निरई माता की जात्रा

नवरात्रि की प्रथम रविवार को जात्रा में आते है सैकड़ों श्रद्धालु

निरई माता के दरबार में नहीं जाती है महिलाएं

निरई ग्राम की दुर्गम पहाड़ी में बसी है माता निरई







छत्तीसगढ़ आदिकाल से ही देवी-देवताओं की आस्था और साधना का केन्द्र रहा है। इसीलिये इस अंचल के कोने-कोने में देव स्थल है। कहीं धरातल के भव्य मंदिर पर,  तो कहीं सैकड़ों फीट पहाड़ी की ऊंची चोटी पर माता विराजमान है। कुछ स्थान पर पहुचंने के लिए अच्छी सड़के और सीड़ियों का निर्माण हो चुका है किन्तु सुदूर अंचलों में आज भी कुछ स्थानों पर माता पेड़-पहाड़ियों की कंदराओं में विराजमान है। भक्त भी अवसर विशेष में माता का दर्शन करने असुविधाओं में भी प्रसन्नता से पहुंचते है। 52 शक्तिपीठ में से आदिशक्ति मां का अधिकांश मंदिर पहाड़ियों में ही है जहां आसानी से पहुंच पाना संभव नहीं होता है। छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले के मगरलोड विकासखंड के अंतर्गत एक ग्राम निरई की कुलदेवी माता निरई, वहां कि दुर्गम पहाड़ी में बसी हैं जहां पैदल पहाड़ी की ऊंची चोटी पर चड़ना पड़ता है। 





निरई माता की महिमा कुछ ही वर्षो में इतनी बड़ी है कि एक दिन में ही हजारों भक्त दर्शन करने निरई की पहाड़ी में पहुंचते है। निरई माता के नामकरण के विषय में यह कहा जाता है कि गांव के नाम पर ही माता का नाम पड़ा, कुछ लोगों का यह भी मानना है कि माता के नाम पर ही निरई ग्राम बसा है। निरई एक छोटा-सा गांव है जो कि मोहेरा का आश्रित ग्राम है। यहां रायपुर, गरियाबंद, धमतरी से आसानी से पहुंचा जा सकता है। निरई माता के दर्शन के लिये बहुत ही दुर्गम रास्तों से होकर जाना पड़ता है। वैसे अब मोहेरा गांव तक सड़क का निर्माण कार्य चल रहा है किन्तु निरई ग्राम जाने के लिए लगभग 5 किलोमीटर कच्ची रास्ते से गुजरना पड़ता है। 






इस अंचल में आदिवासी व गोड़वाना समाज के लोगों की बाहुलता है। यहां के लोगों का जीवन कृषि पर आधारित है। पास में ही नदी है इसीलिए यहां के लोगों का जीवन अन्य पहाड़ी अंचलों कि आपेक्षा बेहतर है। माता निरई का वास पहाड़ी की चोटी पर है किन्तु पहाड़ी के नीचे भी अलग-अलग स्थानों पर माता के ही प्रतिरूप को रखा गया है। 








माता का दर्शन करने के लिए लोग एक दिन की जात्रा में अधिक संख्या में आते है। निरई माता का जात्रा नवरात्रि के प्रथम रविवार को आयोजित होती है। इस दिन आसपास के ग्रामीण माता का दर्शन करने के साथ माता से मनोकामना मांगते है और मन्नत पूरी होने पर माता को बकरे की बलि देते है। चूकि यह अंचल आदिवासियों का है इसलिए यहां मां की आराधना और उपासना ग्रामीणों के अनुसार आदिम सस्कृति से की जाती है।




माता निरई का दरबार वर्ष में एक दिन के लिए खुलता है। नवरात्रि का रविवार होने के कारण भीड़ अधिक होती है। माता निरई पहाड़ी की कंदरा और पेड़ की छॉव में बैठी भक्तों का दुखदर्द दूर कर रही है। यहा अन्य धार्मिक स्थानों की तरह फूल, नारियल आदि का बाजार नहीं लगता है, जात्रा के दिन ही कुछ लोग अब पहुंचने लगे है। ग्रामीणों के अनुसार उनके पूर्वज सैकड़ों वर्षो से इस स्थान पर माता की आराधना करते आ रहे है। पहुंच मार्ग दुर्गम होने के कारण पहले जात्रा में अधिक लोग शामिल नहीं होते थे किन्तु अब कुछ ही वर्षों में हजारों लोग एक दिन की जात्रा में दर्शन करने आते है। भक्तों द्वारा एक दिन में ही सैकड़ों बकरा माता को भेट की जाती है। निरई की पहाड़ी के अलावा नीचे भी माता के दो देव स्थान है जहां बकरा काटा जाता है। एक स्थान में काला बकरा और दूसरे स्थान में खैरा बकरा कटता है। 


माता निरई के विषय में भी अनेक किवदंती प्रचलित है। पहाड़ी के नीचे सबसे प्रथम माता की पांव का दर्शन होता है। पांव के विषय में ग्रामीण बताते है कि माता धीरे-धीरे जल स्त्रोत से बाहर आ रही थी लेकिन कुछ असामाजिक तत्वों द्वारा उस स्थान पर उचित मान सम्मान नहीं किये जाने के कारण माता का निकलना बंद हो गया, अब उस स्थान पर ही माता के पाव को स्थापित करके रखा गया है। इस स्थान में कवांर नवरात्रि में अखंड ज्योति प्रज्वलित की जाती है।


ग्रामीण बताते है कि उनके पूर्वज इस स्थान पर कई वर्षों से आराधना करते आ रहे है। पहाड़ी से माता का शेर गांव पुजारी के घर तक आता था, उनसे बातें किया करता था। माता ने उस पहाड़ी पर कई और लोगों को दर्शन दिये है। ख्याति धीरे-धीरे अब अन्य गांव और शहर तक पहंचने से दर्शन करने वालों का तांता लगा रहता है। इस निरई धाम के एक दिन के जात्रा में केवल पुरूष ही जाते है यहां महिलाओं का प्रवेश वर्जित है।



माता निरई का यह क्षेत्र कुछ ही वर्षो में ही धर्म और पर्यटन के रूप में भी काफी विकसीत हो रहा है। लोगों के आवागमन के लिये रास्ते बनाये जा रहे है। हो सकता है कुछ वर्षों में मंदिर आदि का निर्माण हो जाये किन्तु आज जो निरई धाम का नजारा है वह अलौकिक और अदभुत है। असुविधा के साथ प्राकृतिक वादियों में विचरण करने का आनंद ही अलग होता है।

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- जयंत साहू
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