सयाना - लघु उपन्यास

मेरी पहली लघु उपन्यास ‘सयाना’ की दूसरी कड़ी ....


मई का महीना है। घर में बिजली, पंखा होने के बावजूद हम उनके आदी नहीं है। वैसे भी गरमी के दिनों में बाहर खाट निकाल कर सोने का आनंद ही अलग होता है। खुला आकाश में उड़ते बादलों के बीच चमते तारें देखेना। शांत खड़े पेड़ की ओर से झरझर हवा। पंछियों की चहलकदमी। सोने से पहले और जागते दिखता है।

सभी का बिस्तर घर में बरामदे में लगा हुआ है। तुसली के पौधे के लिये बने चभुतरे में एक छोटा सा दीपक जल रहा है। टिमटिमाती दीये की रोशनी आंगन में लगे अनार, अमरूद, पपीता और आम के पेड़ तक हल्की-हल्की पहुंच रही है। मैं बिस्तर में ही लेटे उन फलों को छू लेने की अनुभूति पा रहा हूं। अनार थोड़े अधपके है, अमरूद और पपीता बहुत ही छोटे है। पर आम को तो देखकर ही खाने को मन करता है। पहले चख लेते हैं... बाद में देखा जाएगा छोटा-बड़ा और कच्चाख-पक्का। घर हो या बाड़ी, किसी भी पेड़ में लगे पहले फल का स्वाद मैं ही सबसे पहले लेता था। और मेरे बाद जमुना दीदी...। अब मेरे ना रहने से जाने कौन चखेगा इनके फलों का स्वाद।

नींद भी तो नहीं आ रही है। बार-बार घर छोड़ने का ख्याल आने मात्र से ही मन दुखी हो जा रहा था। मैं घर छोड़कर जा पाऊंगा भी की नहीं। यदि मां और पिता जी का यही अरमान है तो मुझमें उनके सपनों को तोड़ने का साहस भी तो नहीं है। चाहे कुछ भी हो, मेरे जाने या न जाने का आखरी फैसला भी वही करेंगे इतना तो तय है।

एक कोने में मेरा खाट और दूसरी ओर कुछ ही दूरी पर मां और पिता जी सोए थे। शायद जाग वे रहे थे। और मेरी ही तरफ देख रहे थे। उनको भान था कि मैं जाग रहा हूं। वे मुझे बिना सुलाये सोते भी कहां है। मेरे आंखों में जागते हैं, सोते हैं, क्या वे मेरे बिना वो अकेले रह लेंगे। मां पिताजी बार-बार मेरे ही बदलते करवट और सरकते तकीये को ताक रहे थे। कुछ देर बाद मैंने सोने का ढोंग किया और मुंह टावल से ढक लिया।

धीरे से मां की आवाज आई लगता है.. सो गया है। पिताजी ने कहा हां...। रघु के बिना हम भी अकेले नहीं रह पायेंगे जमुना की मां। तो फिर भेजना क्यो चाहते हो... मां ने कहा। जमुना की मां क्या तुम नहीं जानती। 'उस दगाबाज ने क्या किया हमारे साथ। आखिर क्या कमी थी हमारी बेटी में। सुंदर, गुणवती बिटिया को सिर्फ इसलिए शादी से इंकार किया की हम उनसे कम पढ़े लिखे हैं। मुझे जो चाहे कह लेते लेकिन मेरी बेटी के साथ जो उन्होने किया वह मैं कभी नहीं भूल सकता'। तुम्हे भी याद है न मेरी कसम...। 'सोमनाथ तुम्हे‍ बहुत घमंड है ना अपनी नौकरी और पढ़ाई पर। देखना जब मेरा बेटा पढ़ लिखकर तुम से भी बड़ा आदमी बनेगा'। 

अरे क्या-क्या नहीं किया था मैने और मेरे परिवार ने तेरे लिये। कहना तो नहीं चाहिए लेकिन एक छोटे से किराने की दुकान के भरोसे तुम और तुम्हारा परिवार बिना हमारे सहारे जी भी नहीं पाते। तुम लोगों की हालत देखकर मेरी मां अक्सेर कहा करती थी कि बेटा रामनारायण उस किराने वाली के बेटे सोमनाथ को भी कुछ खाने को दे आ। मेरे घर रोज दो रोटी ज्यादा बनती थी तेरे कारण। कपटी तो तू शुरू से ही था सोमनाथ। जब भी किराने वाली चाची मेरे लिये कुछ भेजती थी कि रामनारायण को दे आना कहकर तो सब कुछ आधा रास्ते स्वयं ही खा लेता था। फिर भी मैं दोस्ती निभाता रहा। तेरी गलती को शरारत समझ भुलता रहा। मैं एक घटिया आदमी को अपना पक्का दोस्त मानता था। तुम्हारी और मेरी मां की तरह गांव वाले भी भोले थे जो सोमनाथ और रामनारायण की दोस्ती के कसीदे गढ़ते थे। 

...मां को पिता जी अपनी और किसी सोमनाथ के बारे में बता रहे हैं। आज उस आदमी के नाम से पिताजी को पहली बार इतना क्रोधित देख रहा हूं। मैं बिस्तर में ही लेटे उनकी बातें सुन रहा था। आगे मां कहती है हां रघु के बाबू जी सासु मां भी उनको बेटे जैसा ही मानती थी। चार पैसे कमा कर बड़ा आदमी क्या बना हमें तो कुछ समझते ही नहीं। आदमी पैसों से नहीं इमान से बड़ा होता है जमुना की मां। हम क्या कम है उनसे। पढ़ लिखकर पर की नौकरी ही तो कर रहा है। नौकरी न रहे तो खाने को लाले पड़ जायेंगे। हमें देखो खुद की खेती कमाकर औरों का भी पेट भर रहे हैं। सच कहू तो खेती में ही सुकून मिलता है जमुना की मां। मैं मन ही मन उनकी बातों को सुन कर सोच रहा हूं। जब पिताजी खेती को इतना महत्व देते हैं तो मुझे बाहर पढ़ने क्यों भेजना चाहते हैं। तभी पिताजी ने मां को गर्व से कहा देखना मेरा बेटा रघु ही उनका गुरूर तोड़ेगा। अब बात कुछ-कुछ भेजे में आ रही है कि मुझे बाहर पढ़ाना क्यो चाहते हैं।

बताते है कि सोमनाथ जो कि पिताजी के दोस्त थे। साथ में खेलेकूदे और बड़े हुए। उनके पिताजी के गुजर जाने के बाद मां के साथ हमारे गांव में मजदूरी करने आई उसकी मां। उनकी मां बीमारी होने के कारण ज्यादा मेहनत का काम नहीं कर पाती थी। दुखिया और बेसहारा जानकर मेरी दादी ने गांव में उनको किराने की दुकान खोलने में मदद की। यहां तक सोमनाथ की पढ़ाई लिखाई का खर्चा भी उठाया। उनके पास गांव में कुछ नहीं था कमाने के लिये। पढ़ा लिखकर मां का किराना दुकान नहीं चलाना चाहता था। पढ़ाई खत्म करके उसने नौकरी करने की सोची। और पिता जी ने पुरखों की खेती को संभाला। शहर में उसे अच्छी नौकरी मिल गई। कुछ दिन बाद अपनी मां को भी शहर बुला लिया। दिन बदल गया। दोनो दोस्त बाल-बच्चो वाले हो गये। सोमनाथ की मां अधिक दिनों तक बेटे बहु के साथ शहर का सुख नहीं ले पायी और चल बसी। 

वें लोग कभी-कभी गांव आते था जब हमारी दादी जिन्दा थी। एक दिन दादी ने कहा- बेटा सोमनाथ तेरा बेटा भी बड़ा हो गया है और रामनारायण की बेटी भी सयानी हो गई है क्यों न दोनो समधी बन जाओ। दोस्ती को रिश्तेदारी में बदल लो। आना जाना बढ़ेगा। तुम्हारी मां की आत्मा को भी शांति मिलेगी। अब यही मेरी भी आखरी इच्छा मान लो। उस समय तो सोमनाथ ने हामी भर दी। मगर दादी के बीत जाने के बाद जो बखेड़ा हुआ उसके बाद तो पिताजी को दोस्ती पर से विश्वास उठ गया। 
जिस तरह से सोमनाथ और उनके परिवार का व्यवहार बदला इसे दिखकर रामनारायण भी अपनी बेटी नहीं देना चाहते थे किन्तु मां की आखरी इच्छा पूरा करने के लिये अपनी बेटी जमुना का हाथ देने को तो तैयार थे। सगाई तय करने ही वाले थे कि एक दिन सोमनाथ का संदेश आया कि वे गांव की कम पढ़ी लड़की को अपनी घर की बहु नहीं बना सकता। पिताजी को बड़ा दुख हुआ। इतना सब जानकर गुस्सा तो मुझे भी बहुत आ रहा था। क्या ऐसे भी लोग होते है जो बचपन के किये एहसानों को भुला देते हैं। अब समझा की पिताजी मुझे बड़े शहर में क्यों पढ़ाना चाहते है। न जाने मां और पिताजी के बीच आगे और क्या बात हुई होगी। मैंने जैसे ही अपनी शहर जाने का कारण समझा मुझे नींद आ गई, मैं सो गया।

  • कुछ अंतराल के बाद तीसरी कड़ी ...

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

POPULAR POSTS