तन-मन में मादकता भरता ‘होली’ गीत

भारतवर्ष में जितने दिन, उतने ही पर्व और उत्सव। अनेक जाति, पंथ और संप्रदाय की बाहुल्यता में पर्व मनाने की विविधता इस देशांचल की बहुत बड़ी विशेषता है। बहुत से ऐसे पर्व है जिसे संपूर्ण भारत में मनाया जाता है, भले ही मनाने की परंपरा और किवदंती अलग हो। कुछ तो अब विदेशों तक अपनी रंगत बिखेर चुका है। जी हां... रंग पर्व होली की रंगत अब भारत से सात समुंदर पार के देशों में भी छलकने लगा है।  होली के विषय में मध्य भारत में अलग, दक्षिण में अलग और उत्तर में अलग किवदंती प्रचलित है। चूंकि भारत में उत्तर भारत के निवासी सभी प्रांतों में फैले हुये हैं और जहां-जहां वे गये अपने साथ अपनी संस्कृ‍ति और परंपराओं को लेकर गये, प्रचार-प्रसार किया। शायद यही वजह है कि उत्तर भारत की संस्कृति को संपूर्ण भारत की संस्कृति माना जाने लगा।  होली की बात करे तो यह सबसे प्राचीन है, इसमें जन में व्याप्त भक्त प्रहलाद और होलिका का कथा प्रसंग बताया जाता है। होलिका अपने ही भतीजे बालक प्रहलाद जो कि विष्णु का भक्त था को लेकर चिता में बैठ जाती है। कहा जाता है उस चिता में होलिका जल जाती है और भक्त प्रहलाद जीवित बच जाता है। प्रहलाद का पिता हिरण्यकश्यप अपने ही संतान की मृत्यु चाहता था, तरह-तरह से मारने का प्रयत्न करता था। और एक दिन प्रहलाद के कारण ही उनके पिता की हत्या कर दी जाती है भगवान के नरसिंह अवतार द्वारा। तब से होली का त्योहार मनाया जा रहा है। इस विषय में अनेक किवदंतियां गढ़ी गई जिस पर इतिहासकार, धर्माचार्य, सर्वधर्मी साहित्यकार, कथाकार, गीतकार जन अब भी चिंतन कर नव सृजन कर रहे हैं।   होली के संदर्भ में एक और अलग प्रसंग त्योहार मनाने का आता है जिसमें मथुरा, गोकुल, ब्रज और वृंदावन की होली अति प्रसिद्ध है। आप सभी को भगवान श्री कृष्ण की लीला तो याद ही होगी जिसमें राधारानी, बरसाना और गोकुल के ग्वाल बाल के साथ होली का उत्सव मनाते है। अब यहां होली मनाने का कारण भिन्न हो जाता है लोग कृष्ण और राधा के प्रेम के गीत गाते हैं। भांग और धतूरे में धूत होकर मस्ती से झूम-झूम कर नाचते गाते है। इस काल में सर्वाधिक गीतों का सृजन हुआ जिसे मैथिली, भोजपुरी, अवधी, ब्रज, मगही सहित अन्य भाषाओं में भी गायी जाने लगी। यहां भी गीतों की ही प्रधानता रही है, बिना गीत के होली का त्योहार नहीं होता।  ब्रज, बरसाना, गोकुल, मथुरा और वृंदावन की होली कृष्णमय होती है, जिसकी ख्याती विश्व विख्यात है। देश-विदेश के लोग होली में शामिल होने आते हैं। अबीर, गुलाल और तरह-तरह की फूलों की होली अलग ही रंगत में फागुन की मस्त मादक भरे मौसम का आनंद देता है। स्पष्ट शब्दों में कहे तो होली आनंद का पर्व है, बसंत का आगमन होता है, प्रकृति नये रंग में हरी-भरी दिखाई पड़ती है।  यही मादकता भरे होली की गंध छत्तीसगढ़ में भी दिखाई देता है। नंगाड़े की ताल में होलिहारों की टोली बसंत पंचमी से ही फगुवा का तान छेड़ देते है। फागुन में फाग, फगुवा, होरी, होले, डंडा, रहस परवान पर होता है। गांव के बच्चे-बुढ़े और महिलाओं की टोली अपने-अपने सखा-सहेली संग फागुन के आनंद में गीत गाते झुमते हैं। छत्तीसगढ़ में भी होली एक-दो दिन का पर्व नहीं है अपितु बसंत पंचमी से रंग पंचमी तक 45 दिन का उत्सव होता है। नंगाड़ा बजाकर होले डाढ़ (होलिका दहन स्थल) में फाग गाते है। होलिका दहन के दूसरे दिन फागुन त्योहार मनाया जाता है। होली के राख से एक दूसरे को तिलक लगाकर शुभकामनाएं देते है। अब समय के साथ रंग-बिरंगे होते पर्व में परंपरा का निर्वाह हो रहा है यही काफी है। लेकिन इस सब के बीच भी होली में गीत और संगीत अपने मूल के साथ परोसा जा रहा है।  फाग गीतों में अपनी प्रेमिका, पत्नी अथवा भाभी और उनकी बहन। प्रेमी, पति और देवर जैसे हम उम्र लोगों के बीच मस्ती और उमंग के साथ ठिठोली की जाती है। देवर भाभी पर रंग लगाता है तो भाभी कहां पीछे रहने वाली है, रंग की गघरियां धर देवर पर उड़ेल देती है। प्रेमी अपने प्रेमिका को रंगने के लिये उनकी गली में बड़े ही हिम्मत के साथ जाता है, उधर लड़कियों की टोली में शामिल प्रेमिका भी घर वालों से नजरें बचाती रंगने को आतुर रहती है। सुबह से शाम तक उसे रंग लगाये बिन फगुवा पुरा नहीं होता जिसे रंगने और जिनके हाथों रंगाने का सौगंध हो। एक तरह से कहा जाए तो होली के रंगों में प्यार ही प्यार छुपा होता है। रंगों से सराबोर होकर फगुवा गाते होलिहारों की टोली को भला कोई रंग लगाने से मना कर सकता है। कई दिवाने इसी दिन रंग के बहाने प्रेमिका के गालों का स्पर्श भी पाता है।  मौसम का मिजाज भी होली में ऐसा होता है कि पलाश अपने शबाब पर होता है, दूर से ही लाल, पीला, हरा, नारंगी, जामुनी रंग आंखों में भर जाता है। सर्दी की बिदाई से बसंत का आगमन और फागुन के बाद से ग्रीष्म का आना एक बड़ा परिवर्तन है। बसंत के मौसम को ही अधिकतर जीवों के सहवास के लिए अनुकूल देखा गया है। पशु-पक्षी और जीव-जंतु से लेकर मनुष्य में भी इस माह अधिक वैवाहिक कार्यक्रम होना कही न कही यही संकेत देता है कि फागुन का महीना मादकता भरा होता है, नई जीवों के आगमन के लिये इससे बेहतर समय और कोई नहीं हो सकता।  फागुन में गाये जाने वाले गीतों में कही भी भक्ति और भगवान की बात नहीं आती कुछ अपवाद को छोड़कर। और न ही माता-पिता और गुरू की आराधना के शब्द गुंजते है। यह गीत केवल नायक और नायिका पर ही केन्द्रीत होता है, जहां भक्ति की बात आती है वहां भी कृष्ण और राधा की बात कही जाती है। भारतीय सिनेमा में जो होली गीत लोकप्रिय हुआ वह भी प्रेम में ही रंगा हुआ था न कि भक्ति में। होली आई रे कन्हाई…, जा रे हट नटखट…, आज न छोड़ेंगे हम हमजोली…, तन रंग लो जी आज मन रंग लो…, रंग बरसे भीगे चुनर वाली…, जैसे गीतों के बिना होली मन ही नहीं सकती है। हिन्दी के साथ ही अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में भी होली के अवसर पर प्रेम के गीत ही गाये जाते है।  छत्तीसगढ़ के संदर्भ में देखा जाए तो मैदानी क्षेत्रों में काफी कुछ समानताएं देखी जाती है। मन डोलय रे मांग फागुनवा..., मोला मोही डारे न..., मुख मुरली बजाए..., रइपुर वाले भाटो..., तोला रंग देहू वो एसो के साल..., मोर छोटे से श्याम कन्हैया..., चुनरी तोर रंग जाही..., अल्लर भइगे गोंदा फूल..., अरे आगी लगा दीही का..., जैसे गीत तन-मन में मादकता भर देता है।
तन मन में मादकता भरता होली गीत : (फोटो क्रेडिट - मनीषा प्रताप) 

भारतवर्ष में जितने दिन, उतने ही पर्व और उत्सव। अनेक जाति, पंथ और संप्रदाय की बाहुल्यता में पर्व मनाने की विविधता इस देशांचल की बहुत बड़ी विशेषता है। बहुत से ऐसे पर्व है जिसे संपूर्ण भारत में मनाया जाता है, भले ही मनाने की परंपरा और किवदंती अलग हो। कुछ तो अब विदेशों तक अपनी रंगत बिखेर चुका है। जी हां... रंग पर्व होली की रंगत अब भारत से सात समुंदर पार के देशों में भी छलकने लगा है। 

होली के विषय में मध्य भारत में अलग, दक्षिण में अलग और उत्तर में अलग किवदंती प्रचलित है। चूंकि भारत में उत्तर भारत के निवासी सभी प्रांतों में फैले हुये हैं और जहां-जहां वे गये अपने साथ अपनी संस्कृ‍ति और परंपराओं को लेकर गये, प्रचार-प्रसार किया। शायद यही वजह है कि उत्तर भारत की संस्कृति को संपूर्ण भारत की संस्कृति माना जाने लगा। 

होली की बात करे तो यह सबसे प्राचीन है, इसमें जन में व्याप्त भक्त प्रहलाद और होलिका का कथा प्रसंग बताया जाता है। इसमें होलिका अपने ही भतीजे बालक प्रहलाद जो कि विष्णु का भक्त था को लेकर चिता में बैठ जाती है। कहा जाता है उस चिता में होलिका जल जाती है और भक्त प्रहलाद जीवित बच जाता है। प्रहलाद का पिता हिरण्यकश्यप अपने ही संतान की मृत्यु चाहता था, तरह-तरह से मारने का प्रयत्न करता था। और एक दिन प्रहलाद के कारण ही उनके पिता की हत्या कर दी जाती है भगवान के नरसिंह अवतार द्वारा। तब से होली का त्योहार मनाया जा रहा है।इस विषय में अनेक किवदंतियां गढ़ी गई जिस पर इतिहासकार, धर्माचार्य, सर्वधर्मी साहित्यकार, कथाकार, गीतकार जन अब भी चिंतन कर नव सृजन कर रहे हैं।

होली के संदर्भ में एक और अलग प्रसंग त्योहार मनाने का आता है जिसमें मथुरा, गोकुल, ब्रज और वृंदावन की होली अति प्रसिद्ध है। आप सभी को भगवान श्री कृष्ण की लीला तो याद ही होगी जिसमें राधारानी, बरसाना और गोकुल के ग्वाल बाल के साथ होली का उत्सव मनाते है। अब यहां होली मनाने का कारण भिन्न हो जाता है लोग कृष्ण और राधा के प्रेम के गीत गाते हैं। भांग और धतूरे में धूत होकर मस्ती से झूम-झूम कर नाचते गाते है। इस काल में सर्वाधिक गीतों का सृजन हुआ जिसे मैथिली, भोजपुरी, अवधी, ब्रज, मगही सहित अन्य भाषाओं में भी गायी जाने लगी। यहां भी गीतों की ही प्रधानता रही है, बिना गीत के होली का त्योहार नहीं होता।

ब्रज, बरसाना, गोकुल, मथुरा और वृंदावन की होली कृष्णमय होती है, जिसकी ख्याती विश्व विख्यात है। देश-विदेश के लोग होली में शामिल होने आते हैं। अबीर, गुलाल और तरह-तरह की फूलों की होली अलग ही रंगत में फागुन की मस्त मादक भरे मौसम का आनंद देता है। स्पष्ट शब्दों में कहे तो होली आनंद का पर्व है, बसंत का आगमन होता है, प्रकृति नये रंग में हरी-भरी दिखाई पड़ती है। 

यही मादकता भरे होली की गंध छत्तीसगढ़ में भी दिखाई देता है। नंगाड़े की ताल में होलिहारों की टोली बसंत पंचमी से ही फगुवा का तान छेड़ देते है। फागुन में फाग, फगुवा, होरी, होले, डंडा, रहस परवान पर होता है। गांव के बच्चे-बुढ़े और महिलाओं की टोली अपने-अपने सखा-सहेली संग फागुन के आनंद में गीत गाते झुमते हैं।

छत्तीसगढ़ में होली एक-दो दिन का पर्व नहीं है अपितु बसंत पंचमी से रंग पंचमी तक 45 दिन का उत्सव होता है।नंगाड़ा बजाकर होले डाढ़ (होलिका दहन स्थल) में फाग गाते है। होलिका दहन के दूसरे दिन फागुन त्योहार मनाया जाता है। होली के राख से एक दूसरे को तिलक लगाकर शुभकामनाएं देते है। अब समय के साथ रंग-बिरंगे होते पर्व में परंपरा का निर्वाह हो रहा है यही काफी है। लेकिन इस सब के बीच भी होली में गीत और संगीत अपने मूल के साथ परोसा जा रहा है। 

फाग गीतों में अपनी प्रेमिका, पत्नी अथवा भाभी और उनकी बहन। प्रेमी, पति और देवर जैसे हम उम्र लोगों के बीच मस्ती और उमंग के साथ ठिठोली की जाती है। देवर भाभी पर रंग लगाता है तो भाभी कहां पीछे रहने वाली है रंग की गघरियां धर देवर पर उड़ेल देती है। प्रेमी अपने प्रेमिका को रंगने के लिये उनकी गली में बड़े ही हिम्मत के साथ जाता है, उधर लड़कियों की टोली में शामिल प्रेमिका भी घर वालों से नजरें बचाती रंगने को आतुर रहती है। सुबह से शाम तक उसे रंग लगाये बिन फगुवा पुरा नहीं होता जिसे रंगने और जिनके हाथों रंगाने का सौगंध हो। एक तरह से कहा जाए तो होली के रंगों में प्यार-प्यार ही छुपा होता है। रंगों से सराबोर होकर फगुवा गाते होलिहारों की टोली को भला कोई रंग लगाने से मना कर सकता है। कई दिवाने इसी दिन रंग के बहाने प्रेमिका के गालों का स्पर्श भी पाता है।

मौसम का मिजाज भी होली में ऐसा होता है कि पलाश अपने शबाब पर होता है, दूर से ही लाल, पीला, हरा, नारंगी, जामुनी रंग आंखों में भर जाता है। सर्दी की बिदाई से बसंत का आगमन और फागुन के बाद से ग्रीष्म का आना एक बड़ा परिवर्तन है। बसंत के मौसम को ही अधिकतर जीवों के सहवास के लिए अनुकूल देखा गया है। पशु-पक्षी और जीव-जंतु से लेकर मनुष्य में भी इस माह अधिक वैवाहिक कार्यक्रम होना कही न कही यही संकेत देता है कि फागुन का महीना मादकता भरा होता है, नई जीवों के आगमन के लिये इससे समय बेहतर और कोई नहीं हो सकता। 

फागुन में गाये जाने वाले गीतों में कही भी भक्ति और भगवान की बात नहीं आती कुछ अपवाद को छोड़कर। और न ही माता-पिता और गुरू की आराधना के शब्द गुंजते है। यह गीत केवल नायक और नायिका पर ही केन्द्रीत होता है, जहां भक्ति की बात आती है वहां भी कृष्ण और राधा की बात कही जाती है। भारतीय सिनेमा में जो होली गीत लोकप्रिय हुआ वह भी प्रेम में ही रंगा हुआ था न कि भक्ति में। होली आई रे कन्हाई…, जा रे हट नटखट…, आज न छोड़ेंगे हम हमजोली…, तन रंग लो जी आज मन रंग लो…, रंग बरसे भीगे चुनर वाली…, जैसे गीतों के बिना होली मन ही नहीं सकती है। हिन्दी के साथ ही अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में भी होली के अवसर पर प्रेम के गीत ही गाये जाते है। 

छत्तीसगढ़ के संदर्भ में देखा जाए तो मैदानी क्षेत्रों में काफी कुछ समानताएं देखी जाती है। मन डोलय रे मांग फागुनवा..., मोला मोही डारे न..., मुख मुरली बजाए..., रइपुर वाले भाटो..., तोला रंग देहू वो एसो के साल..., मोर छोटे से श्याम कन्हैया..., चुनरी तोर रंग जाही..., अल्लर भइगे गोंदा फूल..., अरे आगी लगा दीही का..., जैसे गीत तन-मन में मादकता भर देता है।
 जयंत साहू (डूण्डा, रायपुर)

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