स्मृति चर्चा... दाऊ रामचंद्र देशमुख

सांस्कृतिक जागरण का शंखनाद है दाऊ जी का 'चंदैनी गोंदा’: सुशील भोले

दाऊ रामचंद्र देशमुख जी के हाथों मयारू माटी का विमोचन



सुशील भोले साहित्यकार
छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति और छत्तीसगढ़ी अस्मिता पर बेबाकी से कलम चलाते हुए वर्तमान समय में हुई छत्तीसगढ़ी कला, संस्कृति और साहित्य लेखन को सिरे से खारिज कर कोई व्यक्ति यह कह दे कि हमारी संस्कृति को गलत तरीके से लिखा गया है, इसका पुनर्लेखन होना चाहिए तो समझ लेना वही शख्स वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुशील भोले जी हैं। वैसे तो कई साहित्यकारों ने छत्तीसगढ़ को कागजों पर उतारा है किन्तु जिस दृष्टि से भोले जी ने छत्तीसगढ़ की संस्कृति को देखा और लिखा वह अन्य किसी के कलम में नजर नहीं आता है। भोले जी माटी के जुड़े हुए व्यक्ति हैं और साहित्य सृजन भी छत्तीसगढ़ की माटी के लिये करते है। लेखन के साथ-साथ 1987 से 'मयारू माटी’ नामक छत्तीसगढ़ी मासिक पत्रिका का संपादन करते हुये कई नये कलमकारों को अवसर दिये हैं, तथा अनेक पत्र-पत्रिकाओं में सेवा देने के बाद अब छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति के प्रचार-प्रसार में लगे श्री सुशील भोले जी का छत्तीसगढ़ के माटी पुत्रों से काफी नजदीकियां रही हैं । छत्तीसगढ़ी लोक कलामंच के सर्जक दाऊ रामचंद्र देशमुख जी से भी उनका गहरा नाता रहा है। छत्तीसगढ़ी साहित्यकार और पत्रकार के नाते दाऊ जी से अक्सर छत्तीसगढ़ की कला, संस्कृति और साहित्य पर लंबी चर्चाएं होती थीं। आज छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ साहित्यकार सुशील भोले जी दाऊ रामचंद्र देशमुख जी से जुड़ी कुछ स्मृतियां हमारे साथ साझा कर रहे हैं - 
0 दाऊ रामचंद्र देशमुख जी से आपका परिचय कब, कैसे और कहां हुआ?
00 साहित्य और पत्रकारिता से जुड़े होने के कारण मीडिया के माध्यम से तो जानते थे किन्तु प्रत्यक्ष मुलाकात मयारू माटी पत्रिका प्रकाशन के दौरान 1987 में हुई। बात उन दिनों की है जब मैं छत्तीसगढ़ी भाषा में मासिक पत्रिका की नींव रख रहा था और प्रथम अंक के विमोचन के लिये मुझे ऐसे व्यक्ति की तलाश थी जिनका छत्तीसगढ़ी भाषा, संस्कृति और साहित्य में उल्लेखनीय योगदान हो। तभी वरिष्ठ साहित्यकार श्री टिकेन्द्रनाथ टिकरिहा जी ने सुझाव दिए कि दाऊ रामचंद्र देशमुख जी के हाथों विमोचन कराया जाए। फिर मैं टिकेन्द्रनाथ टिकरिहा जी के साथ दाऊ जी के गांव बघेरा गया। वहां उनसे मिलकर मयारू माटी के बारे में बताया कि हम लोक छत्तीसगढ़ी भाषा में एक पत्रिका शुरू कर रहे हैं और आपके हाथों से ही विमोचन कराना चाहते हैं। दाऊ जी छत्तीसगढ़ी पत्रिका का नाम सुनकर खुश हो गये और स्वीकृति देते हुए मुझसे पूछने लगे कि और कौन-कौन आ रहे है। मैंने कहा आप हैं और दाऊ महासिंग चंद्राकर जी रहेंगे। दाऊ जी ने एक सुझाव दिया कि कार्यक्रम की अध्यक्षता नवभारत अखबार के स्थानीय संपादक कुमार साहू जी से करा लो, मेरा नाम बता कर मिल लेना मना नहीं करेंगे। वहां से लौटने के बाद मैंने नवभारत के तत्कालीन संपादक कुमार साहू जी से मिला और सहर्ष उनकी भी सहमती मिल गई। दाऊ रामचंद्र देशमुख, दाऊ महासिंग चंद्राकर, हरि ठाकुर, टिकेन्द्रनाथ टिकरिहा, सुशील यदु और पंचराम सोनी के साथ और भी कई वरिष्ठ साहित्यकारों की उपस्थिति में 9 दिसंबर 1987  को 'मयारू माटी’ का विमोचन हुआ।

0 दाऊ जी के व्यक्तित्व का कौन-सा पहलू आपको अधिक प्रभावित करता है? 
00 दाऊ जी के छत्तीसगढ़ी लोक कला के प्रति लगाव और समर्पण से मैं काफी प्रभावित था। दाऊ जी कला मर्मज्ञ तो थे, साथ ही उनके भीतर एक बहुत अच्छा लेखक और चिंतक भी छुपा हुआ था। उनका एक विशेष लेख मयारू माटी में प्रकाशित भी हुआ, जिसमें उन्होंने चंदैनी गोंदा के विषय में अपना अनुभव लिखा था कि किस प्रकार वे कला के क्षेत्र में आये और कैसे चंदैनी गोंदा का सृजन हुआ। 
0 दाऊ जी की किन-किन प्रस्तुतियों को अपने देखा है, कहां और कब?
00 चंदैनी गोंदा का नाम तो शुरूआती दौर से ही बहुत सुना था किन्तु मंचीय प्रस्तुति देखने का अवसर 1987 में ही मिला। जब दाऊ जी से मेरी पहली मुलाकात हुई तो उन्होने बताया कि दुर्ग के पास एक गांव में चंदैनी गोंदा का कार्यक्रम है। मेरी दिली इच्छा भी थी कार्यक्रम देखने की और दाऊ जी ने आमंत्रित भी कर दिए तो मैं और मेरे एक साथी साहित्यकार चंद्रशेखर चकोर हम दोनों रायपुर से दुर्ग कार्यक्रम देखने गये थे। 
0 दाऊ जी के अवदान को आप किस तरह से रेखांकित करेंगे? 
00 दाऊ जी ने छत्तीसगढ़ी कला, संस्कृति और साहित्य के लिये बहुत बड़ा काम किया है। कार्यक्रम की शुरूआत में वें हमेशा छत्तीसगढ़ी के साहित्यकारों का सम्मान करते थे। दाऊ जी कला के प्रति समर्पित तो थे साथ ही साहित्य को भी प्रोत्साहन देते थे। उन्होंने सांस्कृतिक मंच के लिये अद्भुत काम किया है, इसमें कोई दो मत नहीं है कि दाऊ जी से ही प्रेरणा लेकर कई अन्य सांस्कृतिक मंचों का उदय हुआ।  

0 1971 में चंदैनी गोंदा की प्रस्तुति से पहले समाचार पत्रों की स्थिति छत्तीसगढ़ के बारे में कैसी थी?
00 प्रकाशन का माध्यम कम था गिने चुने ही अखबार प्रकाशित होते थे वह भी हिन्दी में। 1971 में चंदैनी गोंदा की प्रस्तुति के बाद छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी लोक कला का ऐसा माहौल बना कि दाऊ जी के कार्यक्रमों की प्रशंसा छत्तीसगढ़ अंचल से देश की राजधानी नई दिल्ली तक के अखबारों में भी प्रमुखता से प्रकाशित होने लगी। जब भी मैं बघेरा जाता था तो दाऊ जी उन अखबारों के कतरन मुझे दिखाया करते थे। 
0 छत्तीसगढ़ के जनमानस में ‘चंदैनी गोंदा ’ का क्या प्रभाव पड़ा?
00 चंदैनी गोंदा का लोक जीवन में बहुत बड़ा प्रभाव है उन्ही की बदौलत ही तो मस्तुरिहा जी जैसे कई गीतकारों और गायकों को नाम और पहचान मिली। चंदैनी गोंदा का गीत रेडियो के 'सुर श्रृंगार’ कार्यक्रम में हमेशा बजता था। रेडियो का बड़ा क्रेज था गांव-गांव में लोग रेडियो सुनते थे। उन दिनों राष्ट्रीय स्तर का एक कार्यक्रम आता था रेडियो सीलोन से 'बिनाका गीत माला’ नाम से जो छत्तीसगढ़ में भी बहुत चर्चित था। लेकिन जब सुर श्रृंगार में चंदैनी गोंदा के छत्तीसगढ़ी गीत बजने लगे तो पूरे छत्तीसगढ़ में उस कार्यक्रम की इतनी दीवानगी छाई कि घर और दुकानों से लेकर खेत खलिहानों तक, कई लोग तो सफर के दौरान कंधे में रेडियो लटकाये चलते थे कि कहीं सुर श्रृंगार कार्यक्रम छूट न जाये। इस तरह छत्तीसगढ़ी को शिष्ट और सम्मानित दर्जा दिलाने में चंदैनी गोंदा की अहम भूमिका रही है। इससे पहले तक छत्तीसगढ़ी गीत और साहित्य को छोटी नजरों से देखा जाता था चंदैनी गोंदा के बाद ही जनमानस का नजरिया बदला है।

0 दाऊ रामचंद्र देशमुख जी के ‘चंदैनी गोंदा’ को आप एक साहित्यकार के नाते किस रूप में देखते हैं?
00 चंदैनी गोंदा केवल छत्तीसगढ़ी गीत-संगीत प्रस्तुत करने वाली मंडली नहीं वरन एक अभियान था। ये बाते स्वयं दाऊ जी ने मुझसे कई बार कही है, मेरी उनसे इतनी आत्मियता बन गई थी कि कई रात मैं बघेरा में रूका हूं। दाऊ जी के प्रेरणा स्त्रोत डॉ. खूबचंद बघेल जी थे, जिनके निर्देशानुसार ही उन्होंने सांस्कृतिक आंदोलन शुरू किया। डॉ. खूबचंद बघेल जी का नाटक जरनैल सिंह, करम छड़हा आदि का मंचन चंदैनी गोंदा में होता था। मनोरंजन तो एक माध्यम था असल अभियान तो छत्तीसगढ़ की अस्मिता, संस्कृति और स्वाभिमान को जगाना था। 
0 पृथक छत्तीसगढ़ राज्य आंदोलन में दाऊ जी की भूमिका और अब राज्य बनने के बाद क्या छत्तीसगढ़ की विभूतियों को उचित सम्मान दे पा रही है सरकार?
00 दाऊ रामचंद्र देशमुख जी तो छत्तीसगढ़ राज्य आंदोलन में 1971 से ही कूद चुके थे मिशन ‘चंदैनी गोंदा’ लेकर। बहरहाल इस बात को तो सभी मानते है कि पृथक छत्तीसगढ़ राज्य सांस्कृतिक और साहित्यिक आंदोलन का परिणाम है तो इस हिसाब से उनकी भूमिका भी जग जाहिर है। रही बात अलग छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद छत्तीसगढ़ की विभूतियों के मान सम्मान की तो यह सरकार की जिम्मेदारी बनती है और यदि सरकार भी अपनी जिम्मेदारी को ठीक तरह से नहीं निभायेगा तो फिर आंदोलन होगा। बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि इतने वर्षों बाद भी हम दाऊ जी की विरासत को सहेज नहीं पाये। वैसे वर्तमान सरकार से बहुत कुछ उम्मीद है और इस दिशा में पहल भी हो रहा है। आज यह जानकर प्रसन्नता हो रही है कि सुरेश देशमुख भैया उनके उपर काम कर रहे हैं, मेरी उनको बहुत-बहुत शुभकामनाएं हैं। निश्चित ही उनके प्रयासों से आज की नई पीढ़ी दाऊ रामचंद्र देशमुख जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को जानेंगे। 0

जयंत साहू पत्रकार
- जयंत साहू, डूण्डा रायपुर छ.ग.
9826753304 
jayantsahu9@gmail.com

अखण्ड भूमण्डलाचार्य जगद्गुरु महाप्रभु श्रीमद वल्लभाचार्य जी

श्री महाप्रभुजी प्राकट्रय बैठकजी मंदिर चंपारण: यात्रा वृतांत



 

श्री वल्लभाचार्य जी भक्तिकालीन सगुणधारा की कृष्णभक्ति शाखा के प्रतिष्ठाता, शुद्धाद्वैत दार्शनिक सिद्धांत के समर्थक प्रचारक और भगवत-अनुग्रह प्रधान एवं भक्ति-सेवा समन्वित 'पुष्टि मार्ग' के प्रवर्त्तक थे। चम्पारण वल्लभाचार्य जी की जन्मस्थली होने के कारण पुष्टि संप्रदाय के लोग इस स्थान को सबसे पवित्र भूमि मानते हैं। कहा जाता है कि महाप्रभु वल्लभाचार्य जी ने अपने जीवनकाल में तीन बार धरती की परिक्रमा की है और इस परिक्रमा के दौरान उन्होंने देशभर में 84 स्थानों पर श्रीमद् भागवत कथा का पारायण किया। आज भी उन स्थानों पर श्री महाप्रभु जी की बैठकी धाम में लोग दर्शन करने आते है। महाप्रभु जी की 84 बैठकी में से चंपारण भी एक है जिनका प्राकट्य स्थल होने के कारण विशेष महत्व है।



महानदी के किनारे, प्राकृतिक सौंदर्य लिए चंपारण गांव मथुरा, गोकुल और वृंदावन धाम से कम नहीं है। इस मंदिर परिसर का भ्रमण करने से ऐसा लगता है मानो वृंदावन में साक्षात ठाकुर जी के शरण में हो, इतना रमणीय है। मनमोहक रंग रोगन, सुंदर-सुदंर कलाकृतियों के बीच प्रभु की अनेक नयनाभीराम मूर्ति मन को अद्भुत शांति प्रदान करता है। परिसर में समाधी की मुद्रा में बैठे भगवान शंकर, गोवर्धन पर्वत उठाये श्री कृष्ण और गोकुलवासी की मूर्ति के अलावा महाप्रभु जी की दीक्षा, साधना और ठाकुर जी से मिलन के साथ ही बालक वल्लभाचार्य जी की जन्म की कहानी को दर्शाया गया है। देश-विदेश में फैले वल्लभ संप्रदाय के अनुयायी महाप्रभु की प्राकट्य प्रसंग की जिज्ञासा लिए बैठकजी का दर्शन कर अपना जीवन सफल करते है।





महाप्रभु के चंपारण में प्राकट्य के विषय में कहा जाता है कि- श्री वल्लभाचार्य जी के पिता श्री लक्षण भट्ट जी भारद्धाज गोत्रीय तैलंग ब्राह्मण थे व उनकी माता राजपुरोहित सुशर्मा की गुणवती कन्या  इल्लम्मगारू थी। वें जब अपनी यात्रा के दौरान चंपारण के बिहड़ वन से गुजर रहे थे तभी माता इल्लम्मगारू को प्रसव पीड़ा हुई शाम का समय था जल्दी ही किसी नगर तक पहुंचना चाहते थे किन्तु वे पहुंच न सके। वन में ही एक विशाल शमी वृक्ष के नीचे अठमासे शिशु का जन्म विक्रम संवत् 1535, वैशाख कृष्ण की एकादशी को चंपारण के निर्जन वन में श्री लक्ष्मण भट्ट जी की पत्नी इलम्मागारू के गर्भ से हुआ। पैदा होते ही बालक में कोई हलचल नहीं होने से वे उसे मृत समझकर रात के अंधेरे में ही प्रभु की इच्छा मानकर उस बालक को शमी वृक्ष के नीचे एक गड़ढे में रख दिया और पत्तों से ढककर आगे चले गये। 



किन्तु दूसरे ही दिन काशी वापस आने के दौरान पुन: उसी रास्ते पर उसी जगह बालक को जीवित अवस्था में पाया। शमी वृक्ष के नीचे बालक के चारों अलौकिक प्रकाश फैला हुआ था इस अद्भुत दृश्य को देखकर माता-पिता के आंखो में प्रसन्नता के आंसु छलकने लगे। मां ने स्नेह से गोद में उठाकर दुध पिलाया। चंपारण के इसी निर्जन वन में उनका नाम कारण हुआ बल्लभ के रूप में जो आगे चलकर अखण्ड भूमण्डलाचार्य जगद्गुरु महाप्रभु श्रीमद वल्लभाचार्य जी के नाम से विख्यात हुए।



वल्लभाचार्य जी की शिक्षा दीक्षा काशी में ही हुई वे वेद, वेदांग, दर्शन, पुराण, काव्यादि में तथा विविध धार्मिक ग्रंथों में अभूतपूर्व निपुणता प्राप्त की थी। वे वैष्णव धर्म के अतिरिक्त जैन, बौद्ध, शैव, शाक्त, शांकर आदि धर्म-संप्रदायों के अद्वितीय विद्वान थे। उन्होंने अनेक भाष्यों, ग्रंथों, नामावलियों, एवं स्तोत्रों की रचना की है, जिन्हें ‘षोडश ग्रन्थ’ के नाम से जाना जाता है। वल्लभ संप्रदाय की स्थापना के साथ ही श्री महाप्रभु वल्लभाचार्य जी ने कृष्ण-भक्ति की पावन धारा प्रवाहित करते हुये जाति-पाँति, ऊँच-नीच, छूआ-छूत आदि का विचार किये बिना ही सभी को अपने सम्प्रदाय में दीक्षित कर श्रीकृष्ण की भक्ति का समान अधिकार दिया। जय श्री कृष्ण।
सर्वदा सर्वभावेन भजनीयो ब्रजाधिपः।
तस्मात्सर्वात्मना नित्यं श्रीकृष्णः शरणं मम।





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महानदी के तट पर 81 फीट विशालकाय श्री रामोदर वीर हनुमान जी

हनुमान जी की विशालकाय मूर्ति: महानदी, टीला

यात्रा वृतांत:




छत्तीसगढ़ की जीवनदायिनी महानदी के तट पर उद्गम से लेकर महासागर में विलय तक अनेकों धार्मिक स्थल देखने को मिलता है। नदी की प्रवाह के साथ ही आस्था का सैलाब उमड़ता-घुमड़ता कभी इस छोर तो कभी उस छोर। नदी की जलधारा की तरह ही चंचल मन भी गतिमान है,कही देव आदिदेव महादेव तो, कही जगत जननी मां जगदम्बा। स्नान ध्यान और पूजा अर्चना के लिये संत महात्माओं के अलावा भगवान भी इस नदी की जल से अपनी प्यास बुझाई है। छत्तीसगढ़ के महानदी पर सबसे प्राचीन और विख्यात मंदिरों की बात करे तो राजीवलोचन कुलेश्वर महादेव और गंधेश्वर महादेव, चंपेश्वर महादेव का नाम शीर्ष में आता है। इसके अलावा अब नदी के दोनो छोर पर बसे गांव के लोग छोटी-छोटी मंदिरों का निर्माण कर अपने-अपने स्तर में विभिन्न अवसरों पर मेले आदि का आयोजन कर ग्राम्य देव के महिमा गान में कोई कसर नहीं छोड़ रहे है। 


चंपारण के चंपेश्वर महादेव का दर्शन करने के बाद जैसे ही हम बाहर निकल रहे थे, मार्ग के एक साइन बोर्ड अचानक हमारी नजर पड़ी जिसमें लिखा था, 81 फीट ऊंची विशालकाय श्री रामोदर वीर हनुमान मंदिर जाने का मार्ग। उत्सुकता वश हम उस मार्ग पर चल पड़े। जो कि रायपुर से चंपारण मार्ग में लगभग 50 किलोमीटर, राजिम से 17 किलोमीटर और चंपारण से महज 8 किलोमीटर की दूरी पर है। टीला गांव के निकट पहुंचते ही हनुमान जी की प्रतिमा दूर से ही दिखाई दे रही थी। पहुंच मार्ग बहुत ही अच्छा है किसी भी वाहन से पहुंचा जा सकता है। 



टीला पहुंचने पर हमें जानकारी हुई कि यह मंदिर प्राचीन नहीं है अपितु जन आस्था के अनुरूप टीना एनीकट निर्माण के दौरान ही बनाई गई है। टीला से पोखरा ग्राम को जोड़ती हुई लगभग 66 करोड़ की लागत से 915 मीटर लंबी एनीकट का निर्माण छत्तीसगढ़ शासन के जल संसाधन विभाग द्वारा नई राजधानी में पानी पहुंचाने हेतु बनाई गई है। टीला, सेमरा, पोखरा, परसदा परिक्षेत्र में 5.2 वर्ग मीटर जल धारण क्षमता की इस एनीकट के किनारे में ही बना है 81 फीट ऊंचा हनुमान जी की मूर्ति। सूचना बोर्ड के अनुसार इसे श्री रामोदर वीर हनुमान मंदिर कहा गया है। किन्तु लोग इसे टीला गांव में होने के कारण टीलेश्वर महादेव के नाम से भी जानते है। 


टीला गांव के घाट पर विशाल हनुमान जी की मूर्ति स्थानीय मूर्तिकार श्री पीलूराम साहू ने बनाई है। साथ ही इस परिक्षेत्र का सौंदर्यीकरण करते हुये छोटा सा उद्यान भी बनाया गया है तथा मंदिर परिसर में ही जल संसाधन विभाग का उपकार्यालय भी है जहां एनीकट के रख-रखाव हेतु कर्मचारी बैठते है। यही एक साइन बोर्ड पर नामकरण के विषय में लिखा गया है- “श्री राम नाम लेखन करने वाले तथा सभी लोगों को विदित हो कि यह स्थान महानदी चित्रोत्पला के तट पर गाय-घाट के नाम से प्रसिद्ध है, यह स्थान शमशान सिद्धपीठ है। जैसे काशीपुर के गाय-घाट तथा मणिकर्णिका घाट में शमशान सिद्धपीठ भी है। श्री रामोदर हनुमान जी 81 फीट ऊंची 9 ग्रहों से युक्त 9 अंकों सहित करोड़ों की संख्या में राम नाम से अंकित कापियों को अपने उदर में धारण करके श्री राम नाम का घोष करते हुए विराजमान है।”




तो इस तरह से इसे श्री रामोदर वीर हनुमान के नाम से भी जाना गया है। इस विशालकाय हनुमान जी के धरातल पर प्रभु श्रीराम, माता जानकी और लक्ष्मण जी की प्रतिमा के साथ छोटा सा मंदिर है। इसी से लगा हनुमान जी की एक और प्रतिमा है। 81 फीट ऊंची हनुमान जी की विशाल प्रतिमा का परिक्रमा करते हुये नवग्रह- सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि और राहू, केतु का भी दर्शन होता है। जीवनदायनी महानदी चित्रोत्पला की कल-कल, छल-छल के बीच संकटमोचन राम भक्त की मंदिर परिसर का गुंजता हुआ घंटा धरती से आकाश तक राम ही राम, राम ही राम, राम ही राम का उच्चारण करता जीवात्मा को मोक्ष प्रदान करता है।






















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नरवा, गरूवा, घुरवा, बारी योजना ने बदली गांवों की तस्वीर




रायपुर.ए। छत्तीसगढ़ प्रदेश सरकार की महत्वाकांक्षी योजना नरवा, गरूवा, घुरवा, बारी वाकई विकास की नई इबारत लिखेगी। छत्तीसगढ़ गांवों का प्रदेश है यहां की अधिकांश आबादी गांव में बसी है तो जाहिर है ग्राम्य जीवन शैली में बदलाव भी जरूरी है। और वह बदलाव जब  मूल स्वरूप को विकृत न करते हुए की जाए तो और भी सोने पर सुहागा वाली बात होती है। गांव की पहचान है नरवा, गरूवा, घुरवा और बारी जो कि दिनों दिन परिवर्तन और विकाश की अंधी दौड़ में विलुप्त होती चली जा रही थी। हाल ही में एक खबर एजेंसी ने बेहद संतोष जनक इस योजना को क्रियांवित करती एक फोटो कोलॉज जारी किया तो मानों ऐसा लगा की अब सही मायने में गांव का विकास का गांव की तरह ही हो रहा है। 

प्रदेश सरकार की अति महत्वाकांक्षी योजना नरवा, गरूवा, घुरवा, बारी से गांवों की बदलती तस्वीर दिखाई दे रही है प्रदेश के कई ग्राम पंचायतों में। इस योजना के तहत गांवों में पशुओं विशेषकर गौवंशी पशुओं के लिए बनाए जा रहे। इस गौठान से ग्रामीणों की अर्थव्यवस्था भी जुड़ह हुई है एक ओर जहां पशुधन में बैल-भैसा कृषी काम में सहयोगी होते है वही गाय, भैस और बकरी दूग्ध पदार्थ से आजीविका की छोटी मोटी जरूरों की पूर्ती होती है। समय के साथ इनके बीच कम होते गए सरोकार से कमजोर होती गई ग्रामीण अर्थव्यवस्था को नवजीवन देने के लिए छत्तीसगढ़ सरकार की नरवा, गरूवा, घुरूवा, बारी योजना निःसंदेह संजीवनी का काम करेगी। 

विकास की इस नये आयाम को देखते है सरकारी कागजों से तो वेबसाइट लिखता है कि जशपुर जिले के दुलदुला में नरवा, गरूवा, घुरवा, बारी इस योजना के तहत् 6 एकड़ से ज्यादा रकबे में बने गौठान में पशुओं को खाते-पीते, विचरण करते और चौकड़ी भरते और अमराई की छांव में विश्राम करते देखकर ऐसा लगता है जैसे-गोकुलधाम दुलदुला की इस धरती पर बस गया हो। गौठान में लगभग 507 पशुओं के विश्राम, चारे-पानी की व्यवस्था के साथ-साथ उनके स्वास्थ्य की देखभाल के पशु चिकित्सक की व्यवस्था की गई है। 

गौठान में पशुओं के लिए फिलहाल 9 नग पानी टंकी, चारे के लिए 9 नग कोटना का निर्माण कराया गया है। पशुओं के विश्राम के लिए यहां घास-फूस युक्त छाया और चबूतरे का निर्माण किया गया है। इस गौठान के एरिया में बड़ी संख्या में आम के पेड़ लगे हुए हैं। अमराई की छांव में भी पशुओं के बैठने की व्यवस्था की गई है। यहां पशुओं की देख-रेख के लिए 84 लोगों की एक समिति बनी है। रोजाना इस समिति के 5-5 सदस्य बारी-बारी से पशुओं के देख-रेख की जिम्मेदारी निभाते हैं। 


गौठान में आने वाले पशुओं के लिए गांव की स्व-सहायता समूह से जुड़ी महिलाएं और ग्रामीणजन चारे के रूप में स्व-स्फूर्त रूप से पैरे का दान कर रहे है। चारा रखने के लिए 7 मचान बनाए गए हैं। यहां स्व-सहायता समूह की महिलाएं स्वीमिंग पूल का भी निर्माण कर रही है। गौठान के एरिया में 500 नग नारियल वृक्ष के रोपण की तैयारी के लिए गड्ढे खोदे गए है। पशुओं के पेयजल के लिए सोलर पंप स्थापित किया गया है। श्री मरकाम ने बताया कि कृषि विभाग द्वारा यहां वर्मी कम्पोस्ट तैयार करने के लिए 25 नग वर्मी बेड तथा 2 नाडेप टांके बनाए गए हैं। गौठान में गोबर गैस, वर्मी एवं कम्पोस्ट खाद तैयार करने के साथ ही यहां गौमूत्र शोधनयंत्र तथा अगरबत्ती निर्माण से भी ग्रामीणों को जोड़ा जाएगा। 

गौठान में आने वाले पशुओं के लिए हरे चारे की व्यवस्था भी की जा रही है। लगभग 5 एकड़ रकबे में मक्का और बाजरा की बुआई की गई है। उन्होंने बताया कि गौठान के समीप में ही बारहमासी श्रीनदी नाला बहता है। इस नाले पर नदेराटुकू में स्टॉप डेम बनाया गया है, जिसमें भरपूर पानी है। उन्होंने बताया कि यहां पर लिफ्ट एरिगेश्न के माध्यम से चारागाह में सिंचाई की व्यवस्था की जाएगी। नाले के बहते पानी को रोकने के लिए यहां बोल्डर चेक आदि का भी निर्माण कराया जाएगा। दुलदुला गांव में उद्यानिकी विभाग द्वारा बाड़ी विकास का भी काम किया जा रहा है। यहां दस हितग्राहियों का चयन बाड़ी विकास के लिए किया गया है। स्रोत - DPRCG

कचना धुरवा मंदिर बारूका, गरियाबंद छत्तीसगढ़

यात्रा वृतांत : कचना धुरवा मंदिर


छत्तीसगढ़ का गरियाबंद जिला अपनी प्राकृतिक सौंदर्य और धार्मिक स्थलों के अलावा कई ऐतिहासिक किवदंतियों की साक्षी है। गरियाबंद जिला मुख्यालय से 14 किलोमीटर दूर राजिम रोड पर एक गांव है बारूका। यह ग्राम राजधानी रायपुर से राजिम-गरियाबंद मार्ग में 77 किलोमीटर दूर है। इस अंचल में बुढ़ादेव के उपासक राजा धुरवा की वीरता और रानी कचना की प्रेम कहानी प्रचलित है। गरियाबंद और धमतरी अंचल के अनेक गांव में कचना धुरवा का मंदिर मिलता है। 



आज हम बारूका गांव के कचना धुरवा मंदिर में पहुंचे है। ऐसा कहा जाता है कि मार्ग से गुजरने पर इस मंदिर में रूक कर राजा धुरवा का दर्शन करना होता है। राजिम गरियाबंद मुख्य मार्ग के सड़क किनारे में होने के कारण यहां हमेशा दर्शनार्थियों का ताता लगा रहता है। यह मंदिर धरातल से लगभग 15 फीट की उचाई में है। 



मंदिर में प्रवेश करते ही प्राचीनता का बोध नहीं क्योंकि मंदिर परिसर का नव निर्माण किया गया है। किन्तु जैसे ही हम कचना धुरवा के देव स्थल पर पहुंचते है ऐतिहासिक्ता की सच्चाई सामने आ जाती है। सफेद घोड़े पर सवार राजा धुरवा की प्रतिमा अंचल में प्रचलित किस्से- कहानी की कड़ियां जोड़ती है। क्योकि इस अंचल में कचरा धुरवा की जितनी भी प्रतिमाएं मिली है सभी में समानताएं रही है। इस वजह से प्रचलित किवदंतियों को नकारा नहीं जा सकता है। कचरा धुरवा को जानने के लिए हमें इस अंचल में और भी घूमना पड़ेगा फिलहाल इस मंदिर का ही दर्शन कर लेते है। 

अभी नवरात्र पर्व है इस वजह से यहां कफी भीड़ है। कचना धुरवा देव स्थल पर जहां अखंड ज्योति प्रज्वलित हो रही है। भक्त नारियल अगरबत्ती देवश्री को अर्पित कर रहे है। भक्त अपनी मनोकामना पूर्ति हेतु यहा नारियल बांधते है। इस परिसर में ग्राम देवी रूपई माता, बंजारी माता और सोनई माता का मंदिर भी है। यहां प्रत्येक​ नवरात्र में अखंड ज्योति जलती है। इसके अलावा गुरूदेव संत श्री ब्रम्हलीन सिया भुनेश्वरी शरण व्यास जी का मंदिर है साथ ही हनुमान जी का भी छोटा सा मंदिर बना हुआ है। 



लोग यहां कचरा धुरवा की विरता और उनके प्रेम के किस्से से कही ज्यादा बुढ़ादेव के उपासना, भक्ति और तप की चर्चा करते हुए देवश्री का दर्शन कर अपने आप को धन्य मानते है। जय बुढ़ादेव, जय कचना धुरवा, जय जगदंबा।


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निरई माता की जात्रा

नवरात्रि की प्रथम रविवार को जात्रा में आते है सैकड़ों श्रद्धालु

निरई माता के दरबार में नहीं जाती है महिलाएं

निरई ग्राम की दुर्गम पहाड़ी में बसी है माता निरई







छत्तीसगढ़ आदिकाल से ही देवी-देवताओं की आस्था और साधना का केन्द्र रहा है। इसीलिये इस अंचल के कोने-कोने में देव स्थल है। कहीं धरातल के भव्य मंदिर पर,  तो कहीं सैकड़ों फीट पहाड़ी की ऊंची चोटी पर माता विराजमान है। कुछ स्थान पर पहुचंने के लिए अच्छी सड़के और सीड़ियों का निर्माण हो चुका है किन्तु सुदूर अंचलों में आज भी कुछ स्थानों पर माता पेड़-पहाड़ियों की कंदराओं में विराजमान है। भक्त भी अवसर विशेष में माता का दर्शन करने असुविधाओं में भी प्रसन्नता से पहुंचते है। 52 शक्तिपीठ में से आदिशक्ति मां का अधिकांश मंदिर पहाड़ियों में ही है जहां आसानी से पहुंच पाना संभव नहीं होता है। छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले के मगरलोड विकासखंड के अंतर्गत एक ग्राम निरई की कुलदेवी माता निरई, वहां कि दुर्गम पहाड़ी में बसी हैं जहां पैदल पहाड़ी की ऊंची चोटी पर चड़ना पड़ता है। 





निरई माता की महिमा कुछ ही वर्षो में इतनी बड़ी है कि एक दिन में ही हजारों भक्त दर्शन करने निरई की पहाड़ी में पहुंचते है। निरई माता के नामकरण के विषय में यह कहा जाता है कि गांव के नाम पर ही माता का नाम पड़ा, कुछ लोगों का यह भी मानना है कि माता के नाम पर ही निरई ग्राम बसा है। निरई एक छोटा-सा गांव है जो कि मोहेरा का आश्रित ग्राम है। यहां रायपुर, गरियाबंद, धमतरी से आसानी से पहुंचा जा सकता है। निरई माता के दर्शन के लिये बहुत ही दुर्गम रास्तों से होकर जाना पड़ता है। वैसे अब मोहेरा गांव तक सड़क का निर्माण कार्य चल रहा है किन्तु निरई ग्राम जाने के लिए लगभग 5 किलोमीटर कच्ची रास्ते से गुजरना पड़ता है। 






इस अंचल में आदिवासी व गोड़वाना समाज के लोगों की बाहुलता है। यहां के लोगों का जीवन कृषि पर आधारित है। पास में ही नदी है इसीलिए यहां के लोगों का जीवन अन्य पहाड़ी अंचलों कि आपेक्षा बेहतर है। माता निरई का वास पहाड़ी की चोटी पर है किन्तु पहाड़ी के नीचे भी अलग-अलग स्थानों पर माता के ही प्रतिरूप को रखा गया है। 








माता का दर्शन करने के लिए लोग एक दिन की जात्रा में अधिक संख्या में आते है। निरई माता का जात्रा नवरात्रि के प्रथम रविवार को आयोजित होती है। इस दिन आसपास के ग्रामीण माता का दर्शन करने के साथ माता से मनोकामना मांगते है और मन्नत पूरी होने पर माता को बकरे की बलि देते है। चूकि यह अंचल आदिवासियों का है इसलिए यहां मां की आराधना और उपासना ग्रामीणों के अनुसार आदिम सस्कृति से की जाती है।




माता निरई का दरबार वर्ष में एक दिन के लिए खुलता है। नवरात्रि का रविवार होने के कारण भीड़ अधिक होती है। माता निरई पहाड़ी की कंदरा और पेड़ की छॉव में बैठी भक्तों का दुखदर्द दूर कर रही है। यहा अन्य धार्मिक स्थानों की तरह फूल, नारियल आदि का बाजार नहीं लगता है, जात्रा के दिन ही कुछ लोग अब पहुंचने लगे है। ग्रामीणों के अनुसार उनके पूर्वज सैकड़ों वर्षो से इस स्थान पर माता की आराधना करते आ रहे है। पहुंच मार्ग दुर्गम होने के कारण पहले जात्रा में अधिक लोग शामिल नहीं होते थे किन्तु अब कुछ ही वर्षों में हजारों लोग एक दिन की जात्रा में दर्शन करने आते है। भक्तों द्वारा एक दिन में ही सैकड़ों बकरा माता को भेट की जाती है। निरई की पहाड़ी के अलावा नीचे भी माता के दो देव स्थान है जहां बकरा काटा जाता है। एक स्थान में काला बकरा और दूसरे स्थान में खैरा बकरा कटता है। 


माता निरई के विषय में भी अनेक किवदंती प्रचलित है। पहाड़ी के नीचे सबसे प्रथम माता की पांव का दर्शन होता है। पांव के विषय में ग्रामीण बताते है कि माता धीरे-धीरे जल स्त्रोत से बाहर आ रही थी लेकिन कुछ असामाजिक तत्वों द्वारा उस स्थान पर उचित मान सम्मान नहीं किये जाने के कारण माता का निकलना बंद हो गया, अब उस स्थान पर ही माता के पाव को स्थापित करके रखा गया है। इस स्थान में कवांर नवरात्रि में अखंड ज्योति प्रज्वलित की जाती है।


ग्रामीण बताते है कि उनके पूर्वज इस स्थान पर कई वर्षों से आराधना करते आ रहे है। पहाड़ी से माता का शेर गांव पुजारी के घर तक आता था, उनसे बातें किया करता था। माता ने उस पहाड़ी पर कई और लोगों को दर्शन दिये है। ख्याति धीरे-धीरे अब अन्य गांव और शहर तक पहंचने से दर्शन करने वालों का तांता लगा रहता है। इस निरई धाम के एक दिन के जात्रा में केवल पुरूष ही जाते है यहां महिलाओं का प्रवेश वर्जित है।



माता निरई का यह क्षेत्र कुछ ही वर्षो में ही धर्म और पर्यटन के रूप में भी काफी विकसीत हो रहा है। लोगों के आवागमन के लिये रास्ते बनाये जा रहे है। हो सकता है कुछ वर्षों में मंदिर आदि का निर्माण हो जाये किन्तु आज जो निरई धाम का नजारा है वह अलौकिक और अदभुत है। असुविधा के साथ प्राकृतिक वादियों में विचरण करने का आनंद ही अलग होता है।

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- जयंत साहू
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