भी अच्छा काम कर सकते हैं। और यहां की पढ़ाई भी अच्छी है। मां और पिता जी को मैं सीधे-सीधे ना भी नहीं कर सकता था। बस इस उधेड़ बुन में लगा रहता था कि कुछ ऐसा हो जाये की घरवाले मुझे बड़े शहर भेजने का विचार मन से निकाल दे।

था तो सयाना, कभी-कभी तो यह भी सोचता था यदि मैं 12वीं फेल हो जाऊं तो। नहीं... नहीं, मुझसे घरवालों की बहुत उम्मीदे है। आखिर 12वीं का नतीजा आया, मैं केवल स्कूल ही नहीं बल्कि कस्बे में अव्वल था। घर में सब खुश थे। गांव वाले तो और तिल का ताड़ करने में लगे थे। तरह-तरह की बातें, कोई कहता रायपुर भेजो, कोई कहता बैंगलोर, कोई दिल्ली। कुछ तो विदेशों के नाम भी सुझा रहे थे। मन ही मन मैं कोसता था ये मेरे अपने है कि दुश्मन। मेरे लाख कोशिशों के बाद एक आखरी आस बंदी थी दीदी से उनसे भी मां पिता की हां में हां मिला दी। अब घर से मेरी छुट्टी पक्की है। वे शहर भेजने की और मैं न जाने की भगवान से मिन्नते कर रहा हूं।
  • कुछ अंतराल के बाद दूसरी कड़ी ..... 


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