छत्तीसगढ़ के संदर्भ में देखा जाए तो अधिकांश पर्व आदिदेव महादेव और माता पार्वती से जुड़ा हुआ मिलता है। जिसे लोकांचल में बुढ़ादेव और बुढ़ीमाई के रूप में पूजा जाता है। गोंडी समुदाय के साथ ही मूल छत्तीसगढि़या जन केवल भोजली नहीं कहते है अपितु ‘भोजली दाई’ संबोधित करते हैं। इससे यह बात भी स्पष्ट होता है कि भोजली सांस्कृतिक आयोजन, मित्रता पर्व अथवा श्रावण हरियाली उत्सव आदि न होकर एक धार्मिक अनुष्ठान है।
भोजली क्या है इस विषय में प्रकाश डाले तो, इसमें किसी विशेष देवी-देवताओं की आराधना नहीं होती है बल्कि एक बांस की नई टोकरी में बोए गये गेहूं, धान, जौ, उड़द की अंकुरित पौध को ही 'भोजली' कहा जाता है।
भोजली को श्रावण मास की पंचमी तिथि के बाद बोयी जाती है। सांस्कृतिक रूप से समृद्ध छत्तीसगढ़ अंचल में कुछ मान्यताओं में विविधता भी होती है। जैसे कुछ क्षेत्र में नागपंचमी के दिन होने वाले अखाड़े की गोदी से मिट्टी लाकर भोजली बोने की परंपरा है। किन्तु सभी गांव में अखाड़े की परंपरा नहीं है अपितु महिलाएं, कुवारी कन्या उपजाऊ माटी में आरूग राख डालकर खाद बनाती हैं और उसमें ही भोजली बोती हैं।
टुकनी में बोये गये बीज से धीरे-धीरे पौध निकलना शुरू होता है। भोजली बोने वाली महिलाएं प्रतिदिन भोजली माता की सेवा गीत के माध्यम से करती है जिसे ‘भोजली गीत’ कहते हैं। यह गीत श्रावण मास के अंत तक चलता है। पारंपरिक भोजली गीत का धुन अब किवदंती हो चुका है। वर्तमान पीढ़ी उस परंपरा को आगे बढ़ाते हुए नव सृजन भी करने लगे हैं। भोजली को माता संबोधित करते हुए लोक में अनेक गीत और कथाएं सुनाई जाती है।
भोजली की सेवा में भोजली गीत के साथ ही घर के अंदर रखे टुकनी में प्रतिदिन हल्दी पानी का छिड़काव करते हैं। रोज पूजा होती है। लगभग जवांरा पर्व की तरह ही भोजली पर्व में भी भक्ति-भावमय अराधना के गीत समुचे छत्तीसगढ़ अंचल में सुनाई देता है।
भोजली का विसर्जन श्रावण मास का अंत होने के साथ ही शुरू हो जाता है। रक्षाबंधन के दूसरे दिन होने के कारण माताएं, बहने भी इस भोजली विसर्जन में शामिल होती हैं। बांस के टुकनी में बोए गये भोजली को सिर पर रखकर कतारबद्ध जुलूस के रूप में घर से तालाब, जलाशय, नदी में विसर्जित करने के लिये निकाला जाता है। इस दौरान भी भोजली गीत गायी जाती है। भोजली को सरोवर में धोकर, मिट्टी से अलग हुए हरी-पीली गेहूं की पौध को उसी टुकनी में रखकर घर वापस लाया जाता है।
इस दिन भोजली बधने का रिवाज भी होता है। भोजली एक मित्रता का नाता है जिसे हमउम्र कन्या या विवाहित स्त्री भोजली की कुछ कली को एक दूसरे के कान में खोच कर बधती हैं। साथ ही भोजली की कुछ कली को घर के बड़ों को देकर उनसे आशीर्वाद लेते है, तो वहीं घर के बड़े-बुजुर्ग भी छोटो को देकर आशीष देते हैं। छत्तीसगढ़ के जैसा मितानी परंपरा देश में कहीं और नहीं हैं। भोजली बधने वाले जीवन भर एक दूसरे को नाम से नहीं पुकारते हैं। वे ‘भोजली’ कहकर ही संबोधित करते हैं। ये मित्रता का रिश्ता केवल उन्हीं दो महिलाओं के बीच नहीं होता बल्कि इसे घर के सभी लोग भी जीवनभर निभाते हैं।
भोजली गीत-
- भोजली पर्व कब मनाया जाता है
- भोजली त्यौहार क्यों मनाया जाता है
- भोजली गीत देवी गंगा
- भोजली गीत के बारे में
- भोजली गीत किसके द्वारा गाए जाते हैं
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