मातर - मड़ई ..., छत्तीसगढ़ में दीपावली के दूसरे दिन मनाये जाने वाला प्रसिद्ध लोकपर्व | पढ़े बालोद जिले का ऐतिहासिक उत्सव


रौशनी का महापर्व दीपावली को न केवल भारत बल्कि अब वैश्विक रूप से मनाये जाने लगा हैं। इस त्योहार को मनाने के पीछे की कहानी और किवदंती में अपनी-अपनी आंचलिकता का समावेश ही इसकी खास विशेषता है।दीपावली को छत्तीसगढ़ के संदर्भ में देखें तो यह ‘देवारी तिहार’ के रूप में छत्तीसगढि़या जन का प्रमुख सांस्कृतिक और धार्मिक पर्व है। जिसमें सुरहुति, गउरा-गउरी, गोबरधन पूजा, मातर आदि पारंपरिक अनुष्ठानों के साथ सुआ, गौरी-गौरा और राऊत नाच की अनुगूंज लोक में कार्तिक पूर्णिमा तक बिखरती है।


छत्तीसगढ़ की देवारी में मातर उत्सव का उमंग सबसे ज्यादा महत्व का होता है। दीपावली के दूसरे दिन होने वाले इस आयोजन में दूर-दूर से भी लोग मातर देखने आते हैं। बाजे गाजे के साथ नाचते राऊत समुदाय, लाठी और अस्त्र-शस्त्र का हैरतअंगेज प्रदर्शन करते अखाड़ा दल, गांव के मड़ईहा अपने बैरग-ध्वजा के साथ मातर में शामिल होते हैं।


मातर मनाने के लिये सभी ग्रामीण जन दइहान पहुंचते हैं, लगभग दस ग्यारह बजे के करीब। साथ ही गाँव के सकल देवी-देवता, डांग-डोरी और बाजे-गाजे के साथ नृत्य करते गौठान को जाते हैं। देवी-देवता के प्रतिनिधि के रुप में उनका सेवक बाना, त्रिशूल आदि लिये होते हैं। लगभग बीस-पच्चीस फुट लंबे बाँस पर अलग-अलग देवी-देवताओं के अलग-अलग रंग के विशेष ध्वज चढ़े होते है। इन्हे एक भगत पकड़े रहता है, इन पर देवताओं की सवारियाँ आती है और ये झूमते हुए नृत्य करते हैं। 


गौठान में राऊत का खोड़हड़ गड़ा होता है। वे उनके कुल देवता होते हैं। सभी साथ मिलकर उनकी पूजा अर्चना करते हैं तदपश्चात पहले से इकट्ठा किये हुए गाँव भर के गाय, भैसों की पूजा कर गले में सुहई बाँधी जाती है। फिर उनके बीच कुम्हड़ा को डालते हुए खोड़हड़ देव का परिक्रमा कराया जाता है। जिससे कुम्हड़ा उनके खुरों से दबकर टूट जाता है, और वह देवता को अर्पित होता हैं। कहीं-कहीं बकरा व मुर्गा भी दिया जाता था। 


देवी-देवता अपने स्थल पर आकर कुछ देर विश्राम करते हैं। दोपहर बाद सकल ग्रामीण देवी-देवताओं की डांग-डोरी लिये बाजे गाजे के साथ राऊत के घर जाते हैं। आकर्षक पारंपरिक वेशभूषा में राऊत वीरता के दोहे उचारते हुए अपने कुल देवता का स्मरणकर पूजा अर्चन करते हैं।


पूजा करे पुजेरी रे, धोवा चाऊर चढ़ाई। पूजा करव मोर खोड़हड़ के जग में सोर बोहाई।। 

दोहों के साथ ही राऊत दोनों हाथों से लाठिया चलाते एक ही वार से जमीन पर रखे नारियल को तोड़ देता हैं। तदपश्चात सभी दोहे उचारते बाजे-गाजे के साथ नृत्य करते गौठान की ओर प्रस्थान करते है। साथ में झाँकियों के रुप में राधा-कृष्ण एवं उनके सखागण भी होते हैं जो गलियों में जगह-जगह लगाये गये दही की मटकियों को लूटते, तो कहीं झूला झूलते हुए लोगों को आल्हादित करते हैं।


सभी गौठान पहुँचकर खोड़हड़ देव की पूजा करते हैं, राऊत परिवार द्वारा दूध, दही व खीर अर्पित की जाती है तथा भक्तों में प्रसाद के रूप में बाँटी जाती है। गौठान आये गाँव के सकल देवी-देवता, डांग-डोरी को बाजे-गाजे के साथ नृत्य करते पुन: घर पहुंचाया जाता है। फिर राऊतगण राऊत नाच नाचते गाते घर-घर भ्रमण कर जोहार करते है व आशीष देते हैं। 

जइसे के मइया मया दिये, तइसे के देबो अशीष। बेटा बहू ले घर बसे, अऊ बेटी बसे दूरदेश।।

इस तरह मातर में देवी-देवताओं की ध्वज और राऊत नृत्यों की धूम के साथ ही अखाड़ा का प्रदर्शन और मड़ई-मेला का आयोजन गांव के उत्सव की रौनक को बढ़ाते हुये एकता और भाईचारा का संदेश देता है। मातर देखने आये ग्रामीण, दिनभर मेले में अनेक प्रकार की खई-खजाना और रईचुली का आनंद लेते हैं। रात्रि में छत्तीसगढ़ी सांस्कृतिक कार्यक्रम या नाचा-पेखन आदि का आयोजन, मनोरंजन के साथ-साथ अपनी लोक संस्कृति और परंपरा को भावी पीढ़ी तक पहुंचाने का दृश्य-श्रव्य माध्यम होता है।

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लेखक - लोकनाथ साहू 'आलोक', भेंड़िया (नवागाँव) बालोद मो.- 8085603265
परिमार्जन - जयंत साहू, डूण्डा रायपुर मो.- 9826753304

Ganesh chaturthi | गणेश चतुर्थी यानी गणपति उत्सव की धूम 10 सितंबर से, घर-घर विराजेंगे विघ्नहर्ता बप्पा जी

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मंगलमूर्ति गणेश जी की पूजा आराधना प्रतिवर्ष भाद्रपद मास के चतुर्थी तिथि से चतुदर्शी तक घर-घर में की जाती है। भगवान गणेश जी की जगह-जगह विशाल मंडप सजाकर दस दिनों तक भव्य उत्सव मनाया जाता है। इस वर्ष गणेशोत्सव का पर्व 10 सितंबर से 19 सितंबर तक धूमधाम से मनाई जाएगी। देश भर में गणेश उत्सव हर्ष और उल्लास के सा‍थ मनाई जाती है, पिछले कुछ वर्ष से कोरोना के कारण सार्वजनिक मंडपों में उल्लास कुछ कम जरूर हुए है लेकिन घरों में हर साल बप्पा जी विराजमान होते हैं।

सार्वजनिक गणेशोत्सव की शुरूआत

भगवान गणेश की पूजन परंपरा वैसे तो सदियों से चली आ रही है किन्तु सार्वजनिक गणेशोत्सव की शुरूआत महाराष्ट्र में 1893 से माना जाता है। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने गणेश उत्सव को राष्ट्रीय एकता का प्रतीक बनाकर, धार्मिक कर्मकांड से ऊपर उठाकर उसे आजादी की लड़ाई, छुआछूत दूर करने के लिए समाज को संगठित करने का जरिया बनाया। सार्वजनिक रूप से गणेश बिठाने की परंपरा का आयोजन आज एक बहुत बड़ा उत्सव का रूप ले चुका है, जो ने केवल महाराष्ट्र बल्कि अब देशभर में धूमधाम से मनाया जाता है। 

सार्वजनिक गणेशोत्सव में मूर्ति स्थापना

गणपति उत्सव के लिये गणेश जी की मूर्ति बनाने वाले कलाकार महीनों पहले से जुट जाते हैं। एक फीट ऊंचाई की छोटी मूर्ति से लेकर बीस फीट तक की भव्य मूर्ति बनाई जाती है, आकार के अनुसार दाम भी बड़ा होता है। सार्वजनिक स्थानों पर बिठाने के लिए समिति बनाकर चंदे की रकम से लाखों रूपये तक की साज-सज्जा की जाती है। मंडप बनाने का काम श्री कृष्ण जन्माष्टमी के बाद से शुरू हो जाता है। इस काम के लिये महानगरों में बाहर गांव से कारीगर बुलाया जाता है।  

भगवान गणेश की आरती

जय गणेश जय गणेश, जय गणेश देवा।
माता जाकी पार्वती, पिता महादेवा॥

एक दंत दयावंत, चार भुजा धारी।
माथे सिंदूर सोहे, मूसे की सवारी॥ जय गणेश...
 
पान चढ़े फूल चढ़े, और चढ़े मेवा।
लड्डुअन का भोग लगे, संत करें सेवा॥ जय गणेश...

अंधन को आंख देत, कोढ़िन को काया।
बांझन को पुत्र देत, निर्धन को माया॥ जय गणेश...

'सूर' श्याम शरण आए, सफल कीजे सेवा।
माता जाकी पार्वती, पिता महादेवा॥ जय गणेश...

दीनन की लाज रखो, शंभु सुतकारी।
कामना को पूर्ण करो, जाऊं बलिहारी॥ जय गणेश...

जय गणेश जय गणेश, जय गणेश देवा।
माता जाकी पार्वती, पिता महादेवा॥

भगवान गणेश की प्रचलित जन्म कथा

भगवान गणेश के जन्म को लेकर एक पौराणिक कथा प्रचलित है, जिसके अनुसार माता पार्वती ने एक बार अपने शरीर के मैल से एक बालक का निर्माण किया और उसमें प्राण डालते हुए कहा कि- "तुम मेरे पुत्र हो, तुम मेरी ही आज्ञा का पालन करना और किसी की नहीं। माता स्नान के‍ लिये जाते समय द्वार पर पहरा देने का आदेश देतु हुए कहा कि किसी को भी भीतर नहीं आने देना। कुछ देर बार वहां भगवान शंकर आ गये और अंदर जाने लगे जिसे देखकर ने उन्हेे माता की आज्ञा से रोका। भगवान ने उन्हें समझाने की पूरी कोशिश की पर बालक गणेश नहीं माने तब शंकर जी क्रोध में आकर त्रिशूल से बालक का सिर धड़ से अलग कर भीतर चले गए। 

इस घटना की जानकारी होने पर माता पार्वती नाराज हो गई। तदोपरांत भगवान शंकर के कहने पर विष्णु जी एक हाथी का सिर काटकर लाए और वह सिर उन्होंने उस बालक लगाकर जीवित कर दिया। भगवान शंकर सहित अन्य सभी देवताओं ने उस गजमुख बालक को अनेक आशीर्वाद दिए। तब से माता पार्वती और पिता महादेव के नंदन भगवान गणेश जी, गणपति, विनायक, विघ्नहरता आदि कई नामों से प्रथम पूज्यनीय हुए। 

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Pora Tihar। पोरा तिहार यानी पोला पर्व 6 सितंबर को कृषि प्रधान अचंलों में धूमधाम से मनाई जाएगी, बैलों की पूजा और अन्नमाता के गर्भधारण के लोकोत्सव में मिट्टी से बने नंदी और पोरा-चुकिया के खेल का है विशेष महत्व


कृषि संस्कृति से जुड़ा बहुत ही खास पर्व है पोरा, जिसे छत्तीसगढ़ के अलावा मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और कर्नाटक में विशेष रूप से मनाई जाती है। भाद्रपद मास के अमावस्या को मनाई जाने वाली इस पर्व को छत्तीसगढ़ में पोरा तिहार व महाराष्ट्र में पोला-पिठोरा व कर्नाटक में पोला कहा जाता है। कुछ प्रदेशों में इसे पिठोरी अमावस्या व कुशग्रहणी अथवा कुशोत्पाटिनी अमावस्या भी कहा जाता है। कृषि प्रधान अंचलों में अधिकांश लोकपर्व खेती से जुड़ा हुआ मिलता है और किसान सह परिवार उन उत्सवों को धूमधाम से मनाते हैं। इन पर्वों की खास विशेषता होती है कि किसान के साथ उनके घर की महिलाएं तथा बच्चों के लिए भी विविध परंपराओं का समावेश होता है। 

छत्तीसगढ़ में पोरा तिहार (pola festival) की लोक परंपराएं-

पोरा पर्व के दिन छत्तीसगढ़ में बैलों की विशेष पूजा होती है। इस त्योहार में कुम्हार (Potter)लड़कों के लिए मिट्टी के बैल व लड़कियों के लिए गृहणियों द्वारा उपयोग की जाने वाली बर्तनों का खिलौने बनाकर बेचते हैं। बच्चों के खेल के लिए बढ़ई (carpenter) द्वारा काठ का बैल बनाया जाता है। इस दिन किसान अपने घर के बैलों को नहला-धुलाकर कर कई रंग-बिरंगे पोषाक से श्रृंगार करते हैं। घर में ठेठरी, खुरमी, अरसा, सोहारी, देहरौही, चौसेला सहित अनेक छत्तीसगढ़ी व्यंजन (chhattisgarhi cuisine) बनाये जाते हैं। 

पोला पर्व का पूजा लोग अपने-अपने घरों में पारंपरिक तरीकों से करते हैं। महिलाएं एक स्थान में गोबर से लिपकर, चावल आटे अथवा धान से चऊक पुरती है। जिसमें लकड़ी की पिड़ुली रखकर मिट्टी के नंदी बैल व पोरा-चुकिया को रखा जाता है। तदोपरांत बंदन से सभी में टीका लगाते हैं, आटे के घोल से हाथा देते हैं। धूप-दीप से आरती करके, घर में बने छत्तीसगढ़ी व्यंजनों का भोग लगाया जाता है। 

छत्तीसगढ़ में पोरा पर्व की धूम-

छत्ती‍सगढ़ में पोरा पर्व में बैलों का विशेष महत्व होता है। इस दिन किसान बैल से कोई काम नहीं लेते है। उन्हें अनेक प्रकार के रंग-बिरंगे वस्त्रों से सजाया जाता है। सींग में रंग-रोगन के साथ ही मोरपंख, आभूषण आदि से श्रृंगार किया जाता है। बैलों को लेकर साहड़ा (सांड) ठउर में बैल सजावट, बैल दौड़ की प्रतियोगिताएं पोरा पर्व का विशेष आकर्षण होता है। इस दिन छोटे लड़के भी अपने मिट्टी या काठ के बैल को लेकर खेलते हैं। वहीं लड़कियां मिट्टी के खिलौने से खेलती हैं जिसे पोरा-चुकिया कहा जाता है। खेलने के बाद शाम को उसी स्थान में कुछ खिलौने को तोड़ आती है जिसे पोरा पटकना कहा जाता है। 

छत्तीसगढ़ में पोरा पर्व की मान्यताएं-

छत्तीसगढ़ में अधिकांश पर्व एक ओर कृषि से जुड़ा हुआ मिलता है तो दूसरी ओर भगवान महादेव से भी संजोग से संबंध होता है। पोला में बैलों की पूजा की जाती है और बैल भगवान शिव की सवारी है जिसे नंदी कहते है। छत्तीसगढ़ में नांदिया बइला भी कहा जाता है। नंदी का नाम महादेव से जुड़कर नंदेश्वर के रूप में भी पूजे जाते हैं। चूंकि किसान नंदी का उपयोग कृषि कार्यों में करते है, बैल के बिना खेती के काम को पूरा नहीं किया जा सकता है और किसान पोरा पर्व में उन्हें देव रूप में पूज कर उनके प्रति अपनी आस्था प्रकट करता है। 

छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा कहा जाता है, प्रमुख रूप से धान की फसल ली जाती है। जो भाद्रपद की अमावस्या अर्थात पोरा पर्व तक दूध भराने की स्थिति में होता है। जिसे लोक भाषा में धान का पोटराना कहा जाता है अर्थात धान गर्भ धारण करती है। पोरा पर्व को एक तरह से उसी खुशी का लोकोत्सव भी कहा जा सकता है। 

छत्तीसगढ़ में अलिखित साहित्य का विपूल भंडार है, जिसे नई पीढ़ी पढ़ते नहीं गढ़ते हैं। बुजुर्गों ने अपनी परंपराओं व संस्कृति आदि को पर्वों के रूप में ऐसा संरक्षित करने का रास्ता निकाला है जो सदियों तक छत्तीसगढि़या जनों में पुष्पित और पल्लवित होती रहेगी। पोरा के संदर्भ में कहा जाए तो बच्चों को मिट्टी के बैल से खेलने को दिया जाता है यानी कृषि कार्य और उसमें प्रमुख उपयोगी नंदी से उनका परिचय कराया जाता है ताकि वह भी बड़ा होकर बैल से खेती का काम करें। 

इसी तरह महिलाओं द्वारा घर की रसोई में उपयोग किये जाने वाले बर्तन आदि से जोड़ने के लिए पोरा के अवसर पर उन्हें मिट्टी के खिलौने दी जाती है जिसमें चुल्हा, कढ़ाई, चम्मच, जाता, सुराही, मटका, गिलास, लोटा सहित अन्य सामान होते हैं। जो खेल-खेल में ही घर-संसार की सीख बच्चों में बालपन में देने की एक कोशिश भान पड़ती है और उसे उत्सव का रूप देकर जीवन का आनंद लेने की परंपरा छत्तीसगढ़ की एक बड़ी विशेषता है।

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Hartalika teej 2021 | तीजा यानी हरतालिका तीज का व्रत 9 सितंबर को रखेंगी महिलाएं, मायके में सुख-समृद्धि के लिये होगी महादेव की उपासना... जानें व्रत कथा और पूजन विधि



तीजा teeja यानी हरतालिका तीज (Hartalika Teej) का व्रत भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीय तिथि को रखा जाता है जो कि इस बार 9 सितंबर 2021 को आने वाला है। तीज का व्रत पर्व भारत के कई प्रांतों में धूमधाम से मनाया जाता है। अन्य पर्वों की तरह तीज को मनाने की पूजन विधि के साथ ही व्रत के नाम में भी आंचलिक विविधताएं होती है। उत्तर भारत में इसे हरतालिका तीज, मध्य भारत के कुछ प्रांत में कजरी तीज कहा जाता हैं और छत्तीसगढ़ में इसे तीजा पर्व के रूप में मनाया जाता है। 

छत्तीसगढ़ में तीजा का पर्व(Teeja festival in Chhattisgarh)- 

छत्तीसगढ़ में तीजा का पर्व आस्था और सौहाद्रपूर्वक भादो के अंजोरी पाख की तीज को मनाया जाता है। विवाहित औरतों को ससुराल से तीजा लाने के‍ लिए मायके से भाई, भतीजा, पिता आदि जाते हैं। नई नवेली को तीजा के लिए हरेली (Hareli Festival) के बाद लिवाने जाते हैं वहीं अन्य महिलाओं को राखी (Rakshabandhan) अथवा पोरा के बाद लिवाने की परंपरा लोक में प्रचलित है। तीजा का पर्व छत्तीसगढ़ में महिलाएं मायके में आकर मनाती हैं। भादो के दूज की रात को महिलाएं मायके पक्ष के रिश्तेदारों के घर ‘करू भात’ खाने जाती हैं। व्रत रखने वाली महिलाओं को करेला की सब्जी का भोजन कराया जाता है चूंकि करेला (Bitter gourd Vegetable) कड़वा होता है जिसका छत्तीसगढ़ी में शाब्दिक अर्थ ‘करू’ है शायद इसी वजह से करू भात नाम प्रचलन में आया होगा। 

तीज को महिलाएं दिन से रातभर तक उपवास रखती हैं। 36 घंटे का यह सबसे लंबा समय का कठिन व्रत है। इस व्रत को मायके में विधवा औरतें भी रखती है। ऐसी नव विवाहिता जिनका प्रथम तीज व्रत होता है उनके लिये मायके में विशेष तैयारी की जाती है। इस दिन महिलाएं निर्जला व्रत के साथ ही रात को जागरण कर देवो के देव महादेव और माता पार्वती की पूजा अर्चना करती हैं। ग्राम्य संस्कृति में महादेव व पार्वती की पूजा प्रतिकात्मक रूप से गौरा-गौरी के रूप में होता है। प्रत्येक धार्मिक अनुष्ठान, मांगलिक आयोजन आदि में मिट्टी अथवा गोबर से गौरा-गौरी बनाई जाती है। इसी तरह से तीज के अवसर में भी महादेव और पार्वती की पूजा मंदिर आदि में करने के बजाए महिलाएं अपने-अपने घरों में मिट्टी से शिवलिंग बनाकर करती हैं।

तीज के दूसरे दिन को छत्तीसगढ़ में ‘फरहार’ कहा जाता है अर्थात फलाहार से उपवास को तोड़ा जाता है। लोक शब्दावली में इस दिन के फलाहार को फरहार अथवा ‘बासी’ भी कहा जाता है। ‘बासी’ को महिलाएं रात्रि में बनाकर रखती है जिसमें छत्तीसगढ़ी व्यंजन बरा, सोहारी, ठेठरी, खुरमी, अरसा, गुलगुला भजिया आदि शामिल होता है। महिलाएं एक दूसरे के घर ‘बासी’ खाने जाती हैं। इस दौरान महिलाओं को यथा उचित भेट स्वरूप रूपए, वस्त्र आदि दी जाती है।

छत्तीसगढ़ के लोक पर्व सावन में हरेली, राखी और भादो में कमरछठ, जन्माष्टमी और पोरा के बाद तीजा का विशेष महत्व होता है। तीजा के विषय में कहा जाता है कि यह पति की लंबी आयु के लिये रखी जाती है। छत्तीसगढ़ संदर्भ में देखे तो यहां विधवा औरतें भी व्रत रखती हैं और सभी विधि विधान मायके में संपन्न होता है जिसके आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि मायके की सुख-समृद्धि के लिये भी यह व्रत रखा जाता होगा। महादेव की पूजा से पार्वती का संबंध है और इससे एक पौराणिक कथा प्रचलित है जिसमें पार्वती महादेव को पति रूप में पाने के लिए कठिन व्रत करती हैं। इस आधार पर पति की लंबी आयु और कुवांरी कन्याएं अच्छे वर की कामना से इस व्रत को करने लगी हैं।   

उत्तर भारत में हरतालिका व्रत- 

हरतालिका व्रत को हरतालिका तीज के नाम से जाना जाता है। यह व्रत भाद्र के शुक्ल पक्ष की तृतीया को रखा जाता है। इस दिन स्त्रियाँ महादेव-पार्वती की पूजा करती हैं। इस व्रत में पूरे दिन निर्जला उपवास रखा जाता है और अगले दिन पूजन के पश्चात ही व्रत तोड़ा जाता है। कहा जाता है विवाहित महिलाएं अपने सुहाग को अखण्ड बनाए रखने और अविवाहित युवती मन मुताबिक वर पाने के लिए हरतालिका तीज का व्रत रखती हैं। 



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Hal Shasti : हलषष्ठी यानी कमरछठ का व्रत 28 अगस्त को रखेंगी माताएं, संतान प्राप्ति व लंबी आयु के लिये छ: प्रकार के अन्न, भाजी और छ: कहानी के साथ सगरी पूजन का विशेष महत्व


हलषष्ठी यानी कमरछठ व्रत माताएं संतान प्राप्ति व उनकी लंबी आयु के लिए रखती हैं। हर साल भादो मास की कृष्ण पक्ष के छठ को यह व्रत रखा जाता है। यह पर्व अलग-अलग अंचलों में अनेक नामों से जाना जाता है, उत्तर भारत में इसे हलधर बलराम जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाता है तथा दक्षिण में कुमार कार्तिकेय के जयंती के रूप में मनाया जाता है। छत्तीसगढ़ में इस व्रत को कमरछठ या खमरछठ कहते है। हलषष्ठी का पर्व इस वर्ष 28 अगस्त 2021, शनिवार को मनाया जाएगा।  

छत्तीसगढ़ में विवाहित स्त्री ही इस व्रत को रखती हैं। ऐसी मान्यता है कि जो महिला इस व्रत को रखकर विधी-विधान से पूजा करती है उनको संतान की प्राप्ति होती है। जिनके संतान है वे माताएं अपने पुत्र की लंबी आयु के लिए कमरछठ का उपवास रखती हैं। 

धार्मिक मान्यता के अनुसार इस दिन भगवान श्री कृष्ण के बड़े भाई बलराम जी का जन्म हुआ था। बलराम जी को धरती का भार उठाने वाले शेषनाग का अवतार माना जाता है और बलराम जी का प्रमुख शस्त्र हल है इसीलिए इस दिन को हलषष्ठी भी कहते हैं। व्रत में हल का भी विशेष महत्व है, हल से जुते हुए किसी भी वस्तु का उपयोग नहीं किया जाता है।

कमरछठ की पूजन विधी-

छत्तीसगढ़ एक कृषि प्रधान राज्य है और खेती आजीविका का प्रमुख आधार। शायद यही वजह है कि सभी पर्व खेती से जुड़ा हुआ मिलता है। कमरछठ के दिन सुबह से ही व्रत का नियम शुरू हो जाता है, महिलाएं महुआ पेड़ के लकड़ी से दातुन कर, स्ना्न करके निर्जला व्रत रखती है। गांव में खेती के काम को पूरी तरह बंद रखा जाता है, खास कर महिलाएं खेतों में पांव नहीं रखती है, और न ही खेत में हल से उगे वस्तु का उपयोग करती हैं। 

दोपहर को गांव की महिलाएं एक स्थान में पूजा के लिए एकत्रित हो जाती है। वहां पर एक प्रतिकात्मक सगरी बनाया जाता है जिसे महादेव और पार्वती का प्रतीक भी माना जाता है। सगरी के पास मिट्टी के खिलौने- भौरा, बाटी आदि के साथ हरेली में बनाये गए गेड़ी को भी रखा जाता है। सगरी के पट को काशी पौधे के पुष्प से सजाया जाता है। 

उपवास रखने वाली माताएं अपने घर से पूजन सामग्री लेकर जाती है जिसमें काशी के पौधे व पुष्प के अलावा धान सहित के छ: प्रकार बीज को भुनकर प्रसाद बनाकर रखी रहती है। सगरी परिक्रमा कर उनमें छ: लोटा जल अर्पित कर नि:संतान माता पुत्र की कामना करती है तथा जिनकी संतान है वे उनकी लंबी आयु की कामना करती हैं। पूजा के साथ ही छ: कहानी भी सुनती है जो कि संतान प्राप्ति और उनकी लंबी आयु से प्रेरित होता है।

सगरी पूजन के बाद घर आकर महिलाएं अपने बच्चों के पीठ पर पोती मार कर आशीष देती हैं। शाम को समय उपवास तोड़ने के लिए माताएं विशेष प्रकार का प्रसाद बनाती हैं। जिसमें पसहर चावल का भोजन, भैस के दूध से बना हुआ दही, छ: प्रकार की भाजी का मिश्रण जिसमें मुनगा भाजी की अधिकता होती है। खम्हार वृक्ष के पत्तों से बने पत्तल और दोना में प्रसाद निकाला जाता है। पहला भोग इष्ट‍ देव, पशु, पक्षी आदि को देने के बाद सह परिजन ग्रहण करते हैं।  

हलषष्ठी व्रत के लिए सामाग्री- 

पसहर चावल, दोना पत्तल, महुआ लकड़ी का दातुन व चम्मच के लिए, छ: प्रकार के अन्न धान लाई, भुना हुआ चना तथा महुआ, गेहूँ, अरहर, छ: प्रकार की भाजी मुनगा, कद्दु, सेमी, तोरई, करेला, मिर्च, भैंस की दूध-दही, काशी फूल, के अलावा पोता जिसे नये कपड़ें के टुकड़े को हल्दी पानी में भिगाया जाता है, को पूजा के बाद बच्चों के पीठ को छ: बार मारते है। 

कमरछठ की 10 सबसे विशेष बातें -:

1. यह पर्व भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि को मनाया जाता है। संतान प्राप्ति व उनके दीर्घायु, सुखमय जीवन की कामना लिए माताएं निर्जल व्रत रखती है।
2. इस दिन माताएं सगरी बनाकर भगवान शिव और पार्वती की पूजा करती हैं और उनके पुत्र के समान ही श्रेष्ठ पुत्र की कामना करती हैं।
3. इस दिन फलाहार के रूप में ऐसे भोजन और साग-सब्जी का उपयोग करती हैं, जिसे हल के द्वारा न बोया गया हो, अर्थात प्राकृतिक रूप से उत्पन्न वस्तुओं को ही ग्रहण किया जाता हैं। जिसमें पसहर चावल प्रमुख आहार होता है। 
4. इस पूजन की सामग्री मे पसहर चावल, महुआ के पत्ते में धान की लाई, भैस के दुध, दही व घी आदि रखते है।
5. सगरी में बच्चों के खिलौनों भौरा, बाटी आदि भी रखा जाता है साथ ही हरेली में बच्चों के चढ़ने के लिए बनाये गेड़ी को भी सगरी में रखकर पूजा करते हैं।
6. सगरी के पास बैठकर व्रत रखी हुई माताएं हलषष्ठी माता के छः कहानी को कथा के रूप में श्रवण करती हैं।
7. 'कमरछठ' व्रत के बारे में अनेक पौराणिक कथा प्रचलित है जिसमें से एक देवकी-वसुदेव की कथा है। वसुदेव और देवकी के बेटों को एक-एक कर कंस ने कारागार में मार डाला। जब सातवें बच्चे का जन्म का समय नजदीक आया तो देवर्षि नारद जी ने देवकी को हलषष्ठी देवी के व्रत रखने की सलाह दिया। देवकी ने इस व्रत को सबसे पहले किया जिसके प्रभाव से उनके आने वाले संतान की रक्षा हुई। 
8. हलषष्ठी का पर्व भगवान कृष्ण व बलराम जी से भी संबंधित है। हल से कृषि कार्य किया जाता है। यह बलराम का प्रमुख हथियार भी है। बलदाऊ भैया कृषि कर्म को महत्व देते थे, वहीं भगवान कृष्ण गौ पालन को। इसलिए इस व्रत में हल से जुते हुए जगहों का कोई भी अन्न आदि व गौ माता के दुध, दही, घी आदि का उपयोग वर्जित है। उत्तर भारत में इसे हलधर बलराम जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाता है तथा दक्षिण में कुमार कार्तिकेय जयंती के रूप में मनाया जाता है।
9. इस व्रत में पूजन के बाद माताएँ अपने संतान के पीठ वाले भाग में कमर के पास पोता (कपड़े का टुकड़ा जिसे हल्दी पानी से भिगोकर रखा जाता है) मारकर अपने आँचल से पोछती हैं जो कि माता के द्वारा दिया गया रक्षा कवच का प्रतीक है।
10. इस व्रत-पूजन में छः की संख्या का अधिक महत्व है। जैसे- भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष का छठवाँ दिन,  छः प्रकार का भाजी, छः प्रकार के खिलौने,  छः प्रकार के अन्न का प्रसाद तथा छः कहानी सुनना आदि।



Bhojli - भोजली | भोजली पर्व कब, कैसे, क्यों मनाया जाता है तथा ‘अहो देवी गंगा...’ भोजली गीत का क्या महत्व है..., जानने के लिए पढ़े


भोजली छत्तीसगढ़ का धार्मिक लोकपर्व है जिसे महिलाएं सावन के महीने में धूमधाम से मनाती हैं। भोजली पर्व वास्तव में प्रकृति पूजन, आस्था, मनोकामना और मैत्री भाव के उदय का अनुष्ठान है। इसमें सभी उम्र की महिलाएं हिस्सा लेती हैं, किन्तु विवाहित हमजोली स्त्रियां तथा युवतियों के लिए खास महत्व का होता है।

छत्तीसगढ़ के संदर्भ में देखा जाए तो अधिकांश पर्व आदिदेव महादेव और माता पार्वती से जुड़ा हुआ मिलता है। जिसे लोकांचल में बुढ़ादेव और बुढ़ीमाई के रूप में पूजा जाता है। गोंडी समुदाय के साथ ही मूल छत्तीसगढि़या जन केवल भोजली नहीं कहते है अपितु ‘भोजली दाई’ संबोधित करते हैं। इससे यह बात भी स्पष्ट‍ होता है कि भोजली सांस्कृतिक आयोजन, मित्रता पर्व अथवा श्रावण हरियाली उत्सव आदि न होकर एक धार्मिक अनुष्ठान है।   

भोजली क्या है इस विषय में प्रकाश डाले तो, इसमें किसी विशेष देवी-देवताओं की आराधना नहीं होती है बल्कि एक बांस की नई टोकरी में बोए गये गेहूं, धान, जौ, उड़द की अंकुरित पौध को ही 'भोजली' कहा जाता है।


भोजली को श्रावण मास की पंचमी तिथि के बाद बोयी जाती है। सांस्कृतिक रूप से समृद्ध छत्तीसगढ़ अंचल में कुछ मान्यताओं में विविधता भी होती है। जैसे कुछ क्षेत्र में नागपंचमी के दिन होने वाले अखाड़े की गोदी से मिट्टी लाकर भोजली बोने की परंपरा है। किन्तु सभी गांव में अखाड़े की परंपरा नहीं है अपितु महिलाएं, कुवारी कन्या उपजाऊ माटी में आरूग राख डालकर खाद बनाती हैं और उसमें ही भोजली बोती हैं। 

टुकनी में बोये गये बीज से धीरे-धीरे पौध निकलना शुरू होता है। भोजली बोने वाली महिलाएं प्रतिदिन भोजली माता की सेवा गीत के माध्यम से करती है जिसे ‘भोजली गीत’ कहते हैं। यह गीत श्रावण मास के अंत तक चलता है। पारंपरिक भोजली गीत का धुन अब किवदंती हो चुका है। वर्तमान पीढ़ी उस परंपरा को आगे बढ़ाते हुए नव सृजन भी करने लगे हैं। भोजली को माता संबोधित करते हुए लोक में अनेक गीत और कथाएं सुनाई जाती है। 

भोजली की सेवा में भोजली गीत के साथ ही घर के अंदर रखे टुकनी में प्रतिदिन हल्दी पानी का छिड़काव करते हैं। रोज पूजा होती है। लगभग जवांरा पर्व की तरह ही भोजली पर्व में भी भक्ति-भावमय अराधना के गीत समुचे छत्तीसगढ़ अंचल में सुनाई देता है। 

भोजली का विसर्जन श्रावण मास का अंत होने के साथ ही शुरू हो जाता है। रक्षाबंधन के दूसरे दिन होने के कारण माताएं, बहने भी इस भोजली विसर्जन में शामिल होती हैं। बांस के टुकनी में बोए गये भोजली को सिर पर रखकर कतारबद्ध जुलूस के रूप में घर से तालाब, जलाशय, नदी में विसर्जित करने के लिये निकाला जाता है। इस दौरान भी भोजली गीत गायी जाती है। भोजली को सरोवर में धोकर, मिट्टी से अलग हुए हरी-पीली गेहूं की पौध को उसी टुकनी में रखकर घर वापस लाया जाता है। 

इस दिन भोजली बधने का रिवाज भी होता है। भोजली एक मित्रता का नाता है जिसे हमउम्र कन्या या विवाहित स्त्री भोजली की कुछ कली को एक दूसरे के कान में खोच कर बधती हैं। साथ ही भोजली की कुछ कली को घर के बड़ों को देकर उनसे आशीर्वाद लेते है, तो वहीं घर के बड़े-बुजुर्ग भी छोटो को देकर आशीष देते हैं। छत्तीसगढ़ के जैसा मितानी परंपरा देश में कहीं और नहीं हैं। भोजली बधने वाले जीवन भर एक दूसरे को नाम से नहीं पुकारते हैं। वे ‘भोजली’ कहकर ही संबोधित करते हैं। ये मित्रता का रिश्ता केवल उन्हीं दो महिलाओं के बीच नहीं होता बल्कि इसे घर के सभी लोग भी जीवनभर निभाते हैं। 

भोजली गीत भी अब अन्य संस्कार और धार्मिक गीतों की तरह ही डिजिटल हो चुका है। गांव में घर की औरतें तो कुछ गा भी लेते हैं लेकिन शहरों में सब कुछ रेडियो के भरोसे होने लगी है। हर पर्व उत्सव और संस्कार के साथ धार्मिक अनुष्ठान रेडियो में समाहित हो चुका है। जिस तेजी से आंचलिक लोक कंठ से पारंपरिक गीत बिसारे जा रहे हैं उतनी ही तेजी से छत्तीसगढ़ के लोक कलाकार वीडियो एल्बम आदि के माध्यम से संग्रहित करने का काम बखूबी कर रहे हैं। आइये देखे कुछ बड़े कलाकारों की लो‍कप्रिय भोजली गीत- 

भोजली गीत- 

अहो देवी गंगा, अहो देवी गंगा...
देवी गंगा, देवी गंगा लहर तुरंगा हो लहर तुरंगा।
हमर भोजली देवी के भीजे ओठों अंगा।। 
अहो देवी गंगा, अहो देवी गंगा...
मांड़ी भर जोंधरी, पोरिस कुसियारे।
जल्दी जल्दी बाढ़ौ भोजली, हो वौ हुसियारे।।
अहो देवी गंगा, अहो देवी गंगा...

आई गई पूरा, बोहाई गई मालगी।
हमरो भोजली देवी के, सोन सोन के कलगी।।
अहो देवी गंगा, अहो देवी गंगा...
लिपी डारेन पोती डारेन, छोड़ि डारेन कोनहा।
सबों पहिरैं लाली चुनरी, भोजली पहिरै सोनहा।।
अहो देवी गंगा, अहो देवी गंगा...
आई गई पूरा, बोहाई गई झिटका।
हमरो भोजली देवी ला, चन्दन के छिटका।।
अहो देवी गंगा, अहो देवी गंगा...

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छत्तीसगढ़ी पत्रकारिता के पुरोधा जागेश्वर प्रसाद द्वारा लिखित निबंध संग्रह ‘हीरा छत्तीसगढ़’ का हुआ विमोचन


छत्तीसगढ़ राज्य, छत्तीसगढ़ी राजभाषा निर्माण के प्रमुख आंदोलनकारी एवं छत्तीसगढ़ी पत्रकारिता के पुरोधा जागेश्वर प्रसाद जी द्वारा रचित निबंध संग्रह ‘हीरा छत्तीसगढ़’ का विमोचन उनके 76 वें जन्मदिन के अवसर पर आज आनंद समाज वाचनालय सभागार में किया गया। विमोचन समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डॉ. शिवकुमार पांडेय, अध्यक्षता किए वरिष्ठ कवि, गीतकार रामेश्वर वैष्णव तथा विशेष अतिथि के रूप में वरिष्ठ संस्कृति कर्मी अशोक तिवारी जी उपस्थित थे।

इस अवसर पर मां शारदा के छायाचित्र में माल्यार्पण कर कार्यक्रम संचालक डॉ. देवधर दास महंत द्वारा छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के प्रमुख आंदोलनकारी एवं छत्तीसगढ़ी पत्रकारिता के पुरोधा जागेश्वर प्रसाद को 76 वें जन्मदिन की बधाई देते हुए अतिथियों के करकमलों द्वारा ‘हीरा छत्तीसगढ़’ का विमोचन कराया गया। महाकवि रविन्द्र नाथ टैगोर जी से प्रेरित होकर छत्तीसगढ़ राज्य के अनमोल हीरा जागेश्वर प्रसाद जी द्वारा लि‍खित 23 निबंधों के संग्रह में टैगोर जी की कृति ‘आमार सोनार बांगला’ की तरह ही छत्तीसगढि़या समाज को जागृत करने वाले संदेश के साथ ही छत्तीसगढ़ के 16 विभूतियों की जीवन परिचय का भी सामवेश किया गया है। 


विमोचन समारोह के मुख्य अतिथि डॉ. शिवकुमार पांडेय ने इस अवसर पर जन्मदिन की बधाई देते हुए कहा कि ‘हीरा छत्तीसगढ़’ के लेखक जागेश्वर जी स्वयं छत्तीसगढ़ के लिए अनमोल हीरा हैं। इस प्रदेश में साहित्य को लेकर बहुत बड़ा काम हुआ है, लेकिन ये हमारी विडंबना रही कि राष्ट्रीय स्तर पर पहचान नहीं मिल पाया। छत्तीसगढ़ में ऐसे अनमोल रत्नों का भंडार है जिसे तरासने की जरूरत है। रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय द्वारा छत्तीसगढ़ी भाषा में एम.ए. कराया जा रहा है, जो भाषा के विकास के लिए एक बड़ा काम है, इसे और आगे बढ़ाना युवा पीढी की जिम्मेदारी है। 

कार्यक्रम को संबोधित करते हुए वरिष्ठ संस्कृति कर्मी अशोक तिवारी जी ने कहा कि 50 वर्षों से संस्कृति के क्षेत्र में काम कर रहा हूं और इस दौरान भारत के कई राज्यों की संस्कृति को जानने का मौका मिला है। छत्तीसगढ़ के संदर्भ में कहा जाए तो यहां अलग राज्य बनने के बाद भी भाषा और संस्कृति को लेकर कोई ठोस कार्य प्रदेश सरकार द्वारा नहीं किया गया है। सन् 1875 के आसपास असम में बसे छत्तीसगढ़ के मूल निवासी हमसे बेहतर अपनी संस्कृति को सहेजने का कार्य कर रहे हैं। वें मीलों दूर असम में बसे होने के बावजूद छत्तीसगढ़ी संस्कृति को बचाने के लिए निरंतर बैठक, विचार संगोष्ठी आदि करते रहते हैं। प्रदेश सरकार में नेता और मंत्री भले ही छत्तीसगढि़या है लेकिन जो लोग इस राज्य को चला रहे हैं उन्हे यहां की संस्कृति और भाषा से कोई सरोकार नहीं है। अफसरों की यही सोच छत्तीसगढ़ की संस्कृति की दुर्गति का कारण है।


इस अवसर पर ‘हीरा छत्तीसगढ़’ के लेखक जागेश्वर प्रसाद जी ने अपनी कृति पर प्रकाश डालते हुए कहा कि छत्तीसगढ़ी बोलने मात्र से ही भाषा की सेवा नहीं हो जाती, उसके लिए तड़प होनी चाहिए। आज प्रदेश के मुखिया छत्तीसगढ़ की पृष्ठ भूमि से है लेकिन वें भी अपनी मूल से हटकर, तीज-त्योहारों में संस्कृति को समेट रहे हैं। जबकि पहली प्राथमिकता छत्तीसगढ़ी भाषा का राजकाम में उपयोग करना और प्राथमिक कक्षा तक पढ़ाई कराने की होनी चाहिए, जो अब तक नहीं हो रहा है। पढा़ई के माध्यम और आठवीं अनुसूची के लिए अभी और लड़ाई लड़ने की जरूरत है साथ ही हमें छत्तीसगढि़या मुख्यंमंत्री को भी छत्तीसगढ़ी भाषा में काम करने के लिए बाध्य करना होगा। कार्यक्रम में आगे आभार व्यक्तव्य में देते हुए प्रदेश के वरिष्ठ कवि, गीतकार रामेश्वर वैष्णव ने कहा कि वतर्मान मुख्यमंत्री से बहुत ही ज्यादा आपेक्षा है। कला-साहित्य-संस्कृति की समझ के साथ ही वें छत्तीसगढ़ के राजगीत के रचयिता डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा के परिवार से ताल्लुक रखते हैं। श्री वैष्णव कहते है कि राजकाज, पढ़ाई और आठवीं अनुसूची से भी ज्यादा जरूरी काम भाषा का मानकीकरण है। छत्तीसगढ़ी लेखन में एकरूपता नहीं है, लेखक अपनी-अपनी आंचलिकता के प्रभाव में शब्दों को विकृत ढंग से लिख रहे हैं। यदि राजभाषा को समृद्ध करना है तो मानक शब्दावली जरूरी है। 


जागेश्वर प्रसाद जी द्वारा रचित निबंध संग्रह ‘हीरा छत्तीसगढ़’ के विमोचन के अवसर पर साहित्यकार डॉ. पंचराम सोनी, रामेश्वर शर्मा, चंद्रशेखर चकोर, जयंत साहू, गोविंद धनगर, डॉ. पुरूषोत्तम चंद्राकर, मन्नूलाल यदु, विमल कुर्रे, काविश हैदरी, देवेन्द्र कश्यप, सुश्री ममता अहार, डॉ. आर. डी. मानिक, अशोक कश्यप, डॉ. रामलाल वर्मा, रमेश दानी, इंद्रदेव यदु, बंधु राजेश्वर राव खरे, डॉ. सुखदेव राम साहू, डॉ. मुक्ति बैस, इंजी. अशोक ताम्रकार, अनिल दुबे, शीलकांत पाठक एवं डॉ. अर्चना पाठक सहित अन्य कलाकार, गीतकार व बुद्धिजीविगण शामिल थे।

सरकारी अनुदान से चिकित्सा में निजी निवेश को मिलेगा बल

        


आजादी के इतने वर्षों बाद भी अब तक भारत के गांवों में मूलभूत सुविधाएं शहरों की अपेक्षा बहुत ही कम है। रोटी, कपड़ा और मकान जैसी बड़ी आवश्यकताओं की पूर्ति तो वें जैसे-तैसे कर ही लेते है लेकिन शिक्षा और स्वास्थ्य अब भी कोसो दूर है। शासन द्वारा इन दूरियों को कम करने की लगातार कोशिश हो रही है। शहरों में शिक्षा और स्वास्थ्य में तेजी से आये बदलाव का एक बड़ा कारण इसमें निजी भागीदारी को माना जा रहा है। प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च तकनीकी शिक्षा तक में भी निजी शिक्षण संस्थानों ने क्रांतिकारी बदलाव किये है। एक तरह से देखा जाए तो शासकीय से बेहतर निजी स्कूलों की शिक्षा को माना जाता है, पालक अपने बच्चों को सरकारी के बजाए प्राइवेट स्कूल में पढ़ाना चाहते हैं। इसी तरह स्वास्थ्य में भी निजी अस्पतालों ने बड़े शहरों में बेहतर काम किया है। आधुनिक तकनीक के साथ सर्वसुविधायुक्त निजी अस्पताल अब अमीरों के साथ गरीबों को भी रास आ रहा है। हालांकि निजीकरण के कारण शिक्षा और स्वास्थ्य काफी महंगे हुये है लेकिन लोग बेहतरी के लिये पैसा बहाने से नहीं डरते। और फिर गरीबों के लिए इन दोनों संस्थानों में विभिन्न शासकीय योजनाओं के तहत लाभ भी मिलता है। 

        हाल ही में छत्तीसगढ़ सरकार ने स्वास्थ्य के क्षेत्र में ग्रामीणों को बेहतर सुविधा मुहैया कराने के उद्देश्य से गांवों में प्राइवेट अस्पताल बनाने में सहयोग करने की कार्य योजना को अमली जामा पहनाना शुरू कर दिया है। पिछले दिनों मुख्यमंत्री भूपेश बघेल द्वारा यह घोषणा की गई कि नवा रायपुर में 25 एकड़ की भूमि को निजी अस्पतालों के लिये आरक्षित रखा गया है। वहां सर्वसुविधायुक्त ऐसे अस्पताल बनेंगे जो बड़े महानगरों में होते है, छत्तीसगढ़ की जनता को किसी भी बीमारी के उपचार के लिए राज्य से बाहर जाने की जरूरत नहीं होगी। और यदि बाहर ले जाने की जरूरत महसूस हुई तो अस्पताल से ही सीधे शिप्ट करने की व्यवस्था बनी रहेंगी। ग्रामीण अंचलों में भी स्वास्थ्य की सुविधा को बेहतर करने के लिये मुख्यमंत्री ने कहा है कि जो चिकित्सक गांव में निजी अस्पताल बनाना चाहते हैं उन्हे अनुदान भी मिलेगा। चिकित्सा में निजीकरण तो था ही लेकिन सरकार द्वारा मदद मिलने से निश्चित ही और भी व्यापक रूप से छोटे कस्बों में भी स्वास्थ्य की बेहतर सुविधा मिल सकेंगे।

        गत दो वर्ष से जिस प्रकार वैश्विक महामारी कोरोना ने उपचार के अभाव में लोगों की जाने ली है, स्वास्थ्य के क्षेत्र में निजीकरण के फैसले को अच्छी और दूरगामी सोच ही कहा जा सकता है। दूसरी तरफ देखा जाए तो निजी अस्पतालों में सुविधाओं के साथ उपचार महंगा भी होता है। कई बार आम जनता पैसों के आभाव में ईलाज नहीं करा पाते। कुछ तो अपनी जमीन जायदाद तक बेच कर उपचार करवाते हैं। जान है तो जहान है के जुमले पर, लोग पैसे होने से पहला विकल्प निजी अस्पताल ही चुनते हैं। शहरों में न जाने क्यों लोग सरकारी अस्पतालों में सुविधा होने के बावजूद प्राइवेट अस्पतालों में जाते है, वहीं दूसरी तरफ देखे तो छत्तीसगढ़ में कई ऐसे ग्रामीण अंचल है जहां स्वास्थ्य सुविधा ही नहीं है। सुदूर इलाकों में तो आज भी पारंपरिक पद्धति द्वारा उपचार किया जाता है, यहां तक की झाड़-फूंक और तंत्र-मंत्र का भी सहारा लेते है अब यदि प्राइवेट अस्पतालों को अनुदान देने की सरकार की नीति पर अस्पताल ग्रामीण इलाकों में बनने लगे तो निश्चित ही लोगों को इसका लाभ मिलेगा। 

सरकार ने सरकारी अस्पतालों की सुविधाएं गांव-गांव तक पहुंचाने व अत्याधुनिक उपचार तकनीक मुहैया कराने के बजाए प्राइवेट अस्पताल खुलने में मदद की घोषणा कर दी। जबकि ये बात आम है कि प्राइवेट अस्पताल में इलाज महंगा होता है, जिनके पास पैसा होता है वही लोग प्राइवेट अस्पतालों में जाते हैं। कोरोना काल में यह भी देखा गया है कि संक्रमित मरीजों के उपचार में निजी अस्पतालों ने लाखों रूपये तक वसूले हैं। कई बड़े अस्पतालों ने तो 5 से 25 लाख तक का पैकेज रखा था, महामारी के दौर में मोटी कमाई का जरिया बना था, कुछ अस्पतालों पर तो कार्यवाही भी हुई, कुछ ने कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है। दौर चाहे जो भी रहा हो लेकिन सरकारी अस्पताल गरीबों के लिये किसी वरदान से कम नहीं, जीवन की चाह लेकर गरीब तपके के लोग दूर-दूर से सरकारी अस्पताल में ही पहुंचते हैं। कोरोना काल में प्रदेश के सभी छोटे-बड़े सरकारी अस्पतालों ने विभिन्न माध्यमों से अपनी सुविधाओं में आमूलचूल विस्तार किया है। दवाओं के साथ छोटी मशीन व ऑक्सीजन आदि लोगों के दान से प्राप्त हुआ है। जिन अस्पतालों में अक्सर स्टाफ के समय पर नहीं पहुंचने की शिकायते होती थी वहां भी चिकित्सकों के साथ पूरे स्टाफ ने अथक मेहनत से लोगों की जाने बचाये हैं। यदि ऐसी स्वास्थ्य के प्रति सजगता हमेशा बनी रहे तो शायद ही की कोई बीमारी से अकाल मौत मरेगा। 

- जयंत साहू, रायपुर [98267-53304]


माधवराव सप्रे और पहली हिन्दी कहानी 'एक टोकरी भर मिट्टी'


    छत्तीसगढ़ की धानी धरती रत्नगर्भा होने के साथ ही साहित्यि का तक्षशिला भी है। इस अंचल से अनेक कलमवीर निकले जिन्होंने लेखन की धार से समुचे धरा को नामचीन बनाये रखा। शुरूआती कहानीकारों में एक बड़ा नाम आता है माधवराव सप्रे का जो छत्तीसगढ़ की गोरेल्ला पेंड्रा मरवाही से ताल्लुक रखते हैं। बिलासपुर शहर से काफी दूर वनांचल में साहित्य का मशाल जलाये रखना एक महान कथाकार माधवराव सप्रे का छत्तीसगढ़ से होना उतना ही गौरवांवित करता है जितना की उनके द्वारा संपादित पत्रिका ‘छत्तीसगढ़ मित्र’। जिस दौर में छपाई की कोई व्यवस्था नहीं थी तब सन 1900 में एक छोटे से गांव पेंड्रा से “छत्तीसगढ़ मित्र” नामक मासिक पत्रिका निकालना वाकई बहुत बड़ा काम है। 

    कहानीकार माधवराव सप्रे जी का जन्म दमोह जिले के पथरिया ग्राम में 19 जून 1871 को हुआ था। प्राथमिक शिक्षा बिलासपुर से ग्रहण करने के बाद रायपुर से मैट्रिक उत्तीर्ण किये। सप्रे जी की पाठ्यक्रम में शामिल कहानी से ज्ञातव्य है कि 1899 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से बी.ए. करने के बाद उन्हें तहसीलदार के रूप में शासकीय नौकरी मिली थी। लेकिन सप्रे जी ने अँग्रेज़ों की नौकरी नहीं की। वें सन 1900 में छत्तीसगढ़ मित्र नामक मासिक पत्रिका निकाले, जो कि सिर्फ़ तीन साल ही चल पायी। तदोपरांत सप्रे जी ने लोकमान्य तिलक के मराठी केसरी को यहाँ हिंदी केसरी के रूप में छापना प्रारंभ किया तथा साथ ही हिंदी साहित्यकारों व लेखकों को एक सूत्र में पिरोने के लिए नागपुर से हिंदी ग्रंथमाला भी प्रकाशित की। उन्होंने कर्मवीर के प्रकाशन में भी महती भूमिका निभाई। हिन्दी कहानी के उम्दा शिल्पकार, पत्रकारिता के युग पुरूष सप्रे जी 23 अप्रैल 1926 को दुनिया छोड़ गये।

    छत्तीसगढ़ के पाठ्य पुस्तक में एक बहुत ही प्रसिद्ध कहानी ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ को सभी ने पढ़ा होगा। कहानी बहुत ही मार्मिक है, एक जमीदार और विधवा औरत के द्वारा अपनी पोती के लिये चूल्हे की मिट्टी ले जाने की लघु प्रसंग ही पूरी कहानी का सा‍र है। जिसे पढ़ने पर कई बार आंखे नम हो जाती है। मन करता है जमीदार को जी भर कोसे। विधवा भी आखिर क्या कर सकती है जमींदार का। पोती हो मनाने के लिये ली जाने वाली टोकरी भर मिट्टी को न उठा पाने के दंभ के बाद जमींदार का हृदय परिवर्तन होना कहानी की सकारात्मकता को दर्शाता है जो कही न कही समाज में सीख देने की कोशिश कर रहा है। इसमें जमीदार और बुढि़या के अलावा उनकी पोती की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। इस कहानी को हिंदी की पहली कहानी होने का श्रेय प्राप्त है। 

    1924 में हिंदी साहित्य सम्मेलन के देहरादून अधिवेशन में सभापति रहे सप्रे जी ने 1921 में रायपुर में राष्ट्रीय विद्यालय की स्थापना की और साथ ही रायपुर में ही पहले कन्या विद्यालय जानकी देवी महिला पाठशाला की भी स्थापना की। माधवराव सप्रे के जीवन संघर्ष, उनकी साहित्य साधना, हिन्दी पत्रकारिता के विकास में उनके योगदान, उनकी राष्ट्रवादी चेतना, समाजसेवा और राजनीतिक सक्रियता को याद करते हुए माखनलाल चतुर्वेदी लिखते है- "पिछले पच्चीस वर्षों तक पं॰ माधवराव सप्रे जी हिन्दी के एक आधार स्तम्भ, साहित्य, समाज और राजनीति की संस्थाओं के सहायक उत्पादक तथा उनमें राष्ट्रीय तेज भरने वाले, प्रदेश के गाँवों में घूम घूम कर, अपनी कलम को राष्ट्र की जरूरत और विदेशी सत्ता से जकड़े हुए गरीबों का करुण क्रंदन बना डालने वाले, धर्म में धँस कर, उसे राष्ट्रीय सेवा के लिए विवश करने वाले तथा अपने अस्तित्व को सर्वथा मिटा कर, सर्वथा नगण्य बना कर अपने आसपास के व्यक्तियों और संस्थाओं के महत्व को बढ़ाने और चिरंजीवी बनाने वाले थे।"

कहानी (एक टोकरी भर मिट्टी)

    किसी श्रीमान् जमींदार के महल के पास एक गरीब अनाथ विधवा की झोंपड़ी थी। जमींदार साहब को अपने महल का हाता उस झोंपड़ी तक बढा़ने की इच्छा हुई, विधवा से बहुतेरा कहा कि अपनी झोंपड़ी हटा ले, पर वह तो कई जमाने से वहीं बसी थी; उसका प्रिय पति और इकलौता पुत्र भी उसी झोंपड़ी में मर गया था। 

    पतोहू भी एक पाँच बरस की कन्या को छोड़कर चल बसी थी। अब यही उसकी पोती इस वृद्धाकाल में एकमात्र आधार थी। जब उसे अपनी पूर्वस्थिति की याद आ जाती तो मारे दु:ख के फूट-फूट रोने लगती थी। और जबसे उसने अपने श्रीमान् पड़ोसी की इच्छा का हाल सुना, तब से वह मृतप्राय हो गई थी। 

    उस झोंपड़ी में उसका मन लग गया था कि बिना मरे वहाँ से वह निकलना नहीं चाहती थी। श्रीमान् के सब प्रयत्न निष्फल हुए, तब वे अपनी जमींदारी चाल चलने लगे। बाल की खाल निकालने वाले वकीलों की थैली गरम कर उन्होंने अदालत से झोंपड़ी पर अपना कब्जा करा लिया और विधवा को वहाँ से निकाल दिया। बिचारी अनाथ तो थी ही, पास-पड़ोस में कहीं जाकर रहने लगी।

    एक दिन श्रीमान् उस झोंपड़ी के आसपास टहल रहे थे और लोगों को काम बतला रहे थे कि वह विधवा हाथ में एक टोकरी लेकर वहाँ पहुँची। श्रीमान् ने उसको देखते ही अपने नौकरों से कहा कि उसे यहाँ से हटा दो। पर वह गिड़गिड़ाकर बोली, ''महाराज, अब तो यह झोंपड़ी तुम्हारी ही हो गई है। मैं उसे लेने नहीं आई हूँ। महाराज क्षमा करें तो एक विनती है।'' जमींदार साहब के सिर हिलाने पर उसने कहा, ''जब से यह झोंपड़ी छूटी है, तब से मेरी पोती ने खाना-पीना छोड़ दिया है। मैंने बहुत-कुछ समझाया पर वह एक नहीं मानती। यही कहा करती है कि अपने घर चल। वहीं रोटी खाऊँगी। 

    अब मैंने यह सोचा कि इस झोंपड़ी में से एक टोकरी-भर मिट्टी लेकर उसी का चूल्हा बनाकर रोटी पकाऊँगी। इससे भरोसा है कि वह रोटी खाने लगेगी। महाराज कृपा करके आज्ञा दीजिए तो इस टोकरी में मिट्टी ले आऊँ!'' श्रीमान् ने आज्ञा दे दी।

    विधवा झोंपड़ी के भीतर गई। वहाँ जाते ही उसे पुरानी बातों का स्मरण हुआ और उसकी आँखों से आँसू की धारा बहने लगी। अपने आंतरिक दु:ख को किसी तरह सँभालकर उसने अपनी टोकरी मिट्टी से भर ली और हाथ से उठाकर बाहर ले आई। फिर हाथ जोड़कर श्रीमान् से प्रार्थना करने लगी, ''महाराज, कृपा करके इस टोकरी को जरा हाथ लगाइए जिससे कि मैं उसे अपने सिर पर धर लूँ।'' जमींदार साहब पहले तो बहुत नाराज हुए। पर जब वह बार-बार हाथ जोड़ने लगी और पैरों पर गिरने लगी तो उनके मन में कुछ दया आ गई। 

    किसी नौकर से न कहकर आप ही स्वयं टोकरी उठाने आगे बढ़े। ज्योंही टोकरी को हाथ लगाकर ऊपर उठाने लगे त्योंही देखा कि यह काम उनकी शक्ति के बाहर है। फिर तो उन्होंने अपनी सब ताकत लगाकर टोकरी को उठाना चाहा, पर जिस स्थान पर टोकरी रखी थी, वहाँ से वह एक हाथ भी ऊँची न हुई। वह लज्जित होकर कहने लगे, ''नहीं, यह टोकरी हमसे न उठाई जाएगी।''

    यह सुनकर विधवा ने कहा, ''महाराज, नाराज न हों, आपसे एक टोकरी-भर मिट्टी नहीं उठाई जाती और इस झोंपड़ी में तो हजारों टोकरियाँ मिट्टी पड़़ी है। उसका भार आप जन्म-भर क्योंकर उठा सकेंगे? आप ही इस बात पर विचार कीजिए।"

    जमींदार साहब धन-मद से गर्वित हो अपना कर्तव्य भूल गए थे पर विधवा के उपर्युक्त वचन सुनते ही उनकी आँखें खुल गयीं। कृतकर्म का पश्चाताप कर उन्होंने विधवा से क्षमा माँगी और उसकी झोंपड़ी वापिस दे दी।

अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस विशेष : योग के बहाने भारत की वैश्विक धमक

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"जिस प्रकार विश्व स्तर पर योग को अपनाये जाने लगे हैं, ऐसा कहा जा सकता है कि भारत का मान बढ़ा है। अनेक विकसीत, विकासशील देश अब भारत को कमतर नहीं आंकता। भारतीय लोकतांत्रिय प्राणाली के साथ ही यहां की कला-संस्कृति की अपनी विशिष्टता है। प्रबल सैन्य शक्ति से सुरक्षा व सुदृढ़ अर्थव्यस्था से आत्मनिर्भरता की ओर तेजी से बढ़ते भारत का स्वास्थ्य के क्षेत्र में योग ने वैश्विक धमक बढ़ाया है।"

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अब तो दुनिया ने भी मान लिया है कि योगा से ही होगा। जिस प्रकार आम जन-जीवन में असंतुलित दिनचर्या का समावेश होने के साथ ही रासायनिक खाद से उपजे खाद्य पदार्थों का सेवन हो रहा है, यह कहना मुश्किल हो गया है कि मनुष्य की आयु कितनी होगी? कहा जाता है कि मनुष्य की आयु 100 वर्ष की है लेकिन वर्तमान समय में शतकीय आंकड़े तक बहुत कम ही लोग पहुंच पाते हैं। इस विषय पर एक अध्ययनकर्ता ने दावा किया है कि जिन व्यक्तियों ने 100 वर्ष की आयु बिना किसी गंभीर बीमारी के स्वस्थ जीवन जिये, वें नियमित योग करते थे। उनके जीवन में प्राकृतिक वस्तुओं का अधिक उपयोग होता था। इस आधार पर अब दुनिया ने योग के साथ निरोग शब्द को जोड़ा और कहा जाने लगा ‘योग से होंगे निरोग’।

भारत में 5000 वर्ष पहले से इस विधी द्वारा मनुष्य लंबी आयु तक जीवित रहते थे, खास कर ऋषि परंपरा के लोग। साथ ही वे योग के ज्ञान को जन मानस में भी प्रचारित करते थे। योगाभ्यास की भारतीय पुरातन परंपरा के आसन न केवल शारीरिक व्यायाम है बल्कि यह एक ऐसी क्रिया है जो आत्मा से परमात्मा का मेल कराता है। इसे शरीर और आत्मा के बीच सामंजस्य का अद्भुत विज्ञान भी माना जाता है। योग के इस वैज्ञानिक पक्ष को दुनिया ने स्वीकारा है। योग से निरोग रहने के गुण को वैश्विक पटल पर लाने का श्रेय भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जाता है जिनकी पहल पर पहली बार अंतर्राष्ट्रीय स्तर में 21 जून 2015 को योग दिवस मनाया गया था।

21 जून को ही अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के रूप में मनाने के पीछे कारण बताया गया है कि यह दिन 365 दिनों में सबसे बड़ा दिन है, जो मानव के दीर्घ जीवन काल को दर्शाता है। प्रधानमंत्री द्वारा 27 सितंबर 2014 को संयुक्त राष्ट्र महासभा में संबोधन के दौरान अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाने का आह्वान किया गया था। तदोपरांत संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 3 माह के भीतर 11 दिसंबर 2014 को दुनिया भर में योग दिवस मनाने का ऐलान करते हुये कहा कि हर साल 21 जून को ‘अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस’ के रूप में मनाया जायेगा। तब से प्रतिवर्ष दुनिया भर में भारतीय योग सिद्धांत का अनुशरण हो रहा है।

जिस प्रकार विश्व स्तर पर योग को अपनाये जाने लगे हैं, ऐसा कहा जा सकता है कि भारत का मान बढ़ा है। अनेक विकसीत, विकासशील देश अब भारत को कमतर नहीं आंकता। भारतीय लोकतांत्रिक प्राणाली के साथ ही यहां की कला-संस्कृति की अपनी विशिष्टता है। प्रबल सैन्य शक्ति से सुरक्षा व सुदृढ़ अर्थव्यस्था से आत्मनिर्भरता की ओर तेजी से बढ़ते भारत का स्वास्थ्य के क्षेत्र में योग ने वैश्विक धमक बढ़ाया है। 

योग दिवस पर प्रमुख प्रस्तावक देश होने के कारण भारत की जिम्मेदारी और अधिक होती है, देश भर में योग के अनेक कार्यक्रम आयोजित होता है। एक तरह से कहा जाए तो देश योगमय हो जाता है, योग का वर्ल्ड रिकॉर्ड भी बने हैं। हालांकि एक दिन के आयोजन से ही निरोगी नहीं हुआ जा सकता लेकिन इस तरह के आयोजनों से समाज में योग के प्रति सकारात्मक सोज विकसित होती है। हो भी क्यों न, स्वस्थ और निरोगी काया के लिये योग को अपनाना आज के डिजिटल दौर में और भी जरूरी हो जाता है। जो अब तक योग को नहीं अपनाये है वें 21 जून से संकल्प के साथ नियमित दिनचर्या में शामिल कर दीर्घायु पा सकते हैं।      

- जयंत साहू, रायपुर [98267-53305]


इस सत्र भी नहीं प्रवेशोत्सव, कोरोना के ग्रहण से सूना शाला प्रांगण


छत्तीसगढ़ में 16 जून से शुरू होने वाले शाला प्रवेशोत्सव कार्यक्रमों की कुछ वर्ष पूर्व अलग ही रौनक हुआ करता था। स्कूलों में साफ-सफाई और नये रंगत के साथ नव प्रवेशी बच्चों के स्वागत के लिये सभी अध्यापकगणों के साथ ही स्थानीय जनप्रतिनिधी भी शाला प्रवेशोत्सव में भाग लेते थे। 16 जून के दिन जनप्रतिनिधी में पंच और पार्षद से लेकर मुख्यमंत्री और कलेक्टर आदि भी किसी न किसी स्कूल में बच्चों को तिलक करने पहुंचते थे। टन-टन की घंटी के साथ स्कूल की ओर दौड़ते पुराने बच्चें, अभिभावक की गोद से रोते-रोते उतरकर धीरे से अध्यापक की उंगली पकड़ना, कभी स्कूल तो कभी पालक को देखते नन्हे नव-प्रवेशी विद्यार्थी। राष्ट्रगान और वंदना के बाद भारत माता की जयघोष के बाद प्रधान पाठक का शुभकामना संदेश सत्र के अंत तक अध्यापक और बच्चों को शिक्षा के प्रति प्रेरित करता था। लेकिन इन सब के लिये तरस रहा है शाला प्रांगण, कोरोना के ग्रहण ने बच्चों का बहुत कुछ छिन लिया।  

मार्च और अप्रैल माह में सत्रावसान की तैयारी, परीक्षा के बाद परिणाम और फिर नये सत्र की धमक से शाला प्रांगण कभी गुलजार हुआ करता था, जो अब शांत है। न स्कूल की घंटी और न ही पढ़ाई की फिक्र, ऑनलाइन मोबाइल से पठन-पाठन के साथ अंत में बिना इम्तिहान के ही परिणाम शत-प्रतिशत उत्तीर्ण। यह अजब दिन कोरोना महामारी के कारण पिछले दो वर्षों से देख रहे हैं। जानलेवा बीमारी है कारण, तो किसी को दोष भी नहीं दे सकते। आपके और हमारे मन में उठते सभी प्रश्नों का एक ही हल, कोरोना काल।

कोरोना से लोगों की जाने जा रही है इसे भी झुठलाया नहीं जा सकता, मौत की आकड़े भयानक है। जीवन रहा तो शिक्षा कभी भी ग्रहण की जा सकती है इस सोच के साथ समाज ने नये सत्र की शिक्षा नीति को स्वीकारा है। पिछली सत्र की बात करे तो कोरोना के शुरूआती दौर में छत्तीसगढ़ में पढ़ाई तो लगभग पूर्ण हो चुका था। बच्चे साल भर कक्षा में अध्ययन किये थे लेकिन कोरोना महामारी के कारण परीक्षा लेने की स्थिति नहीं थी और सत्र बर्बाद न हो इसलिये बच्चों को जनरल प्रमोशन से अगली कक्षा में प्रमोट करा दी गई। अगले नये सत्र में स्कूल खुलने की संभावनाओं पर कोरोना ने फिर ग्रहण लगा दिया। इस बीच शासन ने ऑनलाइन का रास्ता निकाला, जो अब काफी चिंता जनक लग रहा है। भविष्य में इसका दुष्परिणाम भी आयेगा। ऑनलाइन कक्षा में पढ़ाई की गुणवत्ता, बच्चों में विषयवस्तु की समझ, शारीरिक और मानसिक विकास ऑफलाइन के कक्षा अध्ययन की तुलना में महज खानापूर्ती ही साबित हो रहा है। बच्चों और अध्यापक के साथ अभिभावक भी मोबाइल लेकर चिपके रहते हैं। आजकल-आजकल करते वो सत्र भी बिना परीक्षा के ही जनरल प्रमोशन में निकल गया।

कोरोनाकाल में जो बच्चा पहली कक्षा में था आज उनका नाम तीसरी में चल रहा है। कुछ बच्चे और अभिभावक को तो शायद यह भी पता नहीं होगा की उनके बच्चे कानाम किस कक्षा में है। पहली से तीसरी में पहुंच चुके बच्चों को कितना पाठ का ज्ञान हुआ इस पर कुछ कहें तो जवाब में कोरोना आयेगा, ऐसे में चुपचाप बच्चों की डिग्री बढ़ाते रहे इसी में सबका भला है। संकट के बीच निजी और सरकारी शिक्षण संस्थान की बात करें तो एक तरफ सरकारी स्कूल का अध्यापक शान से पूरी तनख्वाह ले रहा है, वहीं दूसरी ओर निजी स्कूलों में मारा-मारी के बीच अध्यापकों को तनख्वाह के लाले पड़ रहे है। 

कक्षाएं छोटी है तो समस्या भी छोटी है। यहां तो बोर्ड कक्षा और कॉलेज का और भी बुरा हाल है। जिस पर युवाओं का भविष्य टिका है वही डाँवाडोल हो रहा है। खानापूर्ती कहे या मजबूरी मेडिकल और इंजीनियरिंग की पढ़ाई भी ऑनलाइन ही लग पायी। जिनका स्वयं का भविष्य ऑनलाइन में बना हो वे सब कुछ सामान्य होने के बाद किस प्रकार आम लोगों की सेवा में ऑफलाइन काम कर पायेगा यह भी चिन्ता का विषय होगा!  
- जयंत साहू, रायपुर [98267-53304]


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शराबी पति से हारी मां की ममता, 5 बेटियों सहित दी जान

शराबी पति से हारी मां की ममता, 5 बेटियों सहित दी जान

"....भला इस तरह से कोई झगड़े में जान देते है क्या वो भी बड़ी उम्र की बेटियों के साथ। बात पति शराबी था तक खत्म नहीं होती, आखिर वो भी तो एक मां थी, क्यों अपने साथ पांच बेटी को मार गई। परिवार, रिश्तेदार और समाज को उमा ने क्यों अपनी दुख से वाकिफ नहीं कराया? तकलीफ मौत से भयानक तो नहीं था।"

नींद से जागती महासमुंद की अल सुबह लोगों की जिंदगी शुरू हो रही थी तभी नित्यकर्म और चूल्हे-चौके की तैयारी के बीच एक अमंगल खबर ने सबका दिल दहला दिए। इमलीभांठा नहर पुलिया के नीचे से गुजरती रेल की पटरियों पर छ: लाशें बिखरी पड़ी थी। दूर तक पड़ी छत-विछत लाशें, सूख चुके खून की छींटे से सने पटरी और उम्र की तस्दीक कराता चप्पल पूरी कहानी बयां करा रहा था कि जानबूझ कर दी होगी जान। 

दुखद खबर की आग ने आसपास के घरों में सुलगे चूल्हे को शांत कर दिया। कौन, क्या, कैसे और क्यों के सवालों का धुआ उठने लगा। तभी खबर मिली की ये तो बेमचा महासमुंद के रहने वाले केजऊ राम साहू की पत्नी और उनके बच्चे है। पुलिस पहुंचकर लाशों को उठवाने लगी, छ: लाश और उनके एक-एक समानों को अपने कब्जे में लेकर कारण की तह तक पहुंचने की पुलिस कोशिश कर रही थी। 

दृश्य और भी भयानक हो गया, जब पता चला की लाश में तबदील हो चुकी छ: जिंदगी घर से रात को ही निकल गई थी। कहते है की केजऊ राम शराब का आदी था और इस वजह से अकसर उनके और पत्नी के बीच लड़ाई होती रहती थी, उस दिन भी हुआ था। पत्नी उमा साहू उम्र लगभग 48 वर्ष के साथ पांच बेटी अन्नपूर्णा, यशोदा, भूमिका, कुमकुम और तुलसी की उम्र 18 से 10 वर्ष तक की थी। ....भला इस तरह से कोई झगड़े में जान देते है क्या वो भी बड़ी उम्र की बेटियों के साथ। बात पति शराबी था तक खत्म नहीं होती, आखिर वो भी तो एक मां थी, क्यों अपने साथ पांच बेटी को मार गई। परिवार, रिश्तेदार और समाज को उमा ने क्यों अपनी दुख से वाकिफ नहीं कराया? तकलीफ मौत से भयानक तो नहीं था। 

लोग कह रहे हैं शराब के कारण परिवार तबाह हो गया, प्रशासन घटना के कारण की जांच में जुटी है। परिस्थिति चाहे जो हो लेकिन पांच बेटियों के साथ मां का यूं मर जाना, पति के शराब का आदी होने और झगड़ा नाकाफी है। शासन-प्रशासन की जागरूकता और नीति पर सवाल उठाना छोटे स्तर से शुरू करे तो गांव में पंच-सरपंच होते हैं। केजऊ बेमचा में रहता था, जमीन है, और खेती करता था तो निश्चित ही संयुक्त परिवार में उठ बैठ था। काम करने के दौरान महासमुंद में निवास करते भी समाज के लोगों से भी परिजनों का तालमेल रहा होगा। मां और साक्षर बेटियां प्रतिरोध करने के बजाए मर गई, पिता और पति के भरोसी ही तो नहीं थी जिंदगी। पुलिस, समाज और समाजसेवी संस्थाएं, महिला जागरूकता सेन, बाल संरक्षण आयोग, नशा मुक्ति अभियान, नारी सशक्तिकरण, बेटी बचाव - बेटी पढ़ाव जैसे तमाम योजनाओं को धता बता कर मौत को ही समाधान समझकर अपने ही परिवार को निगल गई? एक बार भी नहीं सोची की इस दुनिया में कई ऐसी मां है जो बिना पति के अकेली ही अपने बच्चों को पाल रही हंै। यदि बड़ी हो रही बेटियों की ब्याह की चिंता थी तो उसका भी हल है समाज में, बात सामने आए तो सही। घूट-घूट कर जीना और परेशान होकर जिंदगी खत्म कर लेना खुद की कमजोरी है।

केजऊ के शराब की लत से उनकी पत्नी और परिवार परेशान था और बार-बार विवाद होता था। इस बात की जानकारी यदि परिवार में जिस किसी को भी थी, वह भी कही न कही उन छ: मौतों का जिम्मेदार है। पुलिस से पूर्व में शिकायत हुई या समाज के अन्य लोगों को उमा ने आप बीती बताई होतो वें भी मौत के दोषी है। साफ लब्जो में कहा जाए तो केजऊ राम साहू अपने ही परिवार के छ: सदस्यों की मौत का बहुत बड़ा अपराधी है, कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए। साथ ही उमा और उनकी बेटी तक नारी संबल की थोथी कहानी न पहुंचा पाने वाले शासन-प्रशासन को भी गंभीरता से जमीनी स्तर पर काम करने की आवश्यकता है।    
- जयंत साहू, रायपुर [98267-53304]
जयंत साहू, रायपुर [98267-53304]



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