रौशनी का महापर्व दीपावली को न केवल भारत बल्कि अब वैश्विक रूप से मनाये जाने लगा हैं। इस त्योहार को मनाने के पीछे की कहानी और किवदंती में अपनी-अपनी आंचलिकता का समावेश ही इसकी खास विशेषता है।दीपावली को छत्तीसगढ़ के संदर्भ में देखें तो यह ‘देवारी तिहार’ के रूप में छत्तीसगढि़या जन का प्रमुख सांस्कृतिक और धार्मिक पर्व है। जिसमें सुरहुति, गउरा-गउरी, गोबरधन पूजा, मातर आदि पारंपरिक अनुष्ठानों के साथ सुआ, गौरी-गौरा और राऊत नाच की अनुगूंज लोक में कार्तिक पूर्णिमा तक बिखरती है।
छत्तीसगढ़ की देवारी में मातर उत्सव का उमंग सबसे ज्यादा महत्व का होता है। दीपावली के दूसरे दिन होने वाले इस आयोजन में दूर-दूर से भी लोग मातर देखने आते हैं। बाजे गाजे के साथ नाचते राऊत समुदाय, लाठी और अस्त्र-शस्त्र का हैरतअंगेज प्रदर्शन करते अखाड़ा दल, गांव के मड़ईहा अपने बैरग-ध्वजा के साथ मातर में शामिल होते हैं।
मातर मनाने के लिये सभी ग्रामीण जन दइहान पहुंचते हैं, लगभग दस ग्यारह बजे के करीब। साथ ही गाँव के सकल देवी-देवता, डांग-डोरी और बाजे-गाजे के साथ नृत्य करते गौठान को जाते हैं। देवी-देवता के प्रतिनिधि के रुप में उनका सेवक बाना, त्रिशूल आदि लिये होते हैं। लगभग बीस-पच्चीस फुट लंबे बाँस पर अलग-अलग देवी-देवताओं के अलग-अलग रंग के विशेष ध्वज चढ़े होते है। इन्हे एक भगत पकड़े रहता है, इन पर देवताओं की सवारियाँ आती है और ये झूमते हुए नृत्य करते हैं।
गौठान में राऊत का खोड़हड़ गड़ा होता है। वे उनके कुल देवता होते हैं। सभी साथ मिलकर उनकी पूजा अर्चना करते हैं तदपश्चात पहले से इकट्ठा किये हुए गाँव भर के गाय, भैसों की पूजा कर गले में सुहई बाँधी जाती है। फिर उनके बीच कुम्हड़ा को डालते हुए खोड़हड़ देव का परिक्रमा कराया जाता है। जिससे कुम्हड़ा उनके खुरों से दबकर टूट जाता है, और वह देवता को अर्पित होता हैं। कहीं-कहीं बकरा व मुर्गा भी दिया जाता था।
देवी-देवता अपने स्थल पर आकर कुछ देर विश्राम करते हैं। दोपहर बाद सकल ग्रामीण देवी-देवताओं की डांग-डोरी लिये बाजे गाजे के साथ राऊत के घर जाते हैं। आकर्षक पारंपरिक वेशभूषा में राऊत वीरता के दोहे उचारते हुए अपने कुल देवता का स्मरणकर पूजा अर्चन करते हैं।
पूजा करे पुजेरी रे, धोवा चाऊर चढ़ाई। पूजा करव मोर खोड़हड़ के जग में सोर बोहाई।।
दोहों के साथ ही राऊत दोनों हाथों से लाठिया चलाते एक ही वार से जमीन पर रखे नारियल को तोड़ देता हैं। तदपश्चात सभी दोहे उचारते बाजे-गाजे के साथ नृत्य करते गौठान की ओर प्रस्थान करते है। साथ में झाँकियों के रुप में राधा-कृष्ण एवं उनके सखागण भी होते हैं जो गलियों में जगह-जगह लगाये गये दही की मटकियों को लूटते, तो कहीं झूला झूलते हुए लोगों को आल्हादित करते हैं।
सभी गौठान पहुँचकर खोड़हड़ देव की पूजा करते हैं, राऊत परिवार द्वारा दूध, दही व खीर अर्पित की जाती है तथा भक्तों में प्रसाद के रूप में बाँटी जाती है। गौठान आये गाँव के सकल देवी-देवता, डांग-डोरी को बाजे-गाजे के साथ नृत्य करते पुन: घर पहुंचाया जाता है। फिर राऊतगण राऊत नाच नाचते गाते घर-घर भ्रमण कर जोहार करते है व आशीष देते हैं।
जइसे के मइया मया दिये, तइसे के देबो अशीष। बेटा बहू ले घर बसे, अऊ बेटी बसे दूरदेश।।
इस तरह मातर में देवी-देवताओं की ध्वज और राऊत नृत्यों की धूम के साथ ही अखाड़ा का प्रदर्शन और मड़ई-मेला का आयोजन गांव के उत्सव की रौनक को बढ़ाते हुये एकता और भाईचारा का संदेश देता है। मातर देखने आये ग्रामीण, दिनभर मेले में अनेक प्रकार की खई-खजाना और रईचुली का आनंद लेते हैं। रात्रि में छत्तीसगढ़ी सांस्कृतिक कार्यक्रम या नाचा-पेखन आदि का आयोजन, मनोरंजन के साथ-साथ अपनी लोक संस्कृति और परंपरा को भावी पीढ़ी तक पहुंचाने का दृश्य-श्रव्य माध्यम होता है।
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लेखक - लोकनाथ साहू 'आलोक', भेंड़िया (नवागाँव) बालोद मो.- 8085603265
परिमार्जन - जयंत साहू, डूण्डा रायपुर मो.- 9826753304