सयाना - लघु उपन्यास

मेरी पहली लघु उपन्यास ‘सयाना’ की तीसरी कड़ी ...

अरे... आज तो बहुत देर तक सोता ही रह गया। सूरज मुहाने तक आ पहुंचा है। लगभग सात बजने को आया होगा। कभी इतनी देर तक सोया नहीं। किन्तु आज, शायद मन से चिंता की लकीर हटी इस वजह से सात बजा। मां और पिताजी अपने-अपने काम में व्यस्त हैं। रसोई से आवाज आ रही है... हॉं मां आया। शायद मां चाय के लिये मुझे ही पुकार रही होंगी। हमारी रसोई सुबह के पांच बजे से ही शुरू हो जाता है। बिना दूध की गुड़ वाली चाय के साथ। घर में गाय, भैस, बकरी सभी का दूध होता है लेकिन हमें काली चाय ही भांता है। पिताजी तो चाय पीकर बाड़ी भी जा चुके होंगे।

क्यों मां.... आज तुमने मुझे जागया नहीं। 
मां ने मुस्कुराते हुए कहा- क्या  करेगा रघु जल्दी उठकर। तेरे लायक कुछ काम भी तो नहीं। ...काम कैसे नहीं है। घर में तुम्हारा हाथ बटा सकता हूं और बाड़ी में पिताजी का भी। रघु बेटा अब तू ये सब काम में ध्यान न दिया कर मेरे सयाना बेटा तुम्हे तो अभी बहुत बड़ा-बड़ा काम करना है। मां का भी कुछ समझ में नहीं आता है। जितना मुंह से कहती है उससे अधिक तो उनके मन में बात होता है।

आज तो मैं मां की मन की बात जानकर ही रहूंगा। अच्छा अवसर है, पिताजी घर में नहीं है। मैने होसियारी से बात शुरू करनी चाही किन्तु। उसने ठिठोली कर दी। कौन सा बड़ा काम करना है मां। मां ने झट से कहा... नहाना है, खाना है, खेलना है और क्या। मैने बात कहां से शुरू की और मां बात को कहां पहुंचा रही हैं। चलिए फिर कभी जानेंगे मां की मन की बात। आज तालाब में नहाने का आनंद ले आते है।

मैने मां से कहा- घर के कुएं और बाड़ी के बोर से बहुत नहां लिया, आज तालाब का आनंद लेकर आता हूं। आश्चर्य हुआ मां ने रोका न टोका। खुशी से तालाब में नहाने की अनुमति देदी। पहले ऐसा नहीं होता था। मेरे उठते ही मां कुएं से पानी भर कर रख देती थी। यदि बाड़ी में होता था तो बोर के पास बाल्टी और साबुन रख आती थी। कहती थी कहा तालाब जायेगा बेटा घर में कुएं-बोर है, यही नहा। चलो भई कुछ दिन और लाड कर लो मां अपने लाडले से। मेरे साथ शायद हलाल होने से पहले बकरे की आवभगत वाली घटना हो रही है। देर तक सो रहा हूं। किसी भी काम के लिए इंकार नहीं किया जा रहा है। मेरी पसंद ना पसंद का ख्याल रखा जा रहा है। जल्दी नहाकर आ जाता हूं। रसोई से मेरे मन पसंद इलहर कड़ी की खूशबू आ रही है।

गांव के तालाब में नहाने जाने से बहतु से काम एक साथ निपट जाते है। नित्यकर्म, स्नान के साथ ही कई बातों का ज्ञान तालाब से ही होता है। मेरे तालाब जाने के एक कारण यह भी था कि गांव का हालचाल जान सकूं। मैनें घर से एक टावल के अलावा साबुन आदि कुछ भी नहीं रखा। गांव तालाब के पीछे के हिस्से में हुआ करता था। चूकि मैं देर से पहुंचा था सो गांव के बड़े बुजुर्ग नहां चुके हैं। अभी जो लोग तालाब में दिखाई दे रहे हैं। सब मेरे जैसे निठल्ले लग रहे हैं। मैं तालाब पहुंचते ही सबसे पहले नित्यकर्म से हो आया। डब्बा, लोटा, बाल्टी आदि की जरूरत होती है लेकिन वहां सब मिल जाता है। एक आदमी के डब्बा से कई लोग उसके स्नान करते तक निपट जाते हैं।

उधर से ही नीम का दातून और काली मिट्टी लेकर आया था। मैं दातून चबाते-चबाते घाट पर बैठे लोगों की बाते सुन रहा था। हम उम्रों की टोली जमी है। बिंदास बातों के बीच-बीच हंसी ठहाका भी गुंज रहा है। बाजार में सब्जी का भाव, क्रिकेट का स्कोर, नई फिल्म का स्टोरी सुबह-सुबह ही तालाब से साझा होनी शुरू हो जाती है। घर-घर की कहानी को थोड़ा सस्पेंस के साथ और लड़की-लड़का की बात रोमांच के साथ सुनाया जाता है।

अरे सुन... सुन चम्पा की शादी हो गई है। क्या... हां हां। मैं तो उससे मिला भी था। बाजार में अपनी पति के साथ घूम रही थी। शायद ये लोग पटवारी की लड़की चम्पा के बारे में बात कर रहे हैं। मैं तो उनको जानता हूं, पास के गांव की है। कभी-कभी स्कूल आते-जाते रास्ते में मिलती थी। पढ़ाई में बहुत ही अच्छी थी। कुछ भी कठनाई होती थी तो बेझिझक मुझसे मदद मांगती थी।

चम्पा की शादी के विषय में जानकर प्रसन्नता के साथ दुख भी हुआ। दुख इस बात का कि चम्पा आगे पढ़ाई करना चाहती थी जोकि अब संभवत: नहीं पढ़ पायेगी। गांव में शायद ही कोई लड़की 18 से ऊपर की बची होगी। लड़कों की जमात में 22-25 तक मिल ही जाते हैं। कुछ मेरे जैसे। अब तक उन निठल्लों की नजर मुझ पर पड़ चुकी थी। एक ने कहा- बड़े दिनों बाद दिखा रघु तालाब में। दूसरे ने कहा- शायद रघु शहर जाने से पहले गांव की याद ताजी करने आया होगा। शहर जा रहा है तो याद ताजी करने की क्या जरूरत। अरे भाई तुम समझे नहीं। आगे कॉलेज की पढ़ाई करने शहर जा रहा है। कहां, कब, क्यों, कैसे जैसे सवालों की बौछार शुरू। मैंने कहा अभी कोई तय नहीं किया हूं। जाऊंगा तो सभी को बता कर ही, चिंता मत करो। तुम लोगों को भी भला भूल सकता हूं क्या। मैं मन ही मन सोचा ये तालाब भी बड़े काम का स्थान है यहां गांव क्या, गांव के बाहर की भी सूचनाएं मिलती है। मानना पड़ेगा इनके सूचनातंत्र को।

मेरे मन में आया की क्यों न यही से ज्ञान प्राप्त किया जाए। मनोज तो मेरा सहपाठी भी रहा है 10वीं कक्षा तक, उन्हीं से पूछ लिया जाए। क्यों मनोज तुम्हारे मामा का लड़का भी तो बाहर पढ़ने गया था। कहां है और क्या कर रहा है आजकल। मनोज ने गुस्से से कहा मत पुछ भाई उस कमीने ने तो पूरा घर को बरबाद कर दिया। कैसे... क्या हो गया। मेरे नाना जी ने पढ़ाई के लिये उसको बाहर भेजा था। बाहर पढ़ाने में सक्षम न होने के बाद भी मामा ने घर की संपत्ती बेचकर उसे पढ़ाया। खेत को भी गिरवी रखा था इस आस में की बेटा पढ़ लिखकर आयेगा तो फिर से खेत को छुड़ा लेंके। घर परिवार के सपनों को मिट्टी में मिला दिया उस इंसान ने। घर लौटकर ही नहीं आया। सुना हूं कि वही किसी से शादी कर लिया और गाड़ी बंगला सब कुछ ले लिया है। घर वालों को पुछता भी नहीं है कि कैसे है। शर्म की बात है बेटा बाहर एसो आराम के साथ जी रहा है और मां-बाप रोजी मजदूरी करके जीवन यापन कर रहे हैं।

थू है ऐसी पढ़ाई पर जो मां-बाप को छुड़ा दे। मां-बाप अपने बच्चों को इसलिए पालन पोषण कर बड़ा करते है कि उनको बुड़ापे में सुख मिले। यहां तो बेटे बाहर पढ़ने के बाद गांव आना नहीं चाहते हैं। उस मिट्टी को भूल जाते हैं जहां खेले, जहां का उपजा अन्न खाएं। कम से कम अपने मां-बाप का तो ख्याल करना चाहिए। मनोज की बात सुनकर मुझे भी बहुत दुख हुआ। मनोज का नाना बहुत ही मजाकिये इंसान थे। कभी-कभी आते थे मनोज के यहां तो आस पड़ोस से भी मिले बिना नहीं जाते थे।

मुझे तो और भी दुख हुआ मनोज के मामा के लड़के के बारे में जानकर क्योंकि मैं भी बाहर पढ़ने जाने वाला हूं। मनोज जब भी अपने मामा के लड़के को कोसते, गाली देते थे तो मुझ़े ऐसा लगता था मानो मुझे दे रहे हो। कुछ लोगों ने तो यहां तक बताया की गांववालों को वें मजदूर और नौकर संबोधित करते थे अपने दोस्तों के सामने। क्यां ऐसा भी औलाद हो सकता है दुनिया में, जो अपने दोस्तों के सामने अपना कद ऊंचा करने के लिये मां-बाप को नौकर बताए।

... कही मैं भी शहर जाने के बाद बदल गया तो क्या होगा मेरे मां-बाप के सपनों का। कहते है कि जो लोग गांव से शहर जाते है वे लौटकर फिर गांव नहीं आते। कुछ तो सच्चाई है इस बात में। मैंने भी देखा है जो शहर गये है वे गांव आना नहीं चाहते है। तर्क भी देते है कि इतना पढ़ने के बाद गांव में फिर वही काम करना है तो फिर इतनी पढ़ाई का क्या फायदा। ये बात भी सही है। मैं... भी। ... शहर न आऊं तो। ना ही जाऊं तो ज्यादा अच्छा है। एक बार फिर मां और पिताजी से इस विषय पर चर्चा करने में क्या हर्ज है।

अब मुझ़े उन लोगों की बातें सुनने का मन नहीं हो रहा है। जितना जल्दी हो नहां कर घर जाऊंगा। मेरे साथ सभी की नहाने की गति बड़ गई। काली मिट्टी को शरीर में लगाकर, छोड़ी तैराकी करके तालाब से हम बाहर निकल गये। तालाब से घर तक रास्तेभर तरह-तरह की बातें सुनते-सुनाते रहे। विषय केवल एक ही था गांव से पढ़ने शहर गया लड़का। किसी ने भी साकारात्मक बात नहीं कही। अब मेरा मन भी डगमिग-डगमिग डोल रहा है, नदी में नाव की भांति। बात तो चिंता की है... कहीं मैं सचमुच बदल गया तो। गुनते-गुनते घर पहुंच चुके। खाना खाते-खाते मां से आज इस बात पर चर्चा जरूर करूंगा। 

  • कुछ अंतराल के बाद चौथी कड़ी ...

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