निजी स्कूल शिक्षक कैसे मनाये दिवाली? स्कूल, ट्यूशन बंद

निजी स्कूल शिक्षक

कोरोना संक्रमण के कारण होली से दीवाली तक की छुट्टी ने सबसे ज्यादा निजी स्कूल के शिक्षकों की हालत खराब कर दी है। कहते हैं कि कोविड-19 वायरस से मुंह का स्वाद चला जाता है। यहां तो मुंह में निवाला ही नहीं जा रहा है तो स्वाद का सवाल ही नहीं उठता। मार्च से नवंबर तक न जाने कितने त्योहार यूं ही निकल गया। आज भी लोग दिवाली मनाने के लिए उत्साहित है, खरीददारी कर रहे हैं, ऐसे में निजी स्कूलों में काम करने वाले शिक्षक सहित अन्य स्टाफ गरीबी नामक भयंकर वायरस के संक्रमण से जंग लड़ रहे है। 

भला कैसे मनाये निजी स्कूल शिक्षक दिवाली? स्कूल, ट्यूशन बंद। एक तरफ पालक गरिया रहा है तो दूसरी तरफ प्रशासन की बेड़ियां और स्कूल प्रबंधन की मजबूरियां। छत्तीसगढ़ माध्यमिक शिक्षा मंडल से मान्यता प्राप्त निजी स्कूलों में शासकीय स्कूल से भी ज्यादा योग्य, काबिल और मेहनती शिक्षक नौकरी करते हैं। निजी स्कूल के शिक्षक की योग्यता और काबिलियत पर इसलिए भी आपको भरोसा करना होगा क्योंकि तमाम शासकीय नौकरी पेशे अधिकारी-कर्मचारियों की संतानें निजी स्कूलों में पढ़ते हैं।

यहां तक की शासकीय स्कूलों में पढ़ाने वाले शिक्षक भी अपने बच्चों को निजी स्कूंल में पढ़ाते है। अब तो आप निजी स्कूल के शिक्षक की योग्यता पर सवाल नहीं उठा सकते। विषम परिस्थिति में कही नौकरी न चला जाए इस डर से कोरोना काल में भी काम करते रहे। जिसका पैसा अब तक नहीं मिला। आपको तो लॉकडाउन से कोई फर्क नहीं पड़ा, आपके खाते में बराबर पैसा आता रहा। फिर भी क्यों आप निजी स्कूल शिक्षक, प्राइवेट ट्यूशन टीचर के बारे में नहीं सोचते।  

सभी निजी स्कूल शिक्षकों का एक ही दर्द है कि बेरोजगारी की मार झेलते प्राइवेट जॉब से ही गुजारा चला रहे थे अब वह भी नहीं रहा। प्रशासन और पालक स्कूल प्रबंधन पर थोप रहे है कि क्या अपने स्टाफ को वे बैठे-बैठे तनखा नहीं दे सकते। आखिर प्रबंधन भी कहां से पैसा दे, उनको फीस आने पर ही तो स्टाफ को देगा। कुछ पालक तो पिछले वर्ष का पूरा शुल्क भी नहीं देना चाहते क्योकि स्कूल में परीक्षा हुई ही नहीं। कोरोना के संक्रमण के फैलाव से कहीं ज्यादा पालकों के दबाव ने निजी स्कूलों की कमर तोड़ दी, परिणाम यह हुआ की शिक्षक सहित अन्य स्टाफ बेरोजगार हो गये। आज स्थिति ऐसी है की भूखों मरने की नौबत आ चुकी है, कोई सुध लेने वाला भी नहीं है। 

निजी स्कूल शिक्षकों की परवाह न करने वाले पालक ये भली भांति जानते है कि उन्होने अपने हैसियत और सुविधा के अनुसार स्वयं ही प्राइवेट स्कूल चुना है। अपने स्टेटस और आधुनिक शिक्षा सुविधा के लिए निजी स्कूल का चुनाव करने के बाद प्रबंधन को फीस के लिये रूलाना कतई शोभा नहीं देता। फीस आपके पहुंच की होती है, पूर्व से आपको जानकारी रहती है फिर भी जेब में डाका कहा जाता है। बहरहाल यह तो पालक और प्रबंधक के बीच की बात है जिसमें नाहक ही शिक्षक पीस जाता है।

आज जब आठ माह बाद सभी का कुछ न कुछ शुरू हो चुका है ऐसे में निजी स्कूल और वहां काम करने वाले शिक्षक सहित अन्य स्टाफ के विषय में भी मानवता के नाते विचार किया जाना चाहिए। जिस भी माध्यम से पालक निजी स्कूल शिक्षकों की मदद कर सके तो जरूर करें। सरकार भी स्कूलों को कोविड-19 गाइड लाइन के साथ खोलने की अनुमति दे जिससे प्राइवेट स्कूलों में काम करने वालों का जीवन चल सके। 
- जयंत साहू, रायपुर

सुवा गीत-नृत्य : महादेव और पार्वती के विवाह संदेश को घर-घर पहुंचाने की लोक परंपरा

सुवा गीत-नृत्य
सुवा गीत-नृत्य

छत्तीसगढ़ में दिपावली के अवसर पर गाये जाने वाले 'सुवा गीत' के संदर्भ में विशेष आलेख

छत्तीसगढ़ में कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की पंचमी तिथि के बाद से गांव की महिलाएं टोली बनाकर घर-घर नृत्य करने जाती हैं जिसे सुवा नृत्य अथवा गीत कहा जाता है। तरी हरि नाना मोर नहा नरी नाहना रे सुवाना... का अनुगूंज लोकांचल में मनोरंजन के साथ भक्ति की अविरल परंपरा की प्राचीनता का बोध कराता है। सुवा एक प्रकार की पक्षी है जिसे अन्य प्रांतों में शुक, तोता, मिट्ठू, सुग्गा, दाड़िमप्रिय, तुंड, पोपट आदि नामों से भी जाना जाता है। सुवा अर्थात तोता का उपयोग संदेश भेजने के लिए प्राचीन समय से किया जाता रहा यह तो सर्वविदित है, किन्तु यह परंपरा छत्तीसगढ़ में पुरातन काल से चली आ रही है। 

सुवा ही एक ऐसा पक्षी है जिसे नारी अपनी मन की बात कहती हैं और वह उनके प्रेयसी के पास जाकर हूबहू वही कथन दोहराता है। शायद इसी आधार पर कुछ विद्वान सुवा गीत को नारी विरह वेदना के गीत के रूप में परिभाषित किये हैं। पारंपरिक गीतों के अलावा, बाद के जो गीत आज के दौर के गीतकारों ने लिखे उसमें केवल नारी विरह और स्त्रियों की दशा को रेखांकित किए गए है। बहरहाल इन सब में सुवा और नारी ही मुख्य केंद्र बिन्दु रहा है। अब इसे छत्तीसगढ़ के आदिम परंपरा के नजरिये से देखे तो केवल नारी विरह का गीत न होकर माता पार्वती और आदिदेव महादेव के विवाह संस्कार से जुड़ा मिलता है। 

इस विषय में छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ साहित्यकार सुशील भोले, चंद्रशेखर चकोर, गोविंद धनगर और जयंत साहू आदि कहते हैं कि सुवा गीत गौरा-गौरी के विवाह के आमंत्रण का गीत है। पारंपरिक गीतों के शब्द, नृत्य की शैली और प्रस्तुतिकरण विवाह के संस्कार को दर्शाता है। महिलाएं मिट्टी की शूक बनाकर, टोकरी में सजाकर रखती हैं। औरतें उसे सिर पर रखकर गांव में घर-घर जाती हैं, जिसे सुग्गी कहा जाता है। दस-बारह की टोली में महिलाएं गोल घेरा बनाकर गीत गाती हुई नृत्य करती हैं। टोकरी में बिठाये सुवा के बीच दीपक भी जलाती हैं। गायन के दौरान इस टोकरी को बीच में रखकर, हाथों से ताली या लकड़ी के चटके की ताल में गोल-गोल घुम कर नृत्य किया जाता हैं। घरवाले सुवा नाचने वालों को सेर-चाउर अर्थात चावल, रूपये-पैसे देकर विदा करते हैं। बदले में सुवा नृत्य की टोलियां उनके परिवार के लिए सुख, समृद्धि की कामना करते हुए आशीष देते हैं। इस नृत्य में उपहार स्वरूप मिले पैसे या अनाज का उपयोग वे गौरा-गौरी के विवाह उत्सव में करती हैं। 

आदिवासी गोड़ समाज द्वारा प्रमुखता से मनाया जाने वाला गौरा-गौरी का पर्व अब सर्व छत्तीसगढ़िया समाज उत्साह के साथ पारंपरिक तरीके से मनाता है। विविध सांस्कृतिक विरासतों से परिपूर्ण धान कटोरा छत्तीसगढ़ में परंपरा और मान्यताएं 'कोस-कोस में पानी बदले, चार कोस में वाणी' कहावत की तरह सुवा गीत नृत्य में भी विविधता साफ दिखाई पड़ती है। गौरा-गौरी के साथ सुवा गीत-नृत्य बंद नहीं होता बल्कि कार्तिक देवउठनी एकादशी या पूर्णिमा तक भी चलता है। इसी से जुड़ी एक और लोक परंपरा है जिसमें कार्तिक मास में सूर्योदय से पूर्व स्नान कर कुंवारी कन्याएं महादेव की पूजा आराधना करती हैं। इसे कातिक नहाना कहा जाता है। ऐसी मान्यताएं है कि माता पार्वती भी आदिदेव को पति रूप में पाने के लिए कार्तिक मास में महादेव की आराधना किया करती थी।   

गौरा चौंरा में फूल कुचरने की परंपरा के साथ गोड़ समाज शिव-पार्वती विवाह की तैयारी में जुट जाता हैं। गाजे-बाजे के साथ मिट्टी लाने जाते हैं। रातभर गौरा-गौरी बनाते है, और अन्य सभी समाज मिल-जुल कर गौरा-गौरी को परघा कर लाते हैं। तत्पश्चात कार्तिक अमावस्या को ही पूरी विधी विधान के साथ माता पार्वती और आदिदेव महादेव का विवाह संपन्न कराया जाता है। रातभर गाजे-बाजे के साथ पूजा और सेवा का दौर चलता रहता है। सुबह बारात निकालकर गांव घुमाते है और अंत में उन्हें तालाब में विसर्जित किया जाता हैं। इसे गौरी-गौरा या गौरा पूजा पर्व भी कहा जाता है। साहित्यकार सुशील भोले जी कहते हैं कि सुवा नृत्य का संबंध इसी से है, जो एक प्रकार से महादेव और पार्वती के विवाह का घर-घर निमंत्रण या संदेश देने का काम करते है। गौरी-गौरा पर्व और सुवा गीत-नृत्य की शुरूआत के संदर्भ में यह भी कहा जाता है कि जब यहां कि सभी मूल संस्कृति सृष्टिकालीन संस्कृति है तो इसका अर्थ यही हुआ कि सुवा गीत-नृत्य का शुरूवात भी सृष्टि काल से हुआ है। 

- जयंत साहू, रायपुर छत्तीसगढ़

दिग्गज अभिनेता इरफान खान नहीं रहे

भारतीय सिनेमा के एक दिग्गज कलाकार इरफान खान का असमय जाना आंखो को यकीन नहीं होता। क्या सच में अपने करोड़ों चाहने वालों को रूला गया इरफान, हां यही जिंदगी का हकीकत है, वें अब हमारे बीच नहीं रहे। टेलीविजन से बॉलीवुड और हॉलीवुड तक में उनको उनके किरदार के नाम से जाना जाता है। यह एक कलाकार के लिये बहुत बड़ा सम्मान है। उनका हर किरदार यादगार रहा है जिसे लोग कभी नहीं भूल पायेंगे। अनेक फिल्मफेयर पुरस्कार और सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के तौर पर फिल्म 'पान सिंह तोमर' के लिए राष्ट्रीेय पुरस्कार पाने वाले इरफान खान को भारत सरकार द्वारा पद्मश्री सम्मान से भी नवाजा जा चुका है। हमेशा लीक से हटकर धीर और गंभीर आंखों से अभिनय कर दर्शकों पर अमिट छाप छोड़ने वाले महान कलाकार को हमारी विनम्र श्रद्धांजलि।

सयाना - लघु उपन्यास

मेरी पहली लघु उपन्यास ‘सयाना’ की तीसरी कड़ी ...

अरे... आज तो बहुत देर तक सोता ही रह गया। सूरज मुहाने तक आ पहुंचा है। लगभग सात बजने को आया होगा। कभी इतनी देर तक सोया नहीं। किन्तु आज, शायद मन से चिंता की लकीर हटी इस वजह से सात बजा। मां और पिताजी अपने-अपने काम में व्यस्त हैं। रसोई से आवाज आ रही है... हॉं मां आया। शायद मां चाय के लिये मुझे ही पुकार रही होंगी। हमारी रसोई सुबह के पांच बजे से ही शुरू हो जाता है। बिना दूध की गुड़ वाली चाय के साथ। घर में गाय, भैस, बकरी सभी का दूध होता है लेकिन हमें काली चाय ही भांता है। पिताजी तो चाय पीकर बाड़ी भी जा चुके होंगे।

क्यों मां.... आज तुमने मुझे जागया नहीं। 
मां ने मुस्कुराते हुए कहा- क्या  करेगा रघु जल्दी उठकर। तेरे लायक कुछ काम भी तो नहीं। ...काम कैसे नहीं है। घर में तुम्हारा हाथ बटा सकता हूं और बाड़ी में पिताजी का भी। रघु बेटा अब तू ये सब काम में ध्यान न दिया कर मेरे सयाना बेटा तुम्हे तो अभी बहुत बड़ा-बड़ा काम करना है। मां का भी कुछ समझ में नहीं आता है। जितना मुंह से कहती है उससे अधिक तो उनके मन में बात होता है।

आज तो मैं मां की मन की बात जानकर ही रहूंगा। अच्छा अवसर है, पिताजी घर में नहीं है। मैने होसियारी से बात शुरू करनी चाही किन्तु। उसने ठिठोली कर दी। कौन सा बड़ा काम करना है मां। मां ने झट से कहा... नहाना है, खाना है, खेलना है और क्या। मैने बात कहां से शुरू की और मां बात को कहां पहुंचा रही हैं। चलिए फिर कभी जानेंगे मां की मन की बात। आज तालाब में नहाने का आनंद ले आते है।

मैने मां से कहा- घर के कुएं और बाड़ी के बोर से बहुत नहां लिया, आज तालाब का आनंद लेकर आता हूं। आश्चर्य हुआ मां ने रोका न टोका। खुशी से तालाब में नहाने की अनुमति देदी। पहले ऐसा नहीं होता था। मेरे उठते ही मां कुएं से पानी भर कर रख देती थी। यदि बाड़ी में होता था तो बोर के पास बाल्टी और साबुन रख आती थी। कहती थी कहा तालाब जायेगा बेटा घर में कुएं-बोर है, यही नहा। चलो भई कुछ दिन और लाड कर लो मां अपने लाडले से। मेरे साथ शायद हलाल होने से पहले बकरे की आवभगत वाली घटना हो रही है। देर तक सो रहा हूं। किसी भी काम के लिए इंकार नहीं किया जा रहा है। मेरी पसंद ना पसंद का ख्याल रखा जा रहा है। जल्दी नहाकर आ जाता हूं। रसोई से मेरे मन पसंद इलहर कड़ी की खूशबू आ रही है।

गांव के तालाब में नहाने जाने से बहतु से काम एक साथ निपट जाते है। नित्यकर्म, स्नान के साथ ही कई बातों का ज्ञान तालाब से ही होता है। मेरे तालाब जाने के एक कारण यह भी था कि गांव का हालचाल जान सकूं। मैनें घर से एक टावल के अलावा साबुन आदि कुछ भी नहीं रखा। गांव तालाब के पीछे के हिस्से में हुआ करता था। चूकि मैं देर से पहुंचा था सो गांव के बड़े बुजुर्ग नहां चुके हैं। अभी जो लोग तालाब में दिखाई दे रहे हैं। सब मेरे जैसे निठल्ले लग रहे हैं। मैं तालाब पहुंचते ही सबसे पहले नित्यकर्म से हो आया। डब्बा, लोटा, बाल्टी आदि की जरूरत होती है लेकिन वहां सब मिल जाता है। एक आदमी के डब्बा से कई लोग उसके स्नान करते तक निपट जाते हैं।

उधर से ही नीम का दातून और काली मिट्टी लेकर आया था। मैं दातून चबाते-चबाते घाट पर बैठे लोगों की बाते सुन रहा था। हम उम्रों की टोली जमी है। बिंदास बातों के बीच-बीच हंसी ठहाका भी गुंज रहा है। बाजार में सब्जी का भाव, क्रिकेट का स्कोर, नई फिल्म का स्टोरी सुबह-सुबह ही तालाब से साझा होनी शुरू हो जाती है। घर-घर की कहानी को थोड़ा सस्पेंस के साथ और लड़की-लड़का की बात रोमांच के साथ सुनाया जाता है।

अरे सुन... सुन चम्पा की शादी हो गई है। क्या... हां हां। मैं तो उससे मिला भी था। बाजार में अपनी पति के साथ घूम रही थी। शायद ये लोग पटवारी की लड़की चम्पा के बारे में बात कर रहे हैं। मैं तो उनको जानता हूं, पास के गांव की है। कभी-कभी स्कूल आते-जाते रास्ते में मिलती थी। पढ़ाई में बहुत ही अच्छी थी। कुछ भी कठनाई होती थी तो बेझिझक मुझसे मदद मांगती थी।

चम्पा की शादी के विषय में जानकर प्रसन्नता के साथ दुख भी हुआ। दुख इस बात का कि चम्पा आगे पढ़ाई करना चाहती थी जोकि अब संभवत: नहीं पढ़ पायेगी। गांव में शायद ही कोई लड़की 18 से ऊपर की बची होगी। लड़कों की जमात में 22-25 तक मिल ही जाते हैं। कुछ मेरे जैसे। अब तक उन निठल्लों की नजर मुझ पर पड़ चुकी थी। एक ने कहा- बड़े दिनों बाद दिखा रघु तालाब में। दूसरे ने कहा- शायद रघु शहर जाने से पहले गांव की याद ताजी करने आया होगा। शहर जा रहा है तो याद ताजी करने की क्या जरूरत। अरे भाई तुम समझे नहीं। आगे कॉलेज की पढ़ाई करने शहर जा रहा है। कहां, कब, क्यों, कैसे जैसे सवालों की बौछार शुरू। मैंने कहा अभी कोई तय नहीं किया हूं। जाऊंगा तो सभी को बता कर ही, चिंता मत करो। तुम लोगों को भी भला भूल सकता हूं क्या। मैं मन ही मन सोचा ये तालाब भी बड़े काम का स्थान है यहां गांव क्या, गांव के बाहर की भी सूचनाएं मिलती है। मानना पड़ेगा इनके सूचनातंत्र को।

मेरे मन में आया की क्यों न यही से ज्ञान प्राप्त किया जाए। मनोज तो मेरा सहपाठी भी रहा है 10वीं कक्षा तक, उन्हीं से पूछ लिया जाए। क्यों मनोज तुम्हारे मामा का लड़का भी तो बाहर पढ़ने गया था। कहां है और क्या कर रहा है आजकल। मनोज ने गुस्से से कहा मत पुछ भाई उस कमीने ने तो पूरा घर को बरबाद कर दिया। कैसे... क्या हो गया। मेरे नाना जी ने पढ़ाई के लिये उसको बाहर भेजा था। बाहर पढ़ाने में सक्षम न होने के बाद भी मामा ने घर की संपत्ती बेचकर उसे पढ़ाया। खेत को भी गिरवी रखा था इस आस में की बेटा पढ़ लिखकर आयेगा तो फिर से खेत को छुड़ा लेंके। घर परिवार के सपनों को मिट्टी में मिला दिया उस इंसान ने। घर लौटकर ही नहीं आया। सुना हूं कि वही किसी से शादी कर लिया और गाड़ी बंगला सब कुछ ले लिया है। घर वालों को पुछता भी नहीं है कि कैसे है। शर्म की बात है बेटा बाहर एसो आराम के साथ जी रहा है और मां-बाप रोजी मजदूरी करके जीवन यापन कर रहे हैं।

थू है ऐसी पढ़ाई पर जो मां-बाप को छुड़ा दे। मां-बाप अपने बच्चों को इसलिए पालन पोषण कर बड़ा करते है कि उनको बुड़ापे में सुख मिले। यहां तो बेटे बाहर पढ़ने के बाद गांव आना नहीं चाहते हैं। उस मिट्टी को भूल जाते हैं जहां खेले, जहां का उपजा अन्न खाएं। कम से कम अपने मां-बाप का तो ख्याल करना चाहिए। मनोज की बात सुनकर मुझे भी बहुत दुख हुआ। मनोज का नाना बहुत ही मजाकिये इंसान थे। कभी-कभी आते थे मनोज के यहां तो आस पड़ोस से भी मिले बिना नहीं जाते थे।

मुझे तो और भी दुख हुआ मनोज के मामा के लड़के के बारे में जानकर क्योंकि मैं भी बाहर पढ़ने जाने वाला हूं। मनोज जब भी अपने मामा के लड़के को कोसते, गाली देते थे तो मुझ़े ऐसा लगता था मानो मुझे दे रहे हो। कुछ लोगों ने तो यहां तक बताया की गांववालों को वें मजदूर और नौकर संबोधित करते थे अपने दोस्तों के सामने। क्यां ऐसा भी औलाद हो सकता है दुनिया में, जो अपने दोस्तों के सामने अपना कद ऊंचा करने के लिये मां-बाप को नौकर बताए।

... कही मैं भी शहर जाने के बाद बदल गया तो क्या होगा मेरे मां-बाप के सपनों का। कहते है कि जो लोग गांव से शहर जाते है वे लौटकर फिर गांव नहीं आते। कुछ तो सच्चाई है इस बात में। मैंने भी देखा है जो शहर गये है वे गांव आना नहीं चाहते है। तर्क भी देते है कि इतना पढ़ने के बाद गांव में फिर वही काम करना है तो फिर इतनी पढ़ाई का क्या फायदा। ये बात भी सही है। मैं... भी। ... शहर न आऊं तो। ना ही जाऊं तो ज्यादा अच्छा है। एक बार फिर मां और पिताजी से इस विषय पर चर्चा करने में क्या हर्ज है।

अब मुझ़े उन लोगों की बातें सुनने का मन नहीं हो रहा है। जितना जल्दी हो नहां कर घर जाऊंगा। मेरे साथ सभी की नहाने की गति बड़ गई। काली मिट्टी को शरीर में लगाकर, छोड़ी तैराकी करके तालाब से हम बाहर निकल गये। तालाब से घर तक रास्तेभर तरह-तरह की बातें सुनते-सुनाते रहे। विषय केवल एक ही था गांव से पढ़ने शहर गया लड़का। किसी ने भी साकारात्मक बात नहीं कही। अब मेरा मन भी डगमिग-डगमिग डोल रहा है, नदी में नाव की भांति। बात तो चिंता की है... कहीं मैं सचमुच बदल गया तो। गुनते-गुनते घर पहुंच चुके। खाना खाते-खाते मां से आज इस बात पर चर्चा जरूर करूंगा। 

  • कुछ अंतराल के बाद चौथी कड़ी ...

सयाना - लघु उपन्यास

मेरी पहली लघु उपन्यास ‘सयाना’ की दूसरी कड़ी ....


मई का महीना है। घर में बिजली, पंखा होने के बावजूद हम उनके आदी नहीं है। वैसे भी गरमी के दिनों में बाहर खाट निकाल कर सोने का आनंद ही अलग होता है। खुला आकाश में उड़ते बादलों के बीच चमते तारें देखेना। शांत खड़े पेड़ की ओर से झरझर हवा। पंछियों की चहलकदमी। सोने से पहले और जागते दिखता है।

सभी का बिस्तर घर में बरामदे में लगा हुआ है। तुसली के पौधे के लिये बने चभुतरे में एक छोटा सा दीपक जल रहा है। टिमटिमाती दीये की रोशनी आंगन में लगे अनार, अमरूद, पपीता और आम के पेड़ तक हल्की-हल्की पहुंच रही है। मैं बिस्तर में ही लेटे उन फलों को छू लेने की अनुभूति पा रहा हूं। अनार थोड़े अधपके है, अमरूद और पपीता बहुत ही छोटे है। पर आम को तो देखकर ही खाने को मन करता है। पहले चख लेते हैं... बाद में देखा जाएगा छोटा-बड़ा और कच्चाख-पक्का। घर हो या बाड़ी, किसी भी पेड़ में लगे पहले फल का स्वाद मैं ही सबसे पहले लेता था। और मेरे बाद जमुना दीदी...। अब मेरे ना रहने से जाने कौन चखेगा इनके फलों का स्वाद।

नींद भी तो नहीं आ रही है। बार-बार घर छोड़ने का ख्याल आने मात्र से ही मन दुखी हो जा रहा था। मैं घर छोड़कर जा पाऊंगा भी की नहीं। यदि मां और पिता जी का यही अरमान है तो मुझमें उनके सपनों को तोड़ने का साहस भी तो नहीं है। चाहे कुछ भी हो, मेरे जाने या न जाने का आखरी फैसला भी वही करेंगे इतना तो तय है।

एक कोने में मेरा खाट और दूसरी ओर कुछ ही दूरी पर मां और पिता जी सोए थे। शायद जाग वे रहे थे। और मेरी ही तरफ देख रहे थे। उनको भान था कि मैं जाग रहा हूं। वे मुझे बिना सुलाये सोते भी कहां है। मेरे आंखों में जागते हैं, सोते हैं, क्या वे मेरे बिना वो अकेले रह लेंगे। मां पिताजी बार-बार मेरे ही बदलते करवट और सरकते तकीये को ताक रहे थे। कुछ देर बाद मैंने सोने का ढोंग किया और मुंह टावल से ढक लिया।

धीरे से मां की आवाज आई लगता है.. सो गया है। पिताजी ने कहा हां...। रघु के बिना हम भी अकेले नहीं रह पायेंगे जमुना की मां। तो फिर भेजना क्यो चाहते हो... मां ने कहा। जमुना की मां क्या तुम नहीं जानती। 'उस दगाबाज ने क्या किया हमारे साथ। आखिर क्या कमी थी हमारी बेटी में। सुंदर, गुणवती बिटिया को सिर्फ इसलिए शादी से इंकार किया की हम उनसे कम पढ़े लिखे हैं। मुझे जो चाहे कह लेते लेकिन मेरी बेटी के साथ जो उन्होने किया वह मैं कभी नहीं भूल सकता'। तुम्हे भी याद है न मेरी कसम...। 'सोमनाथ तुम्हे‍ बहुत घमंड है ना अपनी नौकरी और पढ़ाई पर। देखना जब मेरा बेटा पढ़ लिखकर तुम से भी बड़ा आदमी बनेगा'। 

अरे क्या-क्या नहीं किया था मैने और मेरे परिवार ने तेरे लिये। कहना तो नहीं चाहिए लेकिन एक छोटे से किराने की दुकान के भरोसे तुम और तुम्हारा परिवार बिना हमारे सहारे जी भी नहीं पाते। तुम लोगों की हालत देखकर मेरी मां अक्सेर कहा करती थी कि बेटा रामनारायण उस किराने वाली के बेटे सोमनाथ को भी कुछ खाने को दे आ। मेरे घर रोज दो रोटी ज्यादा बनती थी तेरे कारण। कपटी तो तू शुरू से ही था सोमनाथ। जब भी किराने वाली चाची मेरे लिये कुछ भेजती थी कि रामनारायण को दे आना कहकर तो सब कुछ आधा रास्ते स्वयं ही खा लेता था। फिर भी मैं दोस्ती निभाता रहा। तेरी गलती को शरारत समझ भुलता रहा। मैं एक घटिया आदमी को अपना पक्का दोस्त मानता था। तुम्हारी और मेरी मां की तरह गांव वाले भी भोले थे जो सोमनाथ और रामनारायण की दोस्ती के कसीदे गढ़ते थे। 

...मां को पिता जी अपनी और किसी सोमनाथ के बारे में बता रहे हैं। आज उस आदमी के नाम से पिताजी को पहली बार इतना क्रोधित देख रहा हूं। मैं बिस्तर में ही लेटे उनकी बातें सुन रहा था। आगे मां कहती है हां रघु के बाबू जी सासु मां भी उनको बेटे जैसा ही मानती थी। चार पैसे कमा कर बड़ा आदमी क्या बना हमें तो कुछ समझते ही नहीं। आदमी पैसों से नहीं इमान से बड़ा होता है जमुना की मां। हम क्या कम है उनसे। पढ़ लिखकर पर की नौकरी ही तो कर रहा है। नौकरी न रहे तो खाने को लाले पड़ जायेंगे। हमें देखो खुद की खेती कमाकर औरों का भी पेट भर रहे हैं। सच कहू तो खेती में ही सुकून मिलता है जमुना की मां। मैं मन ही मन उनकी बातों को सुन कर सोच रहा हूं। जब पिताजी खेती को इतना महत्व देते हैं तो मुझे बाहर पढ़ने क्यों भेजना चाहते हैं। तभी पिताजी ने मां को गर्व से कहा देखना मेरा बेटा रघु ही उनका गुरूर तोड़ेगा। अब बात कुछ-कुछ भेजे में आ रही है कि मुझे बाहर पढ़ाना क्यो चाहते हैं।

बताते है कि सोमनाथ जो कि पिताजी के दोस्त थे। साथ में खेलेकूदे और बड़े हुए। उनके पिताजी के गुजर जाने के बाद मां के साथ हमारे गांव में मजदूरी करने आई उसकी मां। उनकी मां बीमारी होने के कारण ज्यादा मेहनत का काम नहीं कर पाती थी। दुखिया और बेसहारा जानकर मेरी दादी ने गांव में उनको किराने की दुकान खोलने में मदद की। यहां तक सोमनाथ की पढ़ाई लिखाई का खर्चा भी उठाया। उनके पास गांव में कुछ नहीं था कमाने के लिये। पढ़ा लिखकर मां का किराना दुकान नहीं चलाना चाहता था। पढ़ाई खत्म करके उसने नौकरी करने की सोची। और पिता जी ने पुरखों की खेती को संभाला। शहर में उसे अच्छी नौकरी मिल गई। कुछ दिन बाद अपनी मां को भी शहर बुला लिया। दिन बदल गया। दोनो दोस्त बाल-बच्चो वाले हो गये। सोमनाथ की मां अधिक दिनों तक बेटे बहु के साथ शहर का सुख नहीं ले पायी और चल बसी। 

वें लोग कभी-कभी गांव आते था जब हमारी दादी जिन्दा थी। एक दिन दादी ने कहा- बेटा सोमनाथ तेरा बेटा भी बड़ा हो गया है और रामनारायण की बेटी भी सयानी हो गई है क्यों न दोनो समधी बन जाओ। दोस्ती को रिश्तेदारी में बदल लो। आना जाना बढ़ेगा। तुम्हारी मां की आत्मा को भी शांति मिलेगी। अब यही मेरी भी आखरी इच्छा मान लो। उस समय तो सोमनाथ ने हामी भर दी। मगर दादी के बीत जाने के बाद जो बखेड़ा हुआ उसके बाद तो पिताजी को दोस्ती पर से विश्वास उठ गया। 
जिस तरह से सोमनाथ और उनके परिवार का व्यवहार बदला इसे दिखकर रामनारायण भी अपनी बेटी नहीं देना चाहते थे किन्तु मां की आखरी इच्छा पूरा करने के लिये अपनी बेटी जमुना का हाथ देने को तो तैयार थे। सगाई तय करने ही वाले थे कि एक दिन सोमनाथ का संदेश आया कि वे गांव की कम पढ़ी लड़की को अपनी घर की बहु नहीं बना सकता। पिताजी को बड़ा दुख हुआ। इतना सब जानकर गुस्सा तो मुझे भी बहुत आ रहा था। क्या ऐसे भी लोग होते है जो बचपन के किये एहसानों को भुला देते हैं। अब समझा की पिताजी मुझे बड़े शहर में क्यों पढ़ाना चाहते है। न जाने मां और पिताजी के बीच आगे और क्या बात हुई होगी। मैंने जैसे ही अपनी शहर जाने का कारण समझा मुझे नींद आ गई, मैं सो गया।

  • कुछ अंतराल के बाद तीसरी कड़ी ...

सयाना - लघु उपन्यास

मेरी पहली लघु उपन्यास ‘सयाना’ की पहली कड़ी ...


उस समय हमारे गांव में प्राथमिक कक्षा तक ही पढ़ाई होती थी। बात ज्यादा पुरानी भी नहीं है, बस सरकार ने मीडिल स्कूल खोलने में जरा देर कर दी। आगे की पढ़ाई के लिये हम पास के एक छोटे से कस्बे में जाते थे जो कि महज चार किलोमीटर ही दूर था। नजदीक होने के कारण गांव के सभी लोग पढ़े-लिखे थे। गांव कस्बा से लगा होने के कारण आवागमन का कुछ साधन हुआ करता था। किन्तु हम बस और ऑटो रिक्शा से तो जा नहीं सकते थे और हमारे पास सायकल भी नहीं होती थी। कंधे में थैला लटकाये पैदल ही पैदल स्कूल जाते थे।

पैदल चलने का आनंद ही अलग होता था। मां ने एक दिन मुझसे कहा भी था कि रघु बेटा अपने पिता जी से कहकर एक सायकल क्यों नहीं खरीदा लेता। मैनें सायकल के लिये मना करते हुये कहा- 'मां दोस्तों के साथ गप्पे लगाते स्कूल जाने में जो मजा आता है वो सायकल से अकेले जाने में नहीं। चार किलोमीटर भी भला कोई दूर है। और सड़क भी तो बनने लगा है। कुछ दूर पगडंडी, फिर आधी कच्ची, आधी पक्की सड़क। रास्ते में बेर, इमली और आम आदि के पेड़ भी तो है हमें सुकून देने के लिये। झट से घंटे भर में स्कूल पहुंच जाते हैं। और भला एक सायकल में कितने लोग बैठेंगे दो या तीन। रघु ने मां से विनम्रता पूर्वक कहा मां तू मेरी चिंता मत किया कर जिस दिन मेरे साथियों के पास सायकल खरीदने के लिये पैसे आ जायेंगे उस दिन मैं लेने के लिये जरूर कहूंगा। मां ने दुलारते हुये कहा बेटा बाप से सयाना है।

रघु के पिता जी गांव में खेती का काम करते थे। उनके परिवार में मां और पिता के अलावा एक बड़ी बहन जमुना थी जिसकी शादी पास के ही गांव में हुई है। माता-पिता से जितना प्यार और दुलार मिलता था उनता ही डांट भी। पिता जी सुबह जल्दी उठ जाया करते है, मां से भी पहले। बैल को कोठे से बाहर निकालना, गाय-भैस को कट्टी खिलाना ये उनका सुबह का काम था। इसी काम के लिये मुझे डांट पड़ती थी। रोज-रोज तो नहीं किन्तु जिस दिन पिता जी शहर के बाजार जाते उस दिन मेरी आफत होती थी। सुबह जल्दी उठकर पिता जी शहर जाने से पहले मां से कहकर जाते... जमुना की मां रघु को जल्दी जगा देना और उसे कह देना कि बैल को बाहर कर देगा, गाय-भैस को कट्टी देगा, उसके बाद बाड़ी को भी देख आयेगा। पिता जी मां को जमुना की मां कहकर पुकारते थे और मां पिता जी को रघु के बाबू जी कहती थी।

मां से कहकर पिता जी भोर से पहले ही शहर चले गये। मैं सोते रह गया, न जाने मां ने भी क्यों नहीं जगाया। बैल कोठे से बाहर, गाय-भैस कट्टी खा रही है। ओह... जरूर जमुना दीदी आई होगी। मन प्रसन्नता से भर गया। इधर-उधर देखा दीदी कहीं नहीं दिखी। मैं दौड़ कर बाड़ी की तरफ गया। शादी के बाद भी दीदी बिलकुल नहीं बदली है। मेरे हिस्से का काम वे हमेशा कर देती है और मां-पिता जी के डांट से बचा लेती हैं। दीदी... दीदी, मेरी प्यारी दीदी तुम कब आई। बस तेरे सोनो के बाद और उठने से पहले। दीदी ने प्यार से सिर पर हाथ फेरते हुये कहा। इतने में ही मां की आवाज आई... उठ जा रे रघु बेटा निंद में क्या दीदी... दीदी, बड़बड़ा रहा है। बैल को बाहर निकालना है, गाय-भैस को चारा देकर बाड़ी भी जाना है। ओह! कितना अच्छा सपना देख रहा था। काम भी हो गया था और दीदी से भी मिल लिया। चलो अब मां की आज्ञा का पालन भी जाए। शाम होने से पहले पिता जी भी आ जायेंगे।

घर का काम करना मुझे भी अच्छा लगता था। ऐसे ही मां से ठिठोली कर लेता था कि पिता जी मुझे बहुत काम कराते हैं। और जो काम मुझे करने को कहा जाता है दरअसल वह हमारा संस्कार है। गर्व है कि मैं एक किसान का बेटा हूं। घर का काम जल्दीं–जल्दी करके बाड़ी पहुंचा। बाड़ी में धान की फसल के साथ ही सब्जी की खेती भी करते थे। हम किसानों की दिनचर्या घर से खेत तक ही होती है। समय कैसा कटता है पता नहीं चलता। मेरे पीछे मां भी बाड़ी चली आती थी खाना लेकर। मां का सारा ध्यान मुझ पर ही होता था। बार-बार सिर्फ एक बात दोहराती रहती थी। ये मत कर... वो मत कर, तेरे पिता जी कल कर लेंगे तू बस देखाकर। कभी-कभी मैं मां से रूठ भी जाता था कि क्या मैं काम नहीं सकता। तब मां कहती ‘कर सकता है मेरा सयाना बेटा पर अभी से कितना काम करेगा रे’।

पिता जी के ना रहने से ऐसे ही कटता था हम मां-बेटे का समय। थोड़ा काम थोड़ा बात और हो गई शाम। पिता जी बाजार से बीज और खाद के साथ शाम ढलने से पहले घर आ पहुंच थे। हांथ मुंह धोते हुए पिजा जी मां से कहते- जमुना की मां रघु स्कूल गया था क्या मां कहती- रघु के बाबू जी तुम ही तो काम बता कर जाते हो, कहां समय रहता है स्कूल के लिये। अरे... जुमना की मां तुम भी बस। मैं तो ऐसे ही कह जाता हूं कि तुम्हारा भी ध्यान रहे बेटे पर। चिड़कर मां जोर से कहती- ठीक है ठीक है अगली बार कोई काम नहीं करने दूंगी। स्कूल ही जायेगा तुम्हारा लाडला। पिता जी मुस्कुरा दिए। सभी रात को सभी एक साथ खाना खाए। मैं पढ़ने बैठ गया। मां और पिताजी भी शायद इसलिए जल्दी नहीं सोते क्योंकि मैं जाग रहा हूं। कुछ काम के बहाने वें भी जागते रहते थे।

सच कहूं तो मेरा मन पढ़ाई से कही ज्यादा खेती के काम ले लगता था। पढ़ना भी जरूरी है। घर में सभी कहते है पढ़ लिखकर तुम्हे बड़ा आदमी बनना है। अच्छा काम करना है। शायद वे चाहते थे कि मैं पढ़ लिखकर अच्छी नौकरी या कुछ अन्य काम करूं। मुझे मां और पिता जी के साथ दीदी भी यही बात कहती थी। चलो जैसे-तैसे स्कूल की परीक्षा तो खत्म हो गई, लेकिन जीवन की असल परीक्षा तो अब होनी है। घरवाले चाहते हैं कि आगे की पढ़ाई बड़े शहर में करनी है भले खेती बेचनी पड़ी तो बेच देंगे। न जाने क्यों पिता जी का मां भी साथ दे रही थी। मैं बार-बार उनको समझाता रहा कि हम गांव में रहकर भी अच्छा काम कर सकते हैं। और यहां की पढ़ाई भी अच्छी है। मां और पिता जी को मैं सीधे-सीधे ना भी नहीं कर सकता था। बस इस उधेड़ बुन में लगा रहता था कि कुछ ऐसा हो जाये की घरवाले मुझे बड़े शहर भेजने का विचार मन से निकाल दे।

था तो सयाना, कभी-कभी तो यह भी सोचता था यदि मैं 12वीं फेल हो जाऊं तो। नहीं... नहीं, मुझसे घरवालों की बहुत उम्मीदे है। आखिर 12वीं का नतीजा आया, मैं केवल स्कूल ही नहीं बल्कि कस्बे में अव्वल था। घर में सब खुश थे। गांव वाले तो और तिल का ताड़ करने में लगे थे। तरह-तरह की बातें, कोई कहता रायपुर भेजो, कोई कहता बैंगलोर, कोई दिल्ली। कुछ तो विदेशों के नाम भी सुझा रहे थे। मन ही मन मैं कोसता था ये मेरे अपने है कि दुश्मन। मेरे लाख कोशिशों के बाद एक आखरी आस बंदी थी दीदी से उनसे भी मां पिता की हां में हां मिला दी। अब घर से मेरी छुट्टी पक्की है। वे शहर भेजने की और मैं न जाने की भगवान से मिन्नते कर रहा हूं।
  • कुछ अंतराल के बाद दूसरी कड़ी ..... 


एंड्राइड और 4 जी बिना कैसे ऑनलाइन पढ़ेगा छत्तीसगढ़ !


छत्तीसगढ़ सरकार ने बच्चों की पढ़ाई को लेकर एक और नवाचार का शुभारंभ किया है। कहा जा रहा है कि अब ऑनलाईन एजुकेशन प्लेटफार्म ‘पढ़ई तुंहर दुआर’ के माध्यम  से बच्चों को घर में ही पढ़ाना है। देश में फैल रहे वैश्विक महामारी कोरोना के काल में सरकार का ऑनलाईन एजुकेशन प्लेटफार्म शिक्षा के क्षेत्र में नई क्रांतिकारी शुरूआत के साथ ही छत्तीसगढ़ की दशा और दिशा को देखकर प्रश्न चिन्ह भी लगा रहा है। हालांकि इस नवाचार का आज के दौर में स्वागत होना चाहिए किन्तु समय की कसौटी पर परखना भी हमारी सामाजिक जिम्मेदारी है। मुख्यमंत्री और विभागीय अफसरों ने देख परख कर इसे लांच तो कर दिया है, कुछ ही दिनों में इसके परिणाम भी सामने आने लगेंगे। अच्छी बात है, सब पढ़े, आगे बढ़े। पर क्या छत्तीसगढ़ के ग्राम्य अंचलों में यह संभव हो सकेगा। पहली बात तो यह वेब पोर्टल ऑनलाइन काम करेगा, दूसरी बात एंड्राइड फोन चाहिए 4 जी डेटा के साथ। यानी अब आप सरकार के पोर्टल ‘पढ़ई तुंहर दुआर’ में पढ़ना चा‍हते हैं तो मोबाइल को अपडेट करने के साथ ही आपको इंटरनेट भी डालना होगा।
शहर के लिये असंभव नहीं है, किन्तु सुदूर अंचल के गांवों के लिये शायद ही यह योजना कारगर साबित होगा। पूर्व सरकार में तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारा मोबाइल बांटने का काम किया गया था। जो शायद कुछ ही लोगो तक पहुंच पाया और सरकार बदल गई। मोबाइल योजना बंद हो गया, पता नहीं जिन्हें मोबाइल मिला वो उपयोग कर रहे हैं कि नहीं भी। बात गांव में बच्चों के मोबाइल उपयोग की करें तो छोटे बच्चे शायद ही रखते हैं और बड़ों के पास केवल बात करने के‍ लिये ही बेलेंस होता है। साधारण सी बात है किसी वेब पोर्टल से यदि आप पढ़ाई करते हैं तो आपको 3 जी या 4 जी स्पीड के साथ चलना होगा तभी आप वीडियो को ठीक तरह से देख पायेंगे। अब इंटरनेट की सेवाएं देने वाली कंपनी की बात करें तो 200 रूपये से कम किसी का भी नहीं हैं वह भी केवल 28 दिन के लिये वैद्य होता है।   
वर्तमान मुख्यमंत्री जी तो जब से देश में लॉकडाउन लागू हुआ है आए दिन वीडियो कॉन्फ्रेस के माध्यम से लोगो से संपर्क बना रहे हैं। हो सकता है उनको यही से प्रेरणा मिला हो की अब बच्चों को इस तकनीक से जोड़ा जाये। चूकि स्कूली बच्चों की परीक्षाएं नहीं हो सकी पढ़ाई बर्बाद हो रहा है। कहा जा रहा है कि इस ऑनलाइन पोर्टल में कक्षा 1 से 10 तक की कक्षाओं के‍ लिये पठन-पाठन सामग्री अपलोड किया गया है। जाहिर सी बात है छोटे बच्चों के लिये ही बनाया गया है। इस योजना के माध्यम से सरकार ने दूर दृष्टता के साथ वर्तमान समस्या का भले ही हल निकाला है किन्तु यह देखने वाली बात होगी की इसका लाभ कहां और कितने लोगों को मिलेगा। छत्तीसगढ़ का मतलब रायपुर, बिलासपुर ही नहीं वरन नारायणपुर और अबुझमाड़ भी है। क्या‍ सुदूर अंचल में छोटे बच्चों के पास ऐसा मोबाइल है जो सरकार के ऑलाइन पोर्टल ‘पढ़ई तुंहर दुआर’ को सुलभ बना सकेगा!
0 जयंत साहू, डूण्डा रायपुर

संगम तट में लोक खेलों का अद्भुत मेला

यात्रा संस्मरण :

छत्तीसगढ़ की प्रयाग नगरी कही जाने वाली राजिम में सदियों से माघी पुन्नी से लेकर महाशिवरात्रि तक पाक्षिक विशाल मेले का आयोजन होता आ रहा है। वैसे तो छत्तीसगढ़ में जहां-जहां महादेव का वास है वहां पूर्णिमा के पावन अवसर पर मेला लगता ही है किन्तु राजिम के त्रिवेणी संगम पर बसे कुलेश्वर महादेव के मेले का कई ऐतिहासिक और पौराणिक किवदंतियां होने के कारण विशेष महत्व है। विदित हो कि पिछले कुछ वर्षों से छत्तीसगढ़ शासन का धर्मस्व, संस्कृति और पर्यटन विभाग द्वारा विशेष रूचि लेने से यह मेला और भी भव्य हो गया है। 


प्रतिवर्ष राजिम में देव दर्शन के साथ ही विशाल संत समागम, शाही स्नान, मेला, मीना बाजार और मनोरंजक आयोजन में दर्शनार्थियों का रेला लगता है। किन्तु इस वर्ष का मेला नई सरकार जिसे छत्तीसगढ़िया सरकार भी कहा जाता है के बूते होने के कारण बहुत कुछ नवाचार के साथ आयोजित हुआ। संगम तट पर मेला घूमते लोगों को अपनी पारंपरिक लोक खेलों से रूबरू कराता हुआ एक विशाल मंडप का निर्माण कराया गया था। जिसमें धर्म की नगरी में संस्कृति और लोक परंपरा को सहेजता हुआ छत्तीसगढ़ी पारंपरिक लोक खेलों का आयोजन, प्रदर्शन और प्रतियोगिता तत्कालीन संस्कृति व पर्यटन मंत्री एवं विभाग के संचालक के दिशा निर्देश पर लोक खेल उन्नायक चंद्रशेखर चकोर जी के मार्गदर्शन में हो रहा था। 


पृथक छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के बाद पहली बार इतने व्यापक स्तर पर गोंटा, पच्चीस गोटिया, बग्गा, बिल्लस, फुगड़ी, भोटकुल, तुवे लंगरची, अट्ठारह गोटिया, खो-खो, कबड्डी, भारत, बांटी, भौरा और गेड़ी जैसे छत्तीसगढ़ के पारंपरिक लोकखेलों का आयोजन हो रहा था। यह आयोजन छत्तीसगढ़ प्रदेश के मुख्यमंत्री माननीय भूपेश बघेल और संस्कृति मंत्री ताम्रध्वज साहू जी के विशेष सानिध्य में सफलता पूर्वक आयोजित हुआ। कई बड़े आयोजनों में अकसर देखा गया है कि मुख्यमंत्री जी सहजता से बांटी, भौरा और गेड़ी में आत्मियता के साथ रम जाते है। जिस प्रदेश में ऐसे मुखिया हो वहां की लोक संस्कृति और परंपरा कभी विलुप्त नहीं हो सकती है। 


संगम तट यानी जहां राजिम मेला भरता है, में लगे पारंपरिक खेल के पंडाल में पहुंचते ही लोग अपने बचपन में लौट आते थे। पंडाल में आने वाले लोग पहले तो कौतूहल से देखते और मन ही मन आनंदित हो उठते। दूसरों को खेलते देखकर अपने आप को रोक नहीं पाते थे। क्या बच्चे, क्या युवा और क्या बुजुर्ग यहां तक की औरतें भी पंडाल में रूक कर छत्तीसगढ़ी खेल में रम जाते थे। यकीन माने तो खेलों के प्रति ये लगाव है जो दूर-दूर से पहुंचे लोग अंजाने साथी के साथ घंटों खेलों का लुप्त उठाते थे। मीलों दूर ले मेला देखने आए जनमानस राज्य सरकार के इस नवाचार का सराहना करते नहीं थकते थे।


इस आयोजन में दूर दराज के अलावा आसपास गांव के लोग भी पहुंचते थे, वे मजे से रोज अनेको खेल खेलते। कभी हार तो कभी जीत लेकिन खुशी दोनो में ही बराबर आता था। लोकखेल के आयोजन में कभी स्कूली बच्चों के साथ अध्यापकगण तो कभी बड़े अफसर के साथ छोटे कर्मचारी निःसंकोच खेलते थे। राजिम जैसे पौराणिक नगरी जहां जीवात्मा मोक्ष पाता हो वहां जब खेल से सुकून मिले तो लोग खिलाने वालों को भी साधूवाद देकर जाते थे। लोकखेलों को खिलाने वाले सिद्धहस्त खिलाड़ियों की टीम में प्रमुख रूप से लोक खेल उन्नायक चंद्रशेखर चकोर के साथ उनके सहयोगी शिव चंद्राकर, घनश्याम वर्मा, यतीश बंछोर, परमेश्वर कोसे, भेवसिंह दीवान, जितेन्द्र साहू, मिथलेश निषाद आदि लोकखेलों की प्रचलित नियमावली से अवगत कराते हुये खेल खिलाते थे। त्रिवेणी संगम से शुरू हुआ, लोक खेलों के उन्नयन का छत्तीसगढ़ राज्य सरकार द्वारा आयोजित यह राज्य स्तरीय वृहद आयोजन का सिलसिला अविरल बहती रहे ऐसी हम सब की आपेक्षा है।

जयंत साहू, 
रायपुर, छत्तीसगढ़ - 9826753304

भारतीय सिनेमा के संदर्भ में छत्तीसगढ़ी फिल्मों का विकासक्रम 2019


कहते है कि भारत में सिनेमा का आरंभ 1913 में दादासाहेब फालके द्वारा बनाई गई राजा हरिशचंद्र से हुआ था। मूक, श्वेतश्याम से बोलती और फिर रंगीन सिनेमा का दौर आया। साथ ही भारत में अन्य क्षेत्रीय सिनेमा का विकास भी होता गया। 1917 में बांग्ला सिनेमा, 1919 में दक्षिण भारतीय सिनेमा के साथ ही धीरे-धीरे असमी, उड़िया, पंजाबी, मराठी सहित कई अन्य भाषाओं में क्षेत्रीय फिल्में बनने लगी।


हालांकि अविभाजित छत्तीसगढ़ में शुरूआती दौर में छत्तीसगढ़ी सिनेमा तो नहीं था लेकिन फिल्म के दिवाने बहुत थे। जिसमें से एक बड़ा नाम था मनु नायक, जिन्होंने 1965 में पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म 'कहि देबे संदेश' बनाकर इतिहास रचा। 6 साल बाद दूसरी छत्तीसगढ़ी फिल्म 1971 में 'घर द्वार' विजय कुमार पांडेय द्वारा बनाई थी। 


लंबे अंतराल के बाद फिर छत्तीसगढ़ी सिनेमा का नया दौर आया सतीश जैन की फिल्म मोर छइहा भुंइया से जो कि 2000 में रिलीज हुई। तब से अब तक सैकड़ों छत्तीसगढ़ी फीचर फिल्म बन चुका है। छत्तीसगढ़ी सिनेमा के विकास के बाद आइये जानते कि वर्ष 2019 में कितनी छत्तीसगढ़ी फिल्म प्रदर्शित हुई। उसके निर्माता, निर्देशक और कलाकार कौन-कौन है? 

फिल्म का नाम - नाग अउ अर्जुन
निर्माता - कमलनारायण सोनकर
निर्देशक - पुरूराज साहू
कलाकार - चंद्रशेखर चकोर, तान्या तिवारी
रिलीज - 4 जनवरी 2019

फिल्म का नाम - दहाड़ 
निर्माता - किस कुर्रे
निर्देशक - एजाज वारसी
कलाकार - मनमोहन सिंह ठाकुर, रवि साहू, शेखर चौहान
रिलीज - 8 फरवरी 2019

फिल्म का नाम - बिन बिहाव गवना
निर्माता - श्रीमती काजुरी दास बंजारे
निर्देशक - श्रीमती काजुरी दास बंजारे
कलाकार - अंजना दास, ब्रिजेश कमल, राम यादव
रिलीज - 19 अप्रेल 2019

फिल्म का नाम - महूं कुंवारा तहूं कुंवारी 
निर्माता - रॉकी दासवानी
निर्देशक - मनोज वर्मा
कलाकार - मन कुरैशी, एलसा घोष, आकाश सोनी, महिरा खान
रिलीज - 26 अप्रेल 2019

फिल्म का नाम - हंस झन पगली फस जबे
निर्माता - छोटेलाल साहू
निर्देशक - सतीश जैन
कलाकार - मन कुरैशी, अनिकृति चौहान
रिलीज - 14 जून 2019

फिल्म का नाम - मंदराजी
निर्माता - किशोर सार्वा
निर्देशक - विवेक सार्वा
कलाकार - करन खान, ज्योति पटेल, संजय बत्रा
रिलीज - 28 जून 2019 

फिल्म का नाम - आई लव यू टू
निर्माता - लखी सुंदरानी
निर्देशक - उत्तम तिवारी
कलाकार - मन कुरैशी, मुस्कान साहू
रिलीज - 9 अगस्त 2019 

फिल्म का नाम - रंगोबती
निर्माता - अशोक तिवारी
निर्देशक - पुष्पेन्द्र सिंह
कलाकार - अनुज शर्मा, लेजली त्रिपाठी
रिलीज - 13 सितंबर 2019 

फिल्म का नाम - सउत सउत के झगरा
निर्माता - तिलक राजा साहू
निर्देशक - तिलक राजा साहू
कलाकार - सेवकराम यादव, संजू साहू, जागेश्वरी मेश्राम
रिलीज - 20 सितंबर 2019 

फिल्म का नाम - सुपर हीरो भइसा
निर्माता - पवन गांधी
निर्देशक -कैलाश जानवावाला
कलाकार - पवन गांधी, प्रीति माहेश्वरी
रिलीज - 11 अक्टूबर 2019 

फिल्म का नाम - राजा भइया एक आवारा
निर्माता - इरफान खान
निर्देशक - इरफान खान
कलाकार - अनुज शर्मा, तान्या तिवारी
रिलीज - 28 अक्टूबर 2019  

फिल्म का नाम - लव दिवाना
निर्माता - मोहित साहू
निर्देशक - प्रवीर दास
कलाकार - दिलेश साहू, माया साहू, प्रगति राव
रिलीज - 8 नवंबर 2019  

फिल्म का नाम - सॉरी लब यू जान
निर्माता - जेठू साहू
निर्देशक - सलीम खान
कलाकार - अनुज शर्मा, एलसा घोष
रिलीज - 15 नवंबर 2019  

फिल्म का नाम - लोरिक चंदा
निर्माता - प्रेम चंद्राकर
निर्देशक - प्रेम चंद्राकर
कलाकार - गुलशन साहू, कुंती मढ़रिया
रिलीज - 29 नवंबर 2019  

फिल्म का नाम - असली कलाकार
निर्माता - अखिलेश मिश्रा
निर्देशक - नीरज श्रीवास्तव
कलाकार - भुनेश साहू, आस्था दयाल
रिलीज - 13 दिसंबर 2019  

कोणार्क सूर्य मंदिर का अतीत और आज : यात्रा संस्मरण

कोणार्क सूर्य मंदिर का अग्रभाग

महाप्रभु श्री जगन्नाथ स्वामी जी की पावन धरा ओडिशा राज्य का पुरी शहर अपनी कई ऐतिहासिक और धार्मिक मान्यताओं के लिए विश्व विख्यात है। महानदी और महासागर से लिपटा ओडिशा राज्य में प्रमुख पर्यटन स्थल के रूप में जगन्नाथ मंदिर, कोणार्क सूर्य मंदिर, चंद्रभागा समुद्रतट, लिंगराज मंदिर, धौली बौद्ध मंदिर और उदयगिरि-खंडगिरि की प्राचीन गुफाएं आदि स्थान प्रसिद्ध हैं। हालांकि पर्यटन की दृष्टि से ओडिशा राज्य कुछ प्राकृतिक आपदाओं के कारण उतना विकसीत नहीं हो पाया जितना होना था, फिर भी जो कुछ बचा है किसी अजूबे से कम नहीं। ओडिशा पर्यटन से यूनेस्को विश्व विरासत स्थल की सूची में शुमार कोणार्क का सूर्य मंदिर तो अपने आप में नायाब है।

कोणार्क सूर्य मंदिर का पश्चभाग

कोणार्क ओडिशा की राजधानी भुबनेश्वर से 65 किलोमीटर तथा पुरी से उत्तर-पूर्व दिशा में 35 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। चंद्रभागा समुद्रतट से महज 3 किलोमीटर दूर विश्व प्रसिद्ध कोणार्क का यह ऐतिहासिक धरोहर सूर्य मंदिर भगवान सूर्य को समर्पित है। इस मंदिर के शिखर से उगते और ढलते हुये सूर्यदेव का दर्शन होता है। सूर्योदय और सूर्यास्त के समय मंदिर का नजारा बेहद ही खूबसूरत होता है। सूरज की लालिमा से पूरा मंदिर परिसर लाल-नारंगी रंगमय दिखाई देता है। इस अद्भुत नजारें को देखने के लिये देश-विदेश से हजारों सैलानी प्रतिदिन कोणार्क पहुंचते हैं। कई ऐतिहासिक और धार्मिक गूढ़ रहस्यों को अपने गर्भ में समेटे, कोणार्क सूर्य मंदिर की अनुपम नयनाभिराम दृश्य देखकर सैलानी एक पल के लिये मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। और दूसरे ही पल मन में उमड़ने लगते हैं, सैकड़ों सवाल। इस अबूझ स्थापत्य कला को लेकर कब, कैसे, क्यों और किसने जैसे सवालों का जवाब, यत्र-तत्र बिखरे अवशेष स्वयं ही अपनी कहानी बयां करता है। 

कोणार्क सूर्य मंदिर का प्रस्तर

कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण गंग वंश के तत्कालीन सामंत राजा नृसिंहदेव ने 1250 ईस्वी में करवाया था। कई इतिहासकारों का मत यह भी है कि कोणार्क मंदिर का निर्माण 1253 से 1260 ईस्वी के बीच हुआ था। इसे यूनेस्को द्वारा सन् 1984 में 'विश्व धरोहर स्थल' घोषित किया गया है। तेरहवीं सदी का मुख्य सूर्य मन्दिर स्थल को बारह जोड़ी चक्रों के साथ सात घोड़ों से खींचते हुये निर्मित किया गया है, जिसमें सूर्य देव को विराजमान दिखाया गया है। परन्तु वर्तमान में सात में से एक ही घोड़ा बचा हुआ है। मन्दिर के आधार को सुन्दरता प्रदान करते ये बारह चक्र साल के बारह महीनों को परिभाषित करते हैं तथा प्रत्येक चक्र आठ आरों से मिल कर बना है, जो कि दिन के आठों पहर को दर्शाते हैं। स्थानीय लोग भगवान सूर्य को 'बिरंचि नारायण' भी कहते थे।

कोणार्क सूर्य मंदिर का शिल्पकला

कोणार्क सूर्य मन्दिर का निर्माण लाल रंग के बलुआ पत्थरों तथा काले ग्रेनाइट के पत्थरों से हुआ है। मुख्य मन्दिर तीन मंडपों में बना है। इनमें से दो मण्डप अब ढह चुके हैं। इस मन्दिर में सूर्य भगवान की तीन प्रतिमाएं हैं: बाल्यावस्था- उदित सूर्य, युवावस्था- मध्याह्न सूर्य, प्रौढ़ावस्था- अपराह्न सूर्य। इसके प्रवेश द्वार पर दो सिंह हाथियों पर आक्रामक होते हुए रक्षा में तत्पर दिखाये गए हैं। दोनों हाथी, एक-एक मानव के ऊपर स्थापित हैं। प्रवेश द्वार पर ही नट मंदिर है। कहा जाता है ये वही स्थान है, जहां मंदिर की नर्तकियां सूर्यदेव को अर्पण करने के लिये नृत्य किया करतीं थीं।

कोणार्क सूर्य मंदिर का अशोक चक्र

मंदिर का एक-एक कोना अद्वितीय सुंदरता और शोभा की शिल्पाकृतियों से परिपूर्ण है। इसके विषय भी मोहक हैं, जो सहस्रों शिल्प आकृतियां भगवान, देवता, गंधर्व, मानव, वाद्य, प्रेमी युगल, दरबार की छवियां, शिकार एवं युद्ध आदि के चित्रों से भरी हैं। इनके बीच-बीच में पशु-पक्षियों और पौराणिक जीवों के अलावा महीन और पेचीदा बेल-बूटे तथा ज्यामितीय नमूने अलंकृत हैं। उड़िया शिल्पकला की हीरे जैसी उत्कृष्ट गुणवत्ता पूरे परिसर में अलग ही दिखाई देती है। अब आंशिक रूप से खंडहर में परिवर्तित हो चुके इस ऐतिहासिक धरोहर को बचाने के लिये भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग लगा हुआ है।

कोणार्क सूर्य मंदिर का शिल्पकला

कोणार्क सूर्य मंदिर का शिल्पकला

कोणार्क सूर्य मंदिर का शिल्पकला
टीप- उपरोक्त फोटोग्राफ ब्लॉगर द्वारा यात्रा के दौरान मोबाइल से खींची गई है। लेख का आधार ओडिशा की जनश्रुति है जिसमें तथ्यहिन ऐतिहासिक, धार्मिक और पौराणिक शब्दावली भी हो सकती है। जय जगन्नाथ...

- ब्लॉगर 
जयंत साहू, रायपुर छत्तीसगढ़









कोणार्क सूर्य मंदिर से जुड़े बारह आसान सवाल और उनके जवाब


उत्तर- कोणार्क सूर्य मंदिर का निर्माण 1253 से 1260 ईस्वी के बीच हुआ था।


उत्तर- कोणार्क सूर्य मंदिर निर्माण गंग वंश के तत्कालीन सामंत राजा नृसिंहदेव ने करवाया था।


उत्तर- कोणार्क सूर्य मंदिर की कल्पना सूर्य के रथ के रूप में की गई है। रथ में बारह जोड़े विशाल पहिए लगे हैं और इसे सात शक्तिशाली घोड़े तेजी से खींच रहे हैं। इस मंदिर में सूर्योदय और सूर्यास्त के समय का नजारा अद्भुत होता है। मंदिर के निर्माण में कई रहस्यमयी कथा किवदंतियों के साथ इसके ऐतिहासिक प्रमाण भी हैं।


उत्तर- कोणार्क सूर्य मंदिर में बारह पहिए बनाये गये है।


उत्तर- कोणार्क सूर्य मंदिर में सात घोड़े रथ खींचते बताये गए हैं।


उत्तर- कोणार्क सूर्य मंदिर को यूनेस्को विश्व धरोहर की सूची में 1984 में शामिल किया गया।


उत्तर- कोणार्क सूर्य मंदिर का निर्माण कलिंग शैली में हुआ है।


उत्तर- कोणार्क का सूर्य मंदिर का बारह चक्र माह को तथा आठ आरा आठों पहर को दर्शाता है।


उत्तर- कोणार्क सूर्य मन्दिर का निर्माण लाल रंग के बलुआ पत्थरों तथा काले ग्रेनाइट के पत्थरों से हुआ है। 


उत्तर- कोणार्क सूर्य मंदिर तीन मंडपों से बना हुआ है।


उत्तर- कोणार्क सूर्य मंदिर में सूर्य की तीन प्रतिमाएं है: बाल्यावस्था- उदित सूर्य, युवावस्था- मध्याह्न सूर्य, प्रौढ़ावस्था- अपराह्न सूर्य।


उत्तर- कोणार्क सूर्य मंदिर पर्यटक सड़क, रेल व हवाई मार्ग से आसानी से पहुंच सकते हैं। यह ओडिशा की राजधानी भुबनेश्वर से 65 किमी तथा जगन्नाथ पुरी शहर से 35 किमी की दूरी पर स्थित है। देश से बाहर के पर्यटकों के लिये भुबनेश्वर से अंतर्राष्ट्रीय हवाई सेवा भी उपलब्ध है। स्थानीय पर्यटक रेल मार्ग से पुरी पहुंचकर बस व टेक्सी से कोणार्क पहुंच सकते हैं।

छॉलीवुड के लिये यादगार रहा 2020 का फरवरी, 6 छत्तीसगढ़ी फिल्म एक साथ चली

छत्तीसगढ़ी फिल्म पर जयंत साहू का विशेष लेख

फीचर डेस्क रायपुर। छत्तीसगढ़ी फिल्म उद्योग केवल नाम का है, अधिकांश फिल्म अपनी लागत तक नहीं निकाल पाती है। फिर भी लोग जोखिम उठाने का जश्बा रखते है ये बहुत बड़ी बात है। फिल्म निर्माण के गति को देखा जाए जो अब प्रत्येक माह एक-दो फिल्म बन रही है और प्रदर्शित भी हो रही है। आम दर्शकों, कलाकारों और तमाम निर्देशकों के साथ फिल्म लाइन से जुड़े सभी लोगों के लिये वर्ष 2020 का फरवरी माह यादगार बीता। छत्तीसगढ़ी सिनेमा के इतिहास में फरवरी का महीना स्वर्णीम अक्षरों में दर्ज रहेगा क्योकि इस माह एक दो नहीं बल्कि चार फिल्म सिनेमाघरों में धमाल मचा रहा है।
2020 के फरवरी में ‘जोहार छत्तीसगढ़, दईहान, आजा नदिया के पार, तै मोर लव स्टोरी, बेनाम बादशाह, तोर मोर यारी’ जैसे कुल 6 फिल्म माह के अंत तक सिनेमाघरों में सफलता पूर्वक चल रही है। हालांकि जोहार छत्तीसगढ़ 31 जनवरी को प्रदर्शित हुई जिसे प्रीमियर शो माने तो उनकी भी ओपनिंग फरवरी ही की दर्ज होगी। ऐसा पहली बार हुआ जब किसी एक ही महीने में 5 छत्तीसगढ़ी फिल्म रिलीज हुआ हो।
ये पांचो फिल्म कई मायने में एक दूसरे से काफी अलग है इसलिये दर्शको ने सभी का आनंद मजे से लिया। जोहार छत्तीसगढ़ में देवेंद्र जांगड़े, शिखा चितांबरे, राज साहू, सोनाली सहारे, अनिल शर्मा, पुष्पेन्द्र सिंह, निशांत उपाध्याय, क्रांति दीक्षित, हेमलाल कौशल, विक्रम राज, सलिम अंसारी, उपासना वैष्णव आदि कलाकारों ने शानदार अभिनय किया। यह फिल्म छत्तीसगढ़ के मूल निवासी लोगों के अधिकार और बाहरी व्यक्तियों के राजनीतिक हस्तक्षेप को प्रमुखता से जनता के बीच रखा था। देवेंद्र जांगड़े, और राज साहू की इस फिल्म को दर्शकों ने खूब पसंद किया।
7 फरवरी को आई दईहान जो कि छत्तीसगढ़ की एक महान सांस्कृतिक फिल्म थी। इस फिल्म में गांव के चरवाहों की प्रेम कहानी दिखाई गई थी। फिल्म की कहानी के साथ ही संवाद और गीत-संगीत भी काफी लोकप्रिय हुआ। दर्हहान में संदीप पाटिल, जैकी भावसार, जागेश्वरी मेश्राम, घनश्याम पटेल, नवीन देशमुख, अंजलि चौहान, रजनीश झांझी, कुलेश्वर ताम्रकार, अमरसिंह लहरे, येमन साहू, पप्पू चंद्राकर और प्रमोद विश्वकर्मा आदि कलाकार अहम किरदार में थे। 7 फरवरी को ही एक और छत्तीसगढ़ी फिल्म रिलीज हुई आजा नदिया के पार। ज्ञानेश तिवारी की यह फिल्म एक लव स्टोरी थी जिसमें अशरफ अली और आस्था दयाल के साथ दूजे निषाद, विनोद, सरला सेन, मंदिरा नायक, विनायक अग्रवाल आदि ने शानदार अभिनय किया। 
फरवरी के दूसरे शुक्रवार यानी 14 फरवरी को भी दो फिल्में आई एक तै मोर लव स्टोरी और दूसरी बेनाम बादशाह। सतीश साव और अनिकृति की बहुप्रतिक्षित फिल्म तै मोर लव स्टोरी तो बहुत दिनों से कंप्लिट थी लेकिन लव स्टोरी होने के कारण निर्माता अजय वर्मा और निर्देशक दानेश साहू अच्छी और यादगार दिन की प्रतिक्षा में थे। चूकि 14 फरवरी को वेलेंटाइन डे मनाया जाता है तो इससे बढ़िया दिन एक प्रेम कहानी को रिलीज करने का हो ही नहीं सकता था। सतीश साव, अनिकृति चौहान, संजय साहू, माया साहू, रजनीश झाँझी, दूजे निषाद, विनीता मिश्रा, सनिधी विश्वनाथ राव, रिया साहू, सागर सोनी, सौरभ गोस्वामी, राज सोनी, लोकेश साहू, किशन साहू आदि तै मोर लव स्टोरी में अहम किरदार में थे। 
इस तारीख को एक और मूवी कुछ सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई जो था बेनाम बादशाह। बेनाम बादशाह एक शराबी की कहानी है जो एक जुनून में शराब छोड़कर समाज के सामने संदेश रखते है। बेनाम बादशाह के गानों के साथ ही इसकी कहानी को भी काफी पसंद किया गया। सुपरस्टार करन खान और सदाबहार अभिनेत्री मुस्कान साहू की दमदार अदाकारी ने सब कलाकारों को दिखा दिया की छॉलीवुड में ऐसी फिल्में भी बनाई जा सकती है। इस फिल्म में करन और मुस्कान के अलावा प्रणव झा ने भी कमाल कर दिया, सतीश जैन के बाद प्रणव झा ही एक ऐसा फिल्ममेकर है जिसके नाम से दर्शक जुटते है। बेनाम बादशाह में प्रणव झा ने बता दिया कि वे फिल्म मेकिंग के भी बादशाह है। उनकी पहली मूवी बीए सेकेन्ड ईयर और बीए फस्ट ईयर से बेनाम बादशाह को कमतर नहीं माना जा सकता। कलाकार भले ही बदले है लेकिन पेश करने का अंदाज और तेवर वही है।
फरवरी माह का आखरी शुक्रवार भी जाते-जाते भी एक लव स्टोरी देकर गया जिसका नाम है तोर मोर यारी। इसमें निर्माता है अजय त्रिपाठी और निर्देशित किये है प्रिंस विकास बर्धन ने। तोर मोर यारी में अहम किरदार में थे अजय त्रिपाठी, तानिया तिवारी, श्याम कुमार, शिव शंकर, प्रियंका साहू, प्रियंका प्रिया, दर्शन साहू, पुष्पेन्द्र सिंह, एजाज वारसी, आशीष सेंद्रे, सरला सेन, पुष्पांजली शर्मा, उपासना वैष्णव, मंदिरा नायक और ललित उपाध्याय। यह फिल्म छॉलीवुड के लिए इस वजह से भी खास है क्योंकि इसमें छॉलीवुड के बाबू जी यानी आशीष सेन्द्रे ने भी अभिनय किया है। शायद तोर मोर यारी ही उनकी आखरी फिल्म है जिसके बाद वे इस दुनिया को अलविदा कह गये। फिल्म की दूसरी बड़ी खासियत है पारिवारिक कहानी जिसमें एक-दो नही बल्कि पांच दोस्तों के किरदार को सूत्रधार बनाकर समाज में दोस्ती की नई परिभाषा रखने की कोशिश की गई। दो दोस्त तो बुजुर्ग है लेकिन तीन युवा है तो जाहिर है प्यार और रोमांश के गीत भी है, जो कि काफी कर्णप्रिय है।
छत्तीसगढ़ी भाषा की जब 5 फिल्में एक ही माह में रिलीज हुई तो टाकीज मालिकों के साथ फिल्म वितरक भी तारीख के लिये काफी मशक्कत करते दिखे। इस दौरान कई फिल्म मेकर तो अपनी पूर्व घोषित रिलीज तारीख को आगे टाल दिये किन्तु कुछ अपनी बात पर अड़े रहे और कम सिनेमाघर होने के बावजूद अपनी फिल्म को प्रदर्शित करने में सफल रहे। छत्तीसगढ़ में फरवरी का महीना बसंत के साथ ही मेला और आयोजनों का है तो दर्शकों के पास फिल्म देखने का समय भी होता है। ऐसे में भला फिल्मकार कैसे चुकते, धड़ाधड़ उतारने लगे अपनी फिल्मों को। दर्शक भी अच्छे मूड में दिखे सभी फिल्मों को भूरपूर प्यार मिला। कौन सी फिल्म कितनी कमाई किये ये अलग विषय है किन्तु जो दर्शक जोहार छत्तीसगढ़ और दईहान देखे वही दर्शक आजा नदिया के पार, तै मोर लव स्टोरी, बेनाम बादशाह और तोर मोर यारी भी समय निकाल कर देखने पहुंचे। 
छत्तीसगढ़ में बॉलीवुड की फिल्मे प्रमुखता से देखी जाती है क्योकि यहा अधिकांश सिनेमाघर बड़े शहरों में है जो कि हिन्दी भाषी बाहुल्य है। बड़े शहरों में आचंलिक फिल्म से कम लगाव और हॉलीवुड, बॉलीवुड से अधिक प्रेम होता है। इस दौरान उनके लिये बॉलीवुड के गन्स आफ बनारस, दूरदर्शन, कहता है ये दिल, तीन मुहूर्त, रिजवान, लापरवाह, थप्पड़, कुकी, हॉन्टेड हिल्स, ओ पुष्पा आई हेट टियर्स, स्वर्ग आश्रम, भूत: भाग एक- द हंटरर्ड सीप, द हंडर्ड बक, शुभ मंगल सावधान, लव आज कल और ए गेम कार्ल्ड रिलेशनसीप जैसी फिल्मे आई जो कि कुछ खास कमाल नहीं दिखा सके। अब हिन्दी और छत्तीसगढ़ी की फरवरी में रिलीज फिल्मों की तुलना जनता की भीड़ देखकर करे तो छॉलीवुड की फिल्में ज्यादा लोकप्रिय रही है। 
इसे एक नये नजरिये से देखा जाये तो अब छत्तीसगढ़ का सिनेमाघर बाहर की फिल्मों का मोहताज नहीं है। छत्तीसगढ़ में ही इतनी फिल्में बनने लगी है कि साल भर उनको तारीख के लिये प्रतिक्षारत रहना होगा। निर्माता और वितरक के साथ अगर सिनेमाघर मालिकों का अच्छा तालमेल हो तो बॉक्स आफिस कलेक्शन भी धीरे-धीरे घाटे से मुनाफा की ओर जा सकता है। लगातार घाटे में चल रहे प्रोड्यूसर जब मुनाफा कमायेंगे तो फिल्म के अन्य सभी पर्दे व पर्दे के बाहर काम करने वाले लोगों को भी अच्छी तनख्वाह मिल सकेगी। फिल्म का बजट भी बढ़ेगा तब कही जाकर हम कह सकेंगे कि छत्तीसगढ़ी फिल्म उद्योग का रूप ले रहा है।
फिल्म समीक्षक- 

जयंत साहू, रायपुर छत्तीसगढ़  
[ Mo- 9826753304 | Email- Jayantsahu9@gmail.com]

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