अखण्ड भूमण्डलाचार्य जगद्गुरु महाप्रभु श्रीमद वल्लभाचार्य जी

श्री महाप्रभुजी प्राकट्रय बैठकजी मंदिर चंपारण: यात्रा वृतांत



 

श्री वल्लभाचार्य जी भक्तिकालीन सगुणधारा की कृष्णभक्ति शाखा के प्रतिष्ठाता, शुद्धाद्वैत दार्शनिक सिद्धांत के समर्थक प्रचारक और भगवत-अनुग्रह प्रधान एवं भक्ति-सेवा समन्वित 'पुष्टि मार्ग' के प्रवर्त्तक थे। चम्पारण वल्लभाचार्य जी की जन्मस्थली होने के कारण पुष्टि संप्रदाय के लोग इस स्थान को सबसे पवित्र भूमि मानते हैं। कहा जाता है कि महाप्रभु वल्लभाचार्य जी ने अपने जीवनकाल में तीन बार धरती की परिक्रमा की है और इस परिक्रमा के दौरान उन्होंने देशभर में 84 स्थानों पर श्रीमद् भागवत कथा का पारायण किया। आज भी उन स्थानों पर श्री महाप्रभु जी की बैठकी धाम में लोग दर्शन करने आते है। महाप्रभु जी की 84 बैठकी में से चंपारण भी एक है जिनका प्राकट्य स्थल होने के कारण विशेष महत्व है।



महानदी के किनारे, प्राकृतिक सौंदर्य लिए चंपारण गांव मथुरा, गोकुल और वृंदावन धाम से कम नहीं है। इस मंदिर परिसर का भ्रमण करने से ऐसा लगता है मानो वृंदावन में साक्षात ठाकुर जी के शरण में हो, इतना रमणीय है। मनमोहक रंग रोगन, सुंदर-सुदंर कलाकृतियों के बीच प्रभु की अनेक नयनाभीराम मूर्ति मन को अद्भुत शांति प्रदान करता है। परिसर में समाधी की मुद्रा में बैठे भगवान शंकर, गोवर्धन पर्वत उठाये श्री कृष्ण और गोकुलवासी की मूर्ति के अलावा महाप्रभु जी की दीक्षा, साधना और ठाकुर जी से मिलन के साथ ही बालक वल्लभाचार्य जी की जन्म की कहानी को दर्शाया गया है। देश-विदेश में फैले वल्लभ संप्रदाय के अनुयायी महाप्रभु की प्राकट्य प्रसंग की जिज्ञासा लिए बैठकजी का दर्शन कर अपना जीवन सफल करते है।





महाप्रभु के चंपारण में प्राकट्य के विषय में कहा जाता है कि- श्री वल्लभाचार्य जी के पिता श्री लक्षण भट्ट जी भारद्धाज गोत्रीय तैलंग ब्राह्मण थे व उनकी माता राजपुरोहित सुशर्मा की गुणवती कन्या  इल्लम्मगारू थी। वें जब अपनी यात्रा के दौरान चंपारण के बिहड़ वन से गुजर रहे थे तभी माता इल्लम्मगारू को प्रसव पीड़ा हुई शाम का समय था जल्दी ही किसी नगर तक पहुंचना चाहते थे किन्तु वे पहुंच न सके। वन में ही एक विशाल शमी वृक्ष के नीचे अठमासे शिशु का जन्म विक्रम संवत् 1535, वैशाख कृष्ण की एकादशी को चंपारण के निर्जन वन में श्री लक्ष्मण भट्ट जी की पत्नी इलम्मागारू के गर्भ से हुआ। पैदा होते ही बालक में कोई हलचल नहीं होने से वे उसे मृत समझकर रात के अंधेरे में ही प्रभु की इच्छा मानकर उस बालक को शमी वृक्ष के नीचे एक गड़ढे में रख दिया और पत्तों से ढककर आगे चले गये। 



किन्तु दूसरे ही दिन काशी वापस आने के दौरान पुन: उसी रास्ते पर उसी जगह बालक को जीवित अवस्था में पाया। शमी वृक्ष के नीचे बालक के चारों अलौकिक प्रकाश फैला हुआ था इस अद्भुत दृश्य को देखकर माता-पिता के आंखो में प्रसन्नता के आंसु छलकने लगे। मां ने स्नेह से गोद में उठाकर दुध पिलाया। चंपारण के इसी निर्जन वन में उनका नाम कारण हुआ बल्लभ के रूप में जो आगे चलकर अखण्ड भूमण्डलाचार्य जगद्गुरु महाप्रभु श्रीमद वल्लभाचार्य जी के नाम से विख्यात हुए।



वल्लभाचार्य जी की शिक्षा दीक्षा काशी में ही हुई वे वेद, वेदांग, दर्शन, पुराण, काव्यादि में तथा विविध धार्मिक ग्रंथों में अभूतपूर्व निपुणता प्राप्त की थी। वे वैष्णव धर्म के अतिरिक्त जैन, बौद्ध, शैव, शाक्त, शांकर आदि धर्म-संप्रदायों के अद्वितीय विद्वान थे। उन्होंने अनेक भाष्यों, ग्रंथों, नामावलियों, एवं स्तोत्रों की रचना की है, जिन्हें ‘षोडश ग्रन्थ’ के नाम से जाना जाता है। वल्लभ संप्रदाय की स्थापना के साथ ही श्री महाप्रभु वल्लभाचार्य जी ने कृष्ण-भक्ति की पावन धारा प्रवाहित करते हुये जाति-पाँति, ऊँच-नीच, छूआ-छूत आदि का विचार किये बिना ही सभी को अपने सम्प्रदाय में दीक्षित कर श्रीकृष्ण की भक्ति का समान अधिकार दिया। जय श्री कृष्ण।
सर्वदा सर्वभावेन भजनीयो ब्रजाधिपः।
तस्मात्सर्वात्मना नित्यं श्रीकृष्णः शरणं मम।





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© जयंत साहू
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