सुवा गीत-नृत्य : महादेव और पार्वती के विवाह संदेश को घर-घर पहुंचाने की लोक परंपरा

सुवा गीत-नृत्य
सुवा गीत-नृत्य

छत्तीसगढ़ में दिपावली के अवसर पर गाये जाने वाले 'सुवा गीत' के संदर्भ में विशेष आलेख

छत्तीसगढ़ में कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की पंचमी तिथि के बाद से गांव की महिलाएं टोली बनाकर घर-घर नृत्य करने जाती हैं जिसे सुवा नृत्य अथवा गीत कहा जाता है। तरी हरि नाना मोर नहा नरी नाहना रे सुवाना... का अनुगूंज लोकांचल में मनोरंजन के साथ भक्ति की अविरल परंपरा की प्राचीनता का बोध कराता है। सुवा एक प्रकार की पक्षी है जिसे अन्य प्रांतों में शुक, तोता, मिट्ठू, सुग्गा, दाड़िमप्रिय, तुंड, पोपट आदि नामों से भी जाना जाता है। सुवा अर्थात तोता का उपयोग संदेश भेजने के लिए प्राचीन समय से किया जाता रहा यह तो सर्वविदित है, किन्तु यह परंपरा छत्तीसगढ़ में पुरातन काल से चली आ रही है। 

सुवा ही एक ऐसा पक्षी है जिसे नारी अपनी मन की बात कहती हैं और वह उनके प्रेयसी के पास जाकर हूबहू वही कथन दोहराता है। शायद इसी आधार पर कुछ विद्वान सुवा गीत को नारी विरह वेदना के गीत के रूप में परिभाषित किये हैं। पारंपरिक गीतों के अलावा, बाद के जो गीत आज के दौर के गीतकारों ने लिखे उसमें केवल नारी विरह और स्त्रियों की दशा को रेखांकित किए गए है। बहरहाल इन सब में सुवा और नारी ही मुख्य केंद्र बिन्दु रहा है। अब इसे छत्तीसगढ़ के आदिम परंपरा के नजरिये से देखे तो केवल नारी विरह का गीत न होकर माता पार्वती और आदिदेव महादेव के विवाह संस्कार से जुड़ा मिलता है। 

इस विषय में छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ साहित्यकार सुशील भोले, चंद्रशेखर चकोर, गोविंद धनगर और जयंत साहू आदि कहते हैं कि सुवा गीत गौरा-गौरी के विवाह के आमंत्रण का गीत है। पारंपरिक गीतों के शब्द, नृत्य की शैली और प्रस्तुतिकरण विवाह के संस्कार को दर्शाता है। महिलाएं मिट्टी की शूक बनाकर, टोकरी में सजाकर रखती हैं। औरतें उसे सिर पर रखकर गांव में घर-घर जाती हैं, जिसे सुग्गी कहा जाता है। दस-बारह की टोली में महिलाएं गोल घेरा बनाकर गीत गाती हुई नृत्य करती हैं। टोकरी में बिठाये सुवा के बीच दीपक भी जलाती हैं। गायन के दौरान इस टोकरी को बीच में रखकर, हाथों से ताली या लकड़ी के चटके की ताल में गोल-गोल घुम कर नृत्य किया जाता हैं। घरवाले सुवा नाचने वालों को सेर-चाउर अर्थात चावल, रूपये-पैसे देकर विदा करते हैं। बदले में सुवा नृत्य की टोलियां उनके परिवार के लिए सुख, समृद्धि की कामना करते हुए आशीष देते हैं। इस नृत्य में उपहार स्वरूप मिले पैसे या अनाज का उपयोग वे गौरा-गौरी के विवाह उत्सव में करती हैं। 

आदिवासी गोड़ समाज द्वारा प्रमुखता से मनाया जाने वाला गौरा-गौरी का पर्व अब सर्व छत्तीसगढ़िया समाज उत्साह के साथ पारंपरिक तरीके से मनाता है। विविध सांस्कृतिक विरासतों से परिपूर्ण धान कटोरा छत्तीसगढ़ में परंपरा और मान्यताएं 'कोस-कोस में पानी बदले, चार कोस में वाणी' कहावत की तरह सुवा गीत नृत्य में भी विविधता साफ दिखाई पड़ती है। गौरा-गौरी के साथ सुवा गीत-नृत्य बंद नहीं होता बल्कि कार्तिक देवउठनी एकादशी या पूर्णिमा तक भी चलता है। इसी से जुड़ी एक और लोक परंपरा है जिसमें कार्तिक मास में सूर्योदय से पूर्व स्नान कर कुंवारी कन्याएं महादेव की पूजा आराधना करती हैं। इसे कातिक नहाना कहा जाता है। ऐसी मान्यताएं है कि माता पार्वती भी आदिदेव को पति रूप में पाने के लिए कार्तिक मास में महादेव की आराधना किया करती थी।   

गौरा चौंरा में फूल कुचरने की परंपरा के साथ गोड़ समाज शिव-पार्वती विवाह की तैयारी में जुट जाता हैं। गाजे-बाजे के साथ मिट्टी लाने जाते हैं। रातभर गौरा-गौरी बनाते है, और अन्य सभी समाज मिल-जुल कर गौरा-गौरी को परघा कर लाते हैं। तत्पश्चात कार्तिक अमावस्या को ही पूरी विधी विधान के साथ माता पार्वती और आदिदेव महादेव का विवाह संपन्न कराया जाता है। रातभर गाजे-बाजे के साथ पूजा और सेवा का दौर चलता रहता है। सुबह बारात निकालकर गांव घुमाते है और अंत में उन्हें तालाब में विसर्जित किया जाता हैं। इसे गौरी-गौरा या गौरा पूजा पर्व भी कहा जाता है। साहित्यकार सुशील भोले जी कहते हैं कि सुवा नृत्य का संबंध इसी से है, जो एक प्रकार से महादेव और पार्वती के विवाह का घर-घर निमंत्रण या संदेश देने का काम करते है। गौरी-गौरा पर्व और सुवा गीत-नृत्य की शुरूआत के संदर्भ में यह भी कहा जाता है कि जब यहां कि सभी मूल संस्कृति सृष्टिकालीन संस्कृति है तो इसका अर्थ यही हुआ कि सुवा गीत-नृत्य का शुरूवात भी सृष्टि काल से हुआ है। 

- जयंत साहू, रायपुर छत्तीसगढ़

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